Magazine - Year 1946 - Version 2
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मन की शक्ति बढ़ाने के उपाय
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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)
मन की शक्ति एकाग्रता एवं मनन से विकसित होती है। इधर-उधर चंचलतापूर्वक भ्रमण करने से, चिन्ताओं एवं भ्रान्तियों के वशीभूत होने से, मनः प्रवृत्ति अनेक दुर्दमनीय कष्टों का, अनेक पराजयों का कारण बनती है। यदि एक निर्दिष्ट कार्य में मन एकाग्र न किया जाय तो समस्त प्रयत्न निष्फल होते हैं। निर्दिष्ट समय पर अन्य समस्त विचारों को मनः प्रदेश से बर्हिगत कर एक तत्व पर अन्तनेत्र एकाग्र करने से मन की शक्ति प्रकट होती है।
एकाग्र ध्यान के दो मुख्य प्रकार हैं—अक्रिय तथा सक्रिय। अक्रिय ध्यान में इन्द्रियों को शान्त कर मनोवृत्ति को ग्राहक किया जाता है। समस्त वृत्तियों को पूर्ण शान्त रखना होता है। “मैं पृथ्वी पर परमात्मा-तत्त्व का महत्तम, सर्वोच्च एवं सर्वोत्कृष्ट रूप हूँ। —”केवल इसी भाव पर चित्त वृत्तियों का एकाग्र रखना होता है। ध्यान का दूसरा भेद है-सक्रिय ध्यान। सक्रिय ध्यान में मन को क्रियात्मक ग्रहणोचित वृत्ति में रक्खा जाता है। एकाग्रता से शब्द सुनना होता है। एक ही साथ भावनाओं को ग्रहण करना एवं बाहर भेजना होता है। इस प्रकार मन की द्विधा क्रिया होती है। जो कुछ कहा जाता है, उसे सुनने एवं उसी समय निर्णय करके मूक मानसिक उत्तर देते हैं।
हमें क्या इष्ट है?
तुम अपना अक्रिय ध्यान उस व्यक्ति की ओर मत करो जो तुमसे अनुग्रह अथवा लाभ उठाना चाहता है। यद्यपि तुम्हें दूसरे की भावनाएं ग्रहण करना चाहिए, तथापि तुम्हें अपने मन की ऐसी विहित वृत्ति रखनी चाहिये, जिससे तुम पर किसी अवाँछनीय प्रभाव का आक्रमण न हो सके। तुम्हें द्वारपाल के समान स्थिर रहना चाहिये तथा किसी अनुचित तथा अनर्थकारी सूचना (Suggestion) का संचार मन के भीतर न होने देना चाहिये, बाहर भेजा हुआ प्रत्येक विचार तुम्हारी इच्छा के वश में होना चाहिये। जब तक सद्भाषण का स्वभाव स्थिर रूप से न बन जाय तब तक प्रत्येक शब्द को सावधानी से बोलते रहो तथा प्रत्येक कार्य सूक्ष्म अन्तरात्मा की अनुमति से करते रहो। प्रत्येक कार्य में अपनी सच्ची संकल्प शक्ति का संचार करते रहो।
दार्शनिक कैन्ट ने एक स्थान पर निर्देश किया है कि नीति मय जीवन का प्रारम्भ होने के लिये विचार क्रम में परिवर्तन तथा आचार का ग्रहण आवश्यक है। भारतीय परिभाषा के अनुसार—
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा।
सम्यक् ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्॥
-उपनिषद्
अर्थात् सत्य, तप तथा सात्विक ज्ञान और नित्य निर्विकार रहने से ही आत्मतत्व का दर्शन हो सकता है। ये सभी बातें मनः साधना की ओर संकेत करती हैं। जीवन में दर्शन का फल है, मनः सभ्यता का उदय। साधना की भावना से सात्व की श्रद्धा का जन्म होता है। जित्तस्य विषय को अपने अध्यवसाय की क्षमता के अनुभव का विषय बना सकना ही श्रद्धा का लक्षण है। भारतीय विचारकों ने अपने वांग्मय के उषाकाल से ही इस महत्वपूर्ण तत्व को समझकर उसका प्रचार किया है। ज्ञानसिद्धि, ऋषि महर्षियों का जो साक्षात्कार था, उसको उन्होंने ‘श्रुति” कहा है। श्रुति का जन्म प्रज्ञा से होता है। प्रज्ञा (ढ्ढठ्ठह्लह्वद्बह्लद्बशठ्ठ) ज्ञान प्राप्ति का सबसे सूक्ष्म साधन है। योग समाधि के द्वारा चित्त को संस्कृत करने का फल हमारे ज्ञान-यन्त्र के लिये पतंजलि ने यों बतलाया है—”ऋतम्भरा तत्र युला” अर्थात् आध्यात्मिक दर्शन की उच्चतम अवस्था में ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय होता है। ऋत जिसमें भरता हो, ऐसी बुद्धि ऋतम्भरा है। मन के तर्क-वितर्क द्वारा संचय होने वाला ज्ञान सत्य है। हृदय की अनुभूति या तत्व साक्षात्कार से उपलब्ध अनुभव “ऋत” है। योगी की प्रज्ञा ऋणात्मक ज्ञान का भरण करती है।
बुद्धि का यथार्थ स्वरूप,
