Magazine - Year 1945 - Version 2
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Language: HINDI
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सब अनर्थों की जड़-मानसिक दासता।
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(ले.-प्रोफसर श्री मोहनलाल जी वर्मा, M.A.LL.B., अध्यक्ष-दर्शन विभाग, हर्बर्ट कॉलेज, कोटा)
मानसिक दासता सब प्रकार की दासताओं की जननी है। जब शरीर का चालक मन अशक्त है तो शरीर का अणु-अणु अपाहिज है। उसकी शक्ति को प्रकाशित होने का कोई विशिष्ट मार्ग नहीं, उसका कोई निश्चित उद्देश्य नहीं। वह एक ऐसी नौका है जो जिधर चाहे बहक सकती है।
समस्त मानव जीवन की प्रवर्त्तक ‘भावनाएँ’ होती हैं। इन भावों का अनुसरण हमारी मूल प्रवृत्तियाँ किया करती हैं। भावनाएँ मन में विनिर्मित होती हैं। उनका उच्चाशय या निंदा स्वरूप मन की प्रेरक शक्तियों पर अधिष्ठित है।
मन के अपाहिज हो जाने पर आत्मा जड़ से भी गया बीता हो जाता है। उसकी महत्वाकाँक्षा का निरन्तर क्षय होता रहता है। आशाओं पर तुषारापात होता है। ऐसा व्यक्ति नहीं जानता कि वह क्या है? उसका वास्तविक स्वरूप क्या है? उसे किस दिशा की ओर अग्रसर होना है? दासता की कुलिश-कठोर बेड़ियों में जकड़ा हुआ मन स्वयं अपना ही नहीं, अपने स्वामी का भी सर्वनाश कर देता है।
जो कुछ न्यूनता, भय, भ्राँति तुम अपने आप में पाते हो उसका कारण दिमागी गुलामी है। अपने विषय में जो डरपोक विचारधारा तुम रखते हो, हीनत्व की ग्रन्थि जिसका निर्माण तुमने भयभीत हो कर लिया है। वह तुम्हारी गुलामी का कडुआ परिणाम है। अपने विषय में जो धारणाएँ तुमने निर्मित कर ली हैं। उनका आदि स्त्रोत तुम्हारी मानसिक दासता ही है। अपने अंतर प्रदेश में तुमने अपना जो चित्र खींचा हैं या तुम्हारे ऊपर दूसरों का जो जादू चलता है, वह स्वयं तुम्हारी मानसिक दासता की प्रतिच्छाया है। मानसिक गुलामी ही हमें दरिद्र, दुःखी, चिंतित एवं आपत्तियों का शिकार बना रही है।
मानसिक दासता की उत्पत्ति
हम दूसरों को डरपोक देखते हैं तो समझ लेते है कि ऐसे ही हमें भी होना चाहिए। ऐसा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। हम अपने चारों और ऐसा ही कुत्सित वातावरण देखते हैं। हम विगत कटु अनुभवों को अपेक्षाकृत अधिक महत्व देते हैं। हम स्वयं विचार शक्ति का उपयोग न कर विचार की गति को पंगुर डालते हैं। हम स्वयं निज मानसिक शक्ति का उपयोग न कर उदाहरण, दूसरे की प्रणाली पर निज जीवन को अधिष्ठित कर देते हैं। हम सोचते हैं कि जो हमारे पूर्वज कर गए हैं, जो हमारे नेतागण चरितार्थ कर रहें हैं, जो कुछ हमारे भ्राताओं ने अर्जन किया है वही हमारा भी साध्य है। उसी को हमें प्राप्त करना चाहिए। हम अपने वातावरण से दासता ही दासता एकत्रित करते हैं। मन में कूड़ा-कर्कट एकत्रित करते रहते हैं, कालान्तर में मन का वातावरण कलुषित हो जाता है। हमारा समाज, कभी हमारा गृह, कभी हमारा वातावरण या जीविका उपार्जन का कार्य मानसिक दासता का सहायक बन जाता है तथा हमें दीन दुनिया कहीं का भी नहीं छोड़ता । कृत्रिम साधनों द्वारा मन का विकास रुक जाना ही मानसिक दासता है।
मानसिक दासत्व एक प्रकार का रोग है-
