Magazine - Year 1944 - Version 2
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Language: HINDI
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पुस्तकालय खोलिये
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मनुष्य जीवन में ‘ज्ञान’ का कितना महत्व है, अखंड ज्योति के पाठक इसे भली भाँति अनुभव करते होंगे। ज्ञान प्रसार करने का परमार्थ अत्यन्त उच्च कोटि का ब्रह्म यज्ञ है। इस यज्ञ को यथाशक्ति हर एक परमार्थी को नित्य करने का प्रयत्न करना चाहिए।
पुस्तकालय एवं वाचनालय स्थापित करना, ज्ञान यज्ञ के अंतर्गत एक बहुत ही श्रेष्ठ कार्य है। अन्य पुण्य कार्यों की अपेक्षा इस कार्य में लगाया हुआ धन और समय अधिक पुण्य फलदायक होता है। सार्वजनिक रूप से पुस्तकालय की स्थापना अधिक सुगम होती है। चन्दे से पैसा इकट्ठा कर लेने से थोड़ा थोड़ा बोझ सब पर बँट जाता है। किसी एक आदमी को अत्यधिक भार नहीं उठाना पड़ता। बहुत से आदमियों का समय, सहयोग और पैसा लगने के कारण उनकी दिलचस्पी उस ओर बढ़ती है। यह निश्चित है कि जिस कार्य में जितने सहायक अधिक होंगे उसकी उतनी ही उन्नति होगी। जहाँ दस आदमी भी पुस्तकालय योजना में दिलचस्पी लेने वाले हों वहाँ सार्वजनिक रूप से पुस्तकों का और पैसे का चन्दा करके कार्य आरम्भ करना चाहिए। धनी व्यक्तियों को इस कार्य में खुले दिल से सहायता करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
एक अत्यन्त ही सावधानी की बात है जो पुस्तकालय स्थापित करते समय भली प्रकार स्मरण रखनी चाहिए। वह यह कि पुस्तकों की अधिक संख्या बढ़ाने के लोभ में दूषित विचारों की घासलेटी किताबों की भरती हरगिज न की जाए। पुस्तकों का चन्दा करने में ऐसा होता है कि जिसके घर में जैसी भली बुरी पुस्तकें पड़ी होती हैं वह उन्हें ही पुस्तकालय को दे देते हैं। लेने वाले इस लोभ से उन्हें ले लेते हैं कि हमारे पुस्तकालय में पुस्तकों की संख्या अधिक बढ़ेगी। कम पैसों में सस्ती-सस्ती अधिक पुस्तकें खरीद कर संख्या बढ़ाने का लोभ भी ऐसा ही है। यह संख्या बढ़ाने का लोभ जब इतना बढ़ जाता है कि बुरी, घासलेटी, खराब असर डालने वाली पुस्तकें भी बे रोक टोक भरती होने लगें तो समझना चाहिए कि पुस्तकालय की स्थापना निरर्थक हुई, हानिकारक हुई। औषधालय इसलिए खोला जाता है कि बीमार आदमी अच्छे हों परन्तु यदि कोई दवाखाना जहर की पुड़िया बाँट कर अच्छे आदमियों को बीमार करें, बीमारों को मौत की ओर सरकावे तो ऐसे औषधालय को खोलने की अपेक्षा उसका न खोलना हजार दर्जे अच्छा है। इसी प्रकार खराब किताबों की भर्ती करने की अपेक्षा पुस्तकालय न खोलना अच्छा है। जिन्होंने यह भूल की हो उन्हें अपनी गलती का प्रतिकार करना चाहिए और अपने पुस्तकालयों में से सारा कूड़ा करकट, गंदा हानिकारक साहित्य हटा देना चाहिए। जो नया, पुस्तकालय खोल रहे हों उन्हें अच्छी-2 चुनी हुई, ज्ञानवर्धक, सत्मार्ग पर ले जाने वाली पुस्तकें अपने यहाँ रखनी चाहिए। भले ही उनकी संख्या थोड़ी-बहुत थोड़ी ही बनी रहे।