बुद्धि, यथार्थ में प्रतिभा का एक संस्कारित स्वरूप है। भावुकता अर्थात् कल्पनात्मक सहानुभूति, बुद्धि का एक गुण है। नाना प्रकार के विचार कल्पनाएँ मानस चित्र निर्माण करना, सोचना, तर्क करना बुद्धि के व्यापार हैं। कुशाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति अधिक स्पष्ट मानव-चित्र विनिर्मित करता है। कल्पना करना, ज्ञान के आधार पर उन मानस-चित्रों को अधिकाधिक स्पष्ट करना, उनमें भावुकता (स्नद्गद्गद्यद्बठ्ठद्द) का संचार करना यह बुद्धिमानी की आन्तरिक अवस्था है। जब तक उक्त तत्वों में पूर्ण सामंजस्य नहीं, तब तक बुद्धि में परिपक्वता का संचार नहीं हो सकता। तर्क से कल्पना का अनौचित्य प्रक्षालित होता है और बुद्धि का विशुद्ध व्यवहारिक रूप प्रकट होता है। बुद्धिमान की विविध योजनाएँ व्यवहारिकता के आधार पर विनिर्मित होती हैं। मनुष्य के मन का विकास, अधिकता उसकी बुद्धि के विकास पर ही निर्भर है। बुद्धि की शक्ति मस्तिष्क के सूक्ष्म कोषों (ष्टद्गद्यद्य) में निवास करती है। जिज्ञासा एवं स्मरण शक्ति बुद्धि के विशिष्ट अंग-प्रत्यंग हैं। मनन से मन की शक्ति बढ़ती है। निर्दिष्ट समय पर दूसरे सब विचारों को छोड़कर एक “आत्म तत्व” पर मन को एकाग्र करना चाहिये।
चित्त की शाखा-प्रशाखाएँ—
चित्त का प्रधान कार्य जानना या अनुभव करना है। चित्त को योगदर्शन एवं साँख्य सूत्रों में प्रकृति के सतोगुण का परिणाम माना गया है। चित्त वृत्तियों का भंडार है। चित्त की वृत्तियों को वश में करना, रोकना, विरोध करना ही शान्ति का मूल है-योगश्चित वृत्तविरोध।
चित्त की वृत्तियों के दो भेद हैं—अन्तःवृत्तिः, वहिवृत्ति। कुछ व्यक्तियों की वृत्ति बाह्य संसार की उलझनों से ऊबकर अन्तःकरण के विवेक की ओर लग जाती है। इसमें व्यक्ति अन्त जगत के गूढ़ रहस्यों में पूर्ण निमग्न रहता है। वह आत्मा के अन्तराल में विचरण करता है। प्रकृत पुरुष का वास्तविक ज्ञान ही उसका प्रधान लक्ष्य होता है और इस तत्वज्ञान की प्राप्ति से समस्त क्लेश दूर हो जाते हैं।
द्वितीय वृत्ति है वहिवृत्ति अर्थात् केवल सांसारिक वस्तुओं को देखना सुनना, उनमें लिप्त रहना रजोगुण एवं तमोगुण के कारण विषयों की ओर वृत्ति झुकी रहती है, जैसे काम, क्रोध, लोभ आलस्य इत्यादि में प्रवृत्ति। अधिकाँश अस्थिर व्यक्तियों की वृत्ति वहिवृत्ति ही होती है। विषयों में लिप्त रहने के कारण उन्हें नाना प्रकार के क्लेशों को भोगना पड़ता है। भोग की साँसारिक वृत्तियों को क्लिष्ट कहते हैं।
पातंजलि के अनुसार चित्त वृत्तियाँ—
वृत्तियाँ अगणित भी हो सकती हैं। महर्षि पातंजलि के अनुसार वृत्तियों का स्वरूप देखिये। महर्षि पातंजलि के अनुसार वृत्तियों का स्वरूप देखिये। महर्षि पातंजलि कहते हैं—”प्रमाण विपर्यय विकल्प निद्रा स्मृतयः” (1, 6)। लौकिक ज्ञान का जो सम्बन्ध है, वह प्रमाण कहलाता है। इसके तीन भेद हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम। प्रत्यक्ष वह ज्ञान है जो नेत्रों इत्यादि इन्द्रियों से प्राप्य है। अनुमान उसे कहते हैं जिसे हम कुछ चिह्न देखकर अनुमान कर लेते हैं। ‘अगाम’ शास्त्रोक्त वचन अर्थात् सच्चे तत्व ज्ञानी आप्त मनुष्यों के शब्दों द्वारा प्राप्त होता है। अन्य चार वृत्तियाँ ये हैं—
विपर्यय—जिससे मिथ्या ज्ञान हो। ‘विपर्यया मिथ्या ज्ञानमनद्रप प्रतिष्ठाम अर्थात् वह ज्ञान जो सच्चे रूप में स्थित नहीं है।
विकल्प—जो वस्तु शून्य अर्थात् वास्तव में कुछ हो ही नहीं, किन्तु केवल शब्द मात्र से जानी जाय। वेदान्ती समग्र संसार की वस्तुओं को विकल्प ही मानते हैं।
निद्रा—किसी पदार्थ के न होने का प्रत्पय अर्थात् ज्ञान जिस वृत्ति का आलम्बन है उसे निद्रा कहते हैं। जब स्वप्न आते हो तो वह निद्रा नहीं है।
स्मृति—अन्तिम वृत्ति स्मृति है। यह अनेक दुःखों का कारण बन जाती है। अतएव, इसका विरोध होना आवश्यक है (अनुभूताविषयाऽसम्प्रमोषः स्मृति)। स्मृति अनुभव से न्यून का तो ज्ञान कराती है, किन्तु अधिक का नहीं।
उक्त वृत्तियाँ यदि सात्विक हों तो सुख उत्पन्न करेगा और सुख से राग उत्पन्न होगा। अर्थात् मन सुख के वशीभूत होगा तो मुक्ति में बाधा पड़ जायगी इन वृत्तियों का विरोध ही मुक्ति की इच्छा करने वाले को परमावश्यक है।