Magazine - Year 1942 - Version 2
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Language: HINDI
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ईश्वर की खोज
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डॉ. राम नरेश त्रिपाठी
मैं ढूँढ़ता तुझे था जब कुँज और बन में।
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में॥
तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था।
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में ॥ 1॥
मेरे लिये खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू-
मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में।
बन कर किसी के आँसू मेरे लिये बहा तू-
आँखें लगी थी मेरी तब यार के बदन में । 2।
बाजे बजा बजा के मैं था तुझे रिझाता -
तब तू लगा हुआ था पतितों के संगठन में।
मैं था विरक्त तुझसे जग की अनित्यता पर-
उत्थान भर रहा था तब तू किसी पतन में । 3।
बेबस गिरे हुओं के तू बीच में खड़ा था-
मैं स्वर्ग देखता था झुकता कहाँ चरन में।
तूने दिये अनेकों अवसर न मिल सका मैं-
तू कर्म में मगन था मैं व्यस्त था कथन में । 4॥
हरिचंद और ध्रुव ने कुछ और ही बताया-
मैं तो समझ रहा था तेरा प्रताप धन में।
मैं सोचता तुझे था रावन की लालसा में-
पर था दधीचि के तू परमार्थ रूप तन में । 5॥
तेरा पता सिकन्दर को मैं समझ रहा था-
पर तू बसा था फरहाद कीहकन में।
क्रीसस के हाथ में था करता विनोद तू ही-
तू अन्त में हँसा था महमूद के रुदन में । 6॥
प्रहलाद जानता था तेरा सही ठिकाना-
तू ही मचल रहा था मंसूर की रटन में
आखिर चमक पड़ा तू गाँधी की हड्डियों में
मैं था तुझे समझता सुहराव पीलतन में। 7॥
कैसे तुझे मिलूँगा जब भेद इस कदर है-
हैरान हो के भगवन् आया हूँ मैं शरन में।
तू रुप है किरन में सौंदर्य है सुमन में-
तू प्राण है पवन में विस्तार है गगन में। 8॥
तू ज्ञान हिंदुओं में ईमान मुसलिमों में-
है प्रेम क्रिश्चिन में तू सत्य है सुजन में ।
हे दीनबन्धु ! ऐसी प्रतिभा प्रदान कर तू-
देखूँ तुझे दृगों में मन में तथा वचन में। 9॥
कठिनाईयों दुखों का इतिहास तो सुयश है-
मुझको समर्थ कर तू बस कष्ट के सहन में।
दुःख मैं न हार मानू सुख में तुझे न भूलूँ -
ऐसा प्रभाव भर दे मेरे अधीर मन में॥10॥
*समाप्त*