हम मानसिक दासत्व को एक मनोवैज्ञानिक रोग मान सकते हैं। अनेक प्रकार के भ्रम, अभद्र-कल्पनाएँ, निराशा, निरुत्साह इत्यादि मनः क्षेत्र में, आत्महीनता की जटिल ग्रन्थि उत्पन्न कर देते हैं। कालाँतर में ये ग्रन्थियाँ अत्यन्त शक्तिशाली हो उठती हैं। फिर दिन प्रतिदिन के विविध कार्यों में इन्हीं की प्रतिक्रिया (Reaction) चलती रहती है। हमारे डरपोकपन के कार्य प्रायः इसी ग्रन्थि के परिणाम स्वरूप होते हैं। अनेक मन गढ़न्त विरुद्ध संस्कार स्मृति पटल पर अंकित रहते हैं। पुरानी असफलताएँ, अप्रिय अनुभव, अव्यक्त मन (n-conscious mind) से चेतन में प्रवेश करती हैं तथा प्रत्येक अवसर पर अपनी रोशनी फेंका करती हैं। जैसे एक बारीक कपड़े से प्रकाश की किरणें हल्की-हल्की छन कर बाहर आती हैं उसी प्रकार आत्म हीनता तथा दासत्व की ग्रंथियों की झलक प्रायः प्रत्येक कार्य में प्रकट होकर उसे अपूर्ण बनाया करती हैं। कभी-2 मनुष्य की शारीरिक निर्बलता, कमजोरियाँ, व्याधियों, अंग-प्रत्यंगों की छोटाई मोटाई, सामाजिक परिस्थितियों, निर्धनता, देश की कमजोरियाँ सब मानसिक दासत्व की अभिवृद्धि किया करते हैं। भारत में मानसिक दासत्व का कारण अंधकारमय वातावरण, तथा पाशविक वृत्तियों का अनाचार है। समय-समय पर देश में होने वाले आन्दोलनों से मानसिक दासत्व में भी न्यूनता या अभिवृद्धि का क्रम चला करता है।
मानसिक दासत्व तथा धर्म
वर्तमान रूप में व्यवहृत हमारा धर्म मानसिक दासता का मित्र बना हुआ है। मनुष्य का मन प्रत्येक तत्व को समझने, मनन करने के लिए प्रदान किया गया है। वह सोच समझ कर प्रत्येक वस्तु ग्रहण करें, यों ही प्रत्येक तत्व को अन्धों की तरह ग्रहण न करे-यही इष्ट है। धर्म के आधुनिक रूप ने मानव मन को अत्यन्त संकुचित डरपोक बना दिया है। किताब कलमा, जादू, टोना, तीर्थ न जाने कितनी आफतें मानव मन पर सवार हैं। वह धार्मिक शृंखलाओं के कारण इधर से उधर टस से मस नहीं हो पाता। हजार आदमी उसके ऊपर उँगलियाँ उठाने को प्रस्तुत हैं। अतः बेचारे को अन्य व्यक्तियों का अनुकरण करना होता है। अनुकरण अबोध के लिए उपयुक्त हो सकता है किन्तु विवेकशील को उस जंजीर में बाँधने से उसके मनः क्षेत्र में प्रबल उत्तेजना उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार मन की गुलामी उत्पन्न होती है। जब मन उत्तम तथा निकृष्ट में विवेक न कर सके तो उसे ‘दास’ कहेंगे। उसे तो स्वच्छता पूर्वक निज कर्म करना चाहिए। यदि मनुष्य का मन स्वतन्त्र रूप से विवेक की शक्ति नहीं रखता तो वह किसी अन्य शक्ति के वश में अवश्य रहेगा। स्वयं जब मन को अपनी इच्छा शक्ति पर प्रभुत्व नहीं तो उस पर किसी विजातीय शक्ति का प्रभुत्व अवश्य रहेगा।
मन को परिपक्व होने का अवसर दीजिए-
यदि एक छोटे पौधे को एक शीशी में बन्द कर दें और केवल ऊपर से खुला रहे, तो वह क्रमशः ऊपर ही को बढ़ेगा। उसे इधर-उधर फैलने की गुंजाइश नहीं है। उसे आपने संकीर्ण वातावरण में रख दिया है। इसी प्रकार यदि आप कूप मण्डूक बने रहेंगे, तो मन विकसित न हो सकेगा। वह एकाँगी रहेगा तथा उसमें सहृदयता, दयालुता, सत्यवादिता, निर्भीकता या निर्णय शक्ति का विकास न हो सकेगा, मन को छोटे दायरे में बन्द रखने से मनुष्य सब वैभव होते हुए भी अन्तर्वेदना से पीड़ित रहता है उसमें आत्म सम्मान का प्रादुर्भाव नहीं होता।
मन को स्वाधीनता दीजिए। उसे चारों ओर फैलने का अवसर दीजिए। मानसिक स्वतंत्रता से ही मनुष्य में दैवी गुणों का प्रादुर्भाव होता है। मन को स्वच्छंदता पूर्वक विचारने की, मनन करने की स्वतंत्रता दीजिए तो वह आपका सच्चा मित्र-सलाहकार बन जायगा। वह निकृष्ट भोगेच्छाओं में परितृप्त न होगा। वह अन्य व्यक्तियों की कृपा पर से आश्रित न रहेगा। मानसिक स्वतन्त्रता प्राप्त करते ही मनुष्य का संसार के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है। मानसिक स्वच्छन्दता के बिना मनुष्य प्रसन्नचित्त नहीं रह सकता।
कल्पना कीजिए, आपको बात-बात पर अन्य व्यक्तियों के इशारों पर नर्तन करना पड़ता हैं। जब आप तनिक सी मौलिकता प्रकट करने का प्रयत्न करते हैं कि आपको तीखी डाँट पड़ती है। ऐसी स्थिति में मन परिपक्व नहीं होता। उसकी सब मौलिकता नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। वह मन मनुष्य का शत्रु तथा उन्नति में बाधक बन जाता है।
