Magazine - Year 1944 - Version 2
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Language: HINDI
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बरसीं मेरी आंखें झर झर
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(राजकुमारी श्री रत्नेश कुमारी ललन मैनपुरी स्टेट)
देखा एक वयोवृद्ध मानव थे जिसके अंग शिथिल सारे।
हो रहीं शक्तियाँ अस्त−व्यस्त झुक रही कमर दुख के मारे॥
जीवनभर पिसता रहा, कमाता रहा, पालता रहा, स्वजन सब बेचारा।
पर आज रो रहा तिरस्कार, अपमान, उपेक्षा का मारा॥
कैसे कहती तू धीरज धर?
बरसीं मेरी आंखें झरझर॥
देखा एक रोग ग्रस्त जिसको चिरकाल व्यथा सहते बीता।
सब व्यर्थ प्रयत्न हुए उसके, गम खाता था आँसू पीता॥
उसको, उसके घरवालों को, था उसका जीवन एक भार।
वह बुला रहा था, किन्तु मृत्यु भी सुन न सकी उसकी गुहार॥
कैसे कहती तू जल्दी मर?
बरसों मेरी आँखें झरझर॥
बालिका एक विधवा अबोध, था स्वप्न तुल्य उसको सुहाग।
लोहे की लाठी उसके दिल को कुचल सिखाती थी विराग॥
पति परित्यक्ता थी एक जिसे स्वजनों ने भी था ठुकराया।
पाये आश्रय असहाय कहाँ यह नहीं उसे था बतलाया॥
बतलाती क्या सुरसरि का घर?
बरसीं मेरी आँखें झरझर॥
देखे मानव जो जठर ज्वाल में तिल तिल होते भस्म सात।
दम तोड़ रहे थे तड़प तड़प अकड़े सरदी से सुन्न गात॥
देखा अनदेखा कर सुख से ‘सम्पन्न’ समाज रहा जीता।
इस कुरुक्षेत्र में किसी कृष्ण ने कही न भूखों की गीता॥
कैसे सकती दुख उनका हर?
बरसीं मेरी आँखें झरझर॥
मानव उतरा दानव पन पर मानवता का कर परित्याग।
सोया समत्व, सद्भाव, स्नेह कृष्णा, मत्सरता उठी जाग॥
सीधा सच्चा पथ छोड़ चली दुनिया विनाश की ओर अरे।
होता अनीति का नग्न नृत्य यह कैसा भय प्रद हरे! हरे!!
अन्तस्तल काँप उठा थर थर।
बरसों मेरी आँखें झरझर॥
*समाप्त*