Magazine - Year 1945 - Version 2
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Language: HINDI
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आध्यात्मिक शान्ति के कुछ अनुभव
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(प्रो. श्री रामचरण महेन्द्र, मनः शास्त्र विशेषज्ञ)
आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होते हुए मुझे जो प्रत्यक्ष अनुभव हुए हैं उन्हीं के स्पष्टीकरण के हेतु यह विवेचन लिख रहा हूँ। आशा है कि उन्नति के पथ पर चलने वाले अन्य पथिकों को भी इससे कुछ लाभ होगा। मेरा स्वयं तो यह विश्वास है कि इन सूत्रों से प्रायः प्रत्येक व्यक्ति को ही थोड़ा बहुत लाभ अवश्यमेव होगा।
आप संसार के काँटे नहीं बिन सकते- कुछ वर्ष पूर्व में एक बोर्डिंग हाऊस का सुपरिटेंडेंट था। विद्यार्थियों का उचित निरीक्षण करना, उन्हें सन्मार्ग पर चलाना, प्रातःकाल शीघ्र उठने की आदत डालना, सिनेमा, सिगरेट, बकवास समय की बरबादी रुपयों की होली फूँकना इत्यादि अनेक बातों से उनकी भरसक रक्षा करता। एक पिता की हैसियत से विद्यार्थी समुदाय को प्रत्येक अनुचित कार्य से रोकता। मैंने कुछ मास पश्चात देखा कि यद्यपि 75 प्रतिशत लड़कों में उन्नति की महत्वकांक्षाएं प्रदीप्त हुई, कुछ ऐसे रह ही गए जो अनेक दुष्कर्मों में विरत रहे। इन कुमार्ग पर चलने वालों को ठीक पथ पर लाने के लिए मुझे अनेक यत्न करने पड़े। अन्ततः एक दो ही व्यक्ति ऐसे रहे जिन्हें कुमार्ग से न हटा सका।
प्रत्येक कुपथगामी को देखकर मेरे मन में पीड़ा होती। व्यग्रता और कभी कभी क्रोध भी आता। मैं स्वयं अपना सुधार कुछ भी न कर सकता उलटा अशान्ति का दावानल अन्तःकरण में जलने लगा। आज मैंने सीखा है कि मनुष्य वास्तव में किसी दूसरे का सुधार नहीं कर सकता। न दूसरों की उन्नति का उत्तरदायित्व ही अपने ऊपर ले सकता है। उसे दूसरों का सुधार करने की धुन में न पड़कर स्वयं अपना सुधार करना चाहिए। वास्तव में दुःख देने वाला कारण दूसरों के दुःखों, कष्टों, न्यूनताओं, कमजोरियों, छिद्रों को देखना ही है संसार में हजारों पुरुष ऐसे दुष्कर्मी हैं कि हम उनका सुधार नहीं कर सकते। उनकी कमजोरियों को हटाने के चक्कर में कहीं हम अपना पतन न कर लें यह हमें स्मरण रखना चाहिए।
दूसरों पर दोषारोपण करके अपने को हम अंधेरे में ही रहने देते हैं। अपनी निर्बलताओं पर चादर ढ़क लेते हैं। अमुक व्यसन दूर हो जाय, अमुक व्यक्ति का अमुक दुर्गुण जाता रहे, फलाँ बुरी आदत छूट जाय, तम्बाकू बीड़ी शराब छूट जाय, ऐसी बातों को मन में बार-बार आने देने से अशान्ति उत्पन्न होती है।
कोई भी क्षुद्र औरा निकृष्ट विचार मन के आरुढ़ हो जाने पर पतन होता है। इसी प्रकार मैंने स्वयं अनुभव किया है कि जो मनुष्य अपना संकल्प बार-बार बदलता है वह वास्तव में कुछ नहीं कर पाता। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि दूसरों की सम्मति से अपना निश्चय नहीं बदलना चाहिए।
अपने से नीचे वालों को देखिए- हमसे ऊँची जगहों, पदों, स्थानों पर संसार में अनेक व्यक्ति हैं। प्रत्येक व्यक्ति यदि यही चाहने लगें कि हम सम्राट बनें, बड़े धनी, अमीर, उच्च पदाधिकारी बनें, हमें ढेर से रुपये मिलें, मोटर, आलीशान कोठी, सुन्दर आभूषण, सुन्दर प्रियतमा मिले- तो यह कहाँ संभव है।
प्रत्येक व्यक्ति उच्चाधिकारी नहीं बन सकता, प्रत्येक व्यक्ति आलीशान कोटी मोटर कार नौकर नहीं रख सकता, प्रत्येक सुँदर वस्त्राभूषण से अपना शरीर अलंकृत नहीं कर सकता, प्रत्येक सुन्दर प्रियतमा नहीं पा सकता। आप जितना ही इन चीजों को पाने की कामना करेंगे, उतने ही अशान्त दुःखी रहेंगे।