प्रोफेसर गेट्स ने सिद्ध किया है कि जिन व्यक्तियों को तनिक-तनिक से अवसर पर डराया धमकाया या ताड़ना की जाती है। उनकी सर्जन शक्ति विलुप्त हो जाती है। आत्म सम्मान खो जाता है। ऐसी दासता आध्यात्मिक पतन की सूचक है। ऐसी भयंकर स्थिति के कारण अनेक मनुष्यों की प्रगति व उन्नति रुक जाती है। व्यावहारिक जगत में जो व्यक्ति सदा दूसरों का मुँह निहारा करते हैं, वे समाज के भार-स्वरूप हैं।
मन को उत्तम बनाने के साधन-
मानसिक परिपुष्टि का मुख्य साधन है-शिक्षा। जिस मस्तिष्क को शिक्षा नहीं मिलती, वह थोड़ा बहुत अनुभव (Experience) से बढ़कर रुक जाता है। शिक्षा ऐसी हो जिससे मन की सभी शक्तियों- तर्क-शक्ति, तुलना-शक्ति, स्मरण-शक्ति, लेखन-शक्ति, कल्पना-शक्ति का थोड़ा बहुत विकास हो सके। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि हम अपनी इच्छानुसार इन सभी शक्तियों को बढ़ा सकते हैं। आवश्यकता है केवल ठीक प्रकार की शिक्षा की। शिक्षा ऐसी मिले कि मनुष्य का विकास उत्तरोत्तर होता रहे, वह रूढ़ियों का गुलाम न बन जावे। अन्यथा मानसिक दासता का फल भयंकर होगा।
दूसरा साधन है अनुकूल संगति तथा परिस्थितियाँ। जिन परिस्थितियों में मनुष्य निवास करता है प्रायः वे ही मानसिक शक्तियाँ उसमें जाग्रत होती हैं। जिस मनुष्य के परिवार में कवि अधिक मात्रा में होते हैं, वह प्रायः कवि होता है। हरे पत्तों में निवास करने वाला कीड़ा हरित वर्ण का ही हो जाता है। अतः पुस्तकों की संगति में रहिए, विद्वानों से तर्क कीजिए, शंकाओं का समाधान कीजिए।
तीसरा साधन है उपयुक्त मानसिक व्यायाम। जिस प्रकार नियमित व्यायाम से हमारा शरीर विकसित होता है, उसी प्रकार मानसिक व्यायाम (अभ्यास) द्वारा मन में भिन्न-भिन्न शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है। एकाग्रता का अभ्यास अपूर्व शक्ति प्रदान करता है। खेद है कि अनेक व्यक्ति निजी जीवन में एकाग्रता को वह महत्व प्रदान नहीं करते जो वास्तव में उन्हें करना चाहिए। एकाग्रता से कार्य शक्ति बहुत बढ़ जाती है। यदि दृढ़ एकाग्रता रखने वाले व्यक्ति से तुम्हारा साक्षात्कार हो तो तुम्हें अनुभव होगा कि वह पर्वत सदृश्य अचल होकर कार्य करता है। तुम उसे छेड़ो चाहे कुछ करो किन्तु वह विचलित न हो सकेगा। इसी का नाम दृढ़ एकाग्रता है। इसी से मन वश में आ सकता है। मन अभ्यास का दास है। जैसे-2 आपका अभ्यास बढ़ेगा वैसे-वैसे एकाग्रता की वृद्धि होगी। चौथा साधन है- अंतर्दृष्टि। तुम समाज की रूढ़ि तथा बिरादरी के गुलाम न बनो। धर्म की रूढ़ि, धर्माचार्यों की लकीरों से पस्त हिम्मत न हो जाओ वरन् अपनी मौलिकता की वृद्धि करो। न कोई मुल्ला न कोई पण्डित, न राज्य का फैलाया हुआ कुसंस्कार का जाल, तुम्हें दैवी उच्च भूमिका से कोई नहीं हट सकता। यदि तुम मन की उच्च भूमिका में निवास करते रहोगे, तो तुम में यथार्थ बल प्रकट होगा।
विश्व में सबसे अधिक महान कार्य मन के शक्तियों को बढ़ाना है। तुम्हारा अभ्यन्तर प्रदेश अनन्त और अपार है। अभ्यास तथा मनन द्वारा तुम अपनी नैसर्गिक शक्ति को प्राप्त कर सकते हो।
स्मरण रहे, तुम्हें अपना विकास करना है। अल्पक्ष निःसत्व नहीं बने रहना है। तुम्हें उचित है कि निज सामर्थ्यों में विश्वास एवं श्रद्धा रखना सीखो। सदा सर्वदा आन्तरिक मन की भावनाओं के प्रति लक्ष दिये रहो। यह मत सोचो कि हमें तो इतना ही विकसित होना है, वरन् यह सोचो कि अब अभिवृद्धि का वास्तविक समय आया है।
अपनी विशालता, अतुल सामर्थ्य करो। मानसिक दासता से छुटकारा पाओ और संसार में विजयी योद्धा की तरह जीवन जिओ।