किसी भी संस्था को चलाने में कुछ व्यक्ति उसके प्राण होते हैं। यदि वे उसमें से हट जावें तो एक प्रकार से वह निर्जीव हो जाती है। हर साल ढेरों पदाधिकारियों का चुनाव होना ऐसा बखेड़ा है जिसके कारण अकारण फूट, मन मुटाव, ईर्ष्या, द्वेष, पैदा होती है। इस कंटक को जहाँ तक हो काटने का प्रयत्न करना चाहिए। एक संचालक का नियुक्त करना ही काफी है। जब तक कि कोई विशेष कारण न हो, संचालक का परिवर्तन न करना चाहिए। संस्था के सब सदस्य उसे सहयोग करें, परन्तु पदाधिकारी बनने की होड़ न लगावें। संचालक अपनी मर्जी से कार्यकारिणी समिति की नियुक्ति करे और उसकी सलाह से काम किया करे।
पुस्तकालय द्वारा जनता की अधिक सेवा होना अधिक पुस्तकों के ऊपर, अच्छे मकान के ऊपर, अधिक पैसे के ऊपर निर्भर नहीं है वरन् इस बात के ऊपर निर्भर है कि उसका संचालक दूसरे लोगों को अध्ययन के लिए अधिकाधिक प्रोत्साहित करने के कार्य में दिलचस्पी लेता हो। संचालक का कर्तव्य होना चाहिए कि लोगों को पुस्तक पढ़ने के लाभ खूब विस्तार से बताया करे। दो चार बार किसी के घर जाना पड़े तो भी जा जाकर पुस्तकें उसके घर जाकर दे आने और ले आने का काम करे। जिस प्रकार जुआरी या नशेबाज, अपनी संख्या बढ़ाने के लिए नये नये लोगों को फाँसते हैं। शुरू शुरू में अपनी गाँठ से भी कुछ खर्च करते हैं। दोस्ती जोड़ते हैं और भी तरह तरह से हथकंडे काम में लाते हैं इस प्रकार धीरे धीरे वे अपने व्यसन का जुआ, या नशे का चस्का उसे लगा देते हैं अन्ततः वह नया आदमी उनकी बिरादरी में शामिल हो जाता है। यह क्रिया पद्धति अनुकरणीय है। जब कि पीछे पड़ने से बुरे आदमी, लोगों को बुरी बातों का चस्का लगा देते हैं तो कोई कारण नहीं कि श्रेष्ठ व्यक्ति, श्रेष्ठ कार्य के लिए, सद्भावनापूर्वक आकर्षित करना चाहे तो समझदार लोगों को आकर्षित न कर सके। पुस्तकालय स्थापना की सार्थकता इसी बात में है कि इसके द्वारा अधिक लोगों को सत्साहित्य पढ़ने का चस्का लगाया जा सके। चस्का लगने पर तो वह व्यक्ति अपनी बौद्धिक भूख बुझाने के लिए खुद ही पुस्तकें एकत्रित करेगा। विदेशों में हर एक पढ़े लिखे आदमी की अपनी एक निजी लाइब्रेरी होती है। यहाँ भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार हर साक्षर व्यक्ति को अपने पास अच्छी पुस्तकों का संग्रह उसी प्रकार करना चाहिये जैसे कपड़े या जेवर आदि का संग्रह किया जाता है। पुस्तकालय का उद्देश्य यह नहीं है कि सब किसी की पढ़ने की जरूरत वह खुद पूरी करे वरन् यह है कि स्वाध्याय के लिए-सत्साहित्य पढ़ने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करे, चस्का लगाये, दिलचस्पी पैदा करे। इसके बाद हर आदमी को अपने लिए अच्छी पुस्तकें खुद खरीदनी चाहिए, निजी लाइब्रेरी बनानी चाहिए।