आप कितने भाग्यशाली हैं- अपने से नीचे वालों को देखिए। उन्हें भर पेट भोजन भी नहीं मिलता, और आप कितने भाग्यशाली हैं कि दो समय इज्जत से भरपेट भोजन कर लेते हैं। कितने ही सड़कों पर पड़े ठिठुरते हुए रात्रि व्यतीत करते हैं नंगे-उघाड़े क्लाँत पड़े रहते हैं। और आप घर पर मजे में रात्रि व्यतीत करते हैं। आप कितने भाग्यशाली है।
शफाखाने में जाकर देखिए। कितने रोगों के मरीजों का ताँता बँधा है। कोई खौं-खौं करके खाँस रहा है तो कोई हाय-हाय करके कराह रहा है। किसी के नेत्रों में भयंकर रोग है तो कोई मूत्र रोग से विह्वल है। किसी का ऑपरेशन किया जा रहा है और रक्त, पीव की धार बह रही है। आपके पास स्वस्थ शरीर है हाथ पाँव चलते हैं, खाना उचित समय पर पच जाता है, कब्ज बवासीर, खाँसी आपको नहीं है, आपका चेहरा मधुर मुस्कान से हरा-भरा है। सचमुच, आप कितने भाग्यशाली हैं।
जो कुछ आपके पास है वह आवश्यकता से अधिक है। जो नहीं है उसके बिना भी आपका कार्य भली-भाँति निर्विघ्न चल सकता है। जब हम अपने से अधिक दुःखी संतप्त दुनिया को देखते हैं तो सचमुच हमें प्रतीत होता है कि वास्तव में हम भी बड़े भाग्यशाली हैं।
दूसरों से कुछ प्राप्ति की आशा मत रखिए-
अशाँति का मुख्य कारण यह है कि नित्यप्रति के व्यवहार में हम दूसरों से बहुत अधिक सहानुभूति प्रेम प्राप्ति की उम्मीद रखते हैं। अमुक से हमने अमुक अवसर पर भलाई की थी, अब इस अवसर पर वह हमारी तरफदारी करेगा, लाभ पहुँचायेगा, कुछ अर्थ प्राप्ति करा देगा, हमारा विशेष ख्याल रक्खा करेगा। ये सब ऐसी थोथी आशाएँ हैं जो इस कठोर संसार में बहुत कम पूर्ण होती हैं। आप जिनसे उम्मीद बाँधे रहते हैं वे ही आपका पेट काटते हैं। तकलीफें देते हैं, कन्नी काट लेते है, सहायता नहीं करते।
अतः आप दूसरों से कुछ भी प्राप्ति की उम्मीद न रखिए। आपकी कोई सहायता नहीं करेगा, आप स्वयं ही अपने लिए जो चाहे कर सकते हैं। यदि दूसरे आपके लिए कुछ कर दें- तो यह उनकी उदारता है। यदि उनसे प्राप्ति की आशा न रखकर आप उनकी सहानुभूति पायेंगे, तो वह आपको बहुत भारी मालूम होगी। आप तो यह मानिये कि हम स्वयं ही अपने लिए हैं, दूसरा कोई साथी नहीं है, दुनिया का लम्बा रास्ता हमें स्वयं ही तय करना है।
आपका सबसे बड़ा सहायक- आपको अपना लाभ स्वयं संभालना होगा। दुर्बलताओं को अपने हृदय से स्वयं बाहर फेंकना होगा। अपनी शक्तियों में श्रद्धा जागृत करनी होगी। जब आप दोषदर्शी स्वभाव से मुख मोड़ कर स्वयं अपनी दुर्बलताओं को दूर करने का प्रयत्न करेंगे, तभी भीतर से परिवर्तन प्रारम्भ होगा।
मनुष्य को अपनी दुर्बलताओं को दूर करने के लिए प्रतिदिन उद्योग करना चाहिए। निरन्तर प्रयत्न, उद्योग, संतत अध्यवसाय से यह दूर हो सकेंगी।
बड़े सावधान रहें- जिस व्यक्ति को धन, संपदा, मान, बड़ाई और ऊंचे पदों की अतृप्त आकाँक्षा नहीं विचलित करती किन्तु जो सब कुछ उसके पास है उसी में वह संतुष्ट प्रसन्न रहता है और उसके छिन जाने पर भी शोक नहीं करता- वही वास्तव में सच्चा कर्म-मार्गी है। परन्तु जिसे लगातार “और मिले” और मान बड़ाई प्राप्त हो- ऐसी अतृप्ति लगी रहती है, जिसे जो कुछ उसके पास है, उस पर संतोष नहीं है और जो दूसरे को हड़प जाने के लिए हाथों को खून से रंजित करता है- वही यथार्थ में मूर्ख और अज्ञानी है।
जिस साधक ने अपने स्वार्थ को तिलाँजलि देकर मन को शुद्ध कर लिया है और यह समझता है कि मेरा कोई शत्रु नहीं है, जो ध्यानावस्थित हो, अपने भीतर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देखता है, वही ज्ञानी है।
जीवन में आगे बढ़ना चाहते हो तो दूसरों पर मत निर्भर रहो, स्वयं अपनी विशेषता प्रदर्शित करो। तुम्हें अपना बोझ स्वयं ही ग्रहण करना पड़ेगा। दूसरा कोई भी व्यक्ति इस कर्म क्षेत्र में तुम्हारा साझीदार नहीं बनेगा।