यदि संचालक खुद अपने शरीर से इतना समय न पाता हो कि अधिक लोगों को पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर सके तो इस कार्य के लिए पूरे समय का या दो चार घंटे समय का कोई नौकर रखना चाहिए और चलती फिरती लाइब्रेरी के ढंग से पुस्तकें नये लोगों के घरों पर भेजनी चाहिए। पढ़ने के बाद मँगानी चाहिए और ऐसा चस्का लगा देना चाहिए कि बाद को वे लोग खुद ही पुस्तकालय आकर पुस्तकें ले जावें। आरम्भ में एक दो महीने बिना चंदे के भी नये आदमी को मेम्बर बनाना चाहिए बाद में उससे उसकी सामर्थ्य के अनुसार मासिक चन्दा मुकर्रर कर देना चाहिए। पुस्तकों की जिल्दें बँधवा लेनी चाहिए ताकि वे पढ़ने से खराब न हों।
अधिक लोगों का सहयोग प्राप्त न हो सके और बड़े रूप में पुस्तकालय स्थापित न हो सके तो इसके लिए ठहरने की, रुकने की या प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। अपनी शक्ति के अनुसार जितनी भी अच्छी पुस्तकें संग्रह हो सकें उन्हें जिल्द बंधवा कर रखना चाहिए और खुद ही संचालक के रूप में लोगों को अपनी पुस्तकें पढ़वाने के लिए कोशिश करनी चाहिए। ऐसे निजी पुस्तकालयों के लिए पढ़ने वालों से मासिक चन्दा आदि न लगना चाहिए। यथा अवसर उन्हें नई पुस्तकें मँगाने के लिए कुछ आर्थिक सहायता देने को प्रोत्साहित करना चाहिए। एक कापी या रजिस्टर में पुस्तकों के देने और वापिस आने की तारीख वार का हिसाब जरूर रखना चाहिए, इससे पुस्तकें खोने का डर नहीं रहता। यह याद रखना चाहिए कि हम लोगों में जिम्मेदारी और कर्तव्य भावना की बड़ी कमी है। इस लिए हर एक पुस्तकालय संचालक को यह भली भाँति समझ लेना चाहिए कि उसके सामने थोड़े बहुत ऐसे अवसर अवश्य ही आवेंगे कि लोग पुस्तक को फाड़ कर, गंदी करके वापिस करें या न भी वापिस करें। ऐसी घटनाओं से झुँझलाने, रुष्ट होने या पुस्तकालय बन्द करने की जरूरत नहीं है। यदि हम लोगों में गैर जिम्मेदारी की इतनी बढ़ोतरी न होती तो देश को ऐसा दुर्भाग्य ही क्यों देखना पड़ता। ऐसी बीमारियों को दूर करने के लिए ही तो ज्ञान प्रसार की आवश्यकता है।
अखंड ज्योति के पाठकों को सामूहिक या व्यक्तिगत पुस्तकालयों (ज्ञान मन्दिरों) में अधिक से अधिक दिलचस्पी लेनी चाहिए। वह बड़ा ही धर्म कार्य है। ज्ञान वृद्धि से बढ़कर और दूसरा पुण्य नहीं है। जो पाठक अपने यहाँ इस प्रकार के ज्ञान मन्दिर स्थापित करें उसकी सूचनाएं अखण्ड ज्योति को भी देने की कृपा करें।
सात्विक सहायताएँ
इस मास ज्ञान यज्ञ में निम्नलिखित सात्विक सहायताएँ प्राप्त हुई हैं। अखण्ड ज्योति इन महानुभावों के प्रति अपनी आन्तरिक कृतज्ञता प्रकट करती है।
50) श्री नरसिहंदासजी चितलारया, राजनाँद गाँव,
30) श्री देशराजजी ऋषि रुड़की,
10) पं. हृदयनारायण जी अवस्थी बनारस,
10) श्री गौरीशंकरजी अग्रवाल झीझक,
10) चौं. सुरजनसिंहजी दलेल नगर,
10) श्री साँवलदासजी जमीदार मछरहट्टा,
5) कुँ. मनवोधनसिंहजी कबराई,
2) पं. नारायणप्रसादजी तिवारी मूँदी,
1) श्री धर्मपालसिंहजी रुड़की,
1) श्री नन्दलालजी कीठानिया जलपाई गुड़ी,