Magazine - Year 1947 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्म नियंत्रण के लिए व्रत
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किसी सत कार्य को पूरा करने का संकल्प व्रत कहलाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह आदि महाव्रत कहलाते हैं। धर्मचर्या प्रतिज्ञा लेना उसे निबाहना व्रत है। अनेक दिशाओं में बिखरी हुई इच्छाओं को एकत्रित करके एक कार्य में लगाने के लिए तथा उस कार्य में जागरुक रहने के लिए व्रत लिए जाते हैं। व्रत का एक संकल्प है जिसे लेकर मनुष्य अपने ऊपर एक स्वेच्छा उत्तरदायित्व लेता है। यह उत्तरदायित्व व्रत की प्रतिज्ञा के आधार पर पालन होता रहता है।
मन की मूल प्रवृत्तियाँ बड़ी स्वच्छंद हैं वे बार -बार इधर उधर भागती हैं। नित नये परिवर्तन, चंचलता तथा, अस्थिरता में मन को बड़ा रस आता है। भौंरा एक फूल से दूसरे पर उड़ता फिरता है, मन जंगली घोड़े की तरह जहाँ तहाँ उछल-कूद मचाना अधिक पसन्द करता है। किसी एक बात पर डटा रहना उसे रुचिकर नहीं होता। यदि स्वभाव को ज्यों का त्यों रहने दिया जाय तो किसी एक विचार पर स्थिर रहना या एक कार्य में जुटा रहना कठिन है। कितने ही मनुष्य जिन्होंने अपनी प्रवृत्तियों का नियंत्रण नहीं किया है अपने विचार और कार्य जल्दी-जल्दी बदलते रहते हैं, फलस्वरूप उनका जीवन क्रम सदा अस्त−व्यस्त रहता है। किसी भी दिशा में उन्हें सफलता नहीं मिलती।
आत्मोन्नति के लिए जीवन क्रम को, विचारधारा को, कार्य प्रणाली को पूर्ण तथा नियंत्रण ऐसा होना चाहिए कि कठिनाइयाँ आने पर भी निश्चित पथ से विचलित होने का अवसर न आवे। इस आत्म नियंत्रण की महत्वपूर्ण सफलता को प्राप्त करने के लिए संकल्प को, प्रतिज्ञा का, व्रत को, लेना पड़ता है। जिव्हा के चटोरेपन पर उपवास द्वारा वाचालता पर मौन द्वारा काम वासना पर ब्रह्मचर्य द्वारा नियन्त्रण स्थापित किया जाता है। “अमुक काम न करूंगा” या “इस मर्यादा के अन्दर करूंगा” इस प्रकार की कठोर प्रतिज्ञा करने से एक निश्चित संकल्प की स्थिरता होती है। यदि धार्मिक भावनाओं के साथ, ईश्वर की साक्षी में यह प्रतिज्ञा की जाती है तो उसे व्रत कहा जाता है। साधारण प्रतिज्ञाओं की अपेक्षा व्रत की शक्ति बहुत प्रबल होती है क्योंकि उसका अन्तःकरण के गहरे स्तल तक प्रभाव पड़ता है। साधारण प्रतिज्ञाएं तो टूटती भी रहती हैं पर व्रतों में ईश्वर की कृपा से आम तौर से सफलता ही मिलती है। उनके टूटने के अवसर बहुत ही कम आते हैं।
व्रतों के साथ एक प्रकार की तपश्चर्या सम्बन्धित है। उनके द्वारा तितीक्षा का कष्ट सहने का अभ्यास बढ़ता है। नियत गतिविधि से कोई धार्मिक कृत्य, व्रतों के आधार पर बड़ी आसानी से चलते रहते हैं। एक व्रत के सफलतापूर्वक पूरा हो जाने पर साधक का साहस बढ़ जाता है। और अगले व्रतों के लिए वह अधिक दृढ़ हो जाता है। इसलिए आरम्भ छोटे व्रतों से किया जाता है। स्त्रियों में इस प्रकार के छोटे-छोटे व्रतों का बहुत प्रचलन है। वे संक्रान्ति से कोई धार्मिक अनुष्ठान आरम्भ करती हैं। एक वर्ष पूरा हो जाने पर उस कर्मकाण्ड का सफलतापूर्वक पूर्ण हो जाने के उपलक्ष्य में कुछ दान पुण्य करती हैं।
मार्गशीर्ष का, माघ का प्रातःकालीन शीतल जल का स्नान शीत की तितीक्षा का व्रत है। भूमि पर शयन, मौन, उपवास, भोजन में से कुछ वस्तुओं का त्याग, प्रातःकालीन शीघ्र जागरण नियत पूजन वन्दन क्रिया क्षेत्र की परिक्रमा, आहार-विहार दिनचर्या एवं किसी पद्धति में किन्हीं विशेष बातों का सम्मिलित करना या त्याग करना, सर्दी-गर्मी, भूख प्यास को सहना, एक प्रकार के तप हैं। इन्हें नियत समय पर धार्मिक भावनाओं के साथ आरम्भ और पूर्ण करना व्रत कहलाता है।
व्रतों के अपनाने से आत्म बल बढ़ता है। इसलिए आत्म मार्ग के पथिकों को समय-समय पर शारीरिक, मन, वाणी, व्यवहार और वस्तुओं सम्बन्धी व्रतों का पालन करते रहना चाहिए। कुछ समय तक के लिए जूता पहनना छोड़ देना, भूमि पर सोना, उपवास रखना, रात्रि जागरण, पैदल तीर्थ यात्रा, नमक छोड़ देना, सूर्य दर्शन के साथ भोजन करना, कम वस्त्रों का धारण, शीत ऋतु में प्रातः स्नान जैसे उपायों का अवलम्बन करते रहने से शरीर कष्ट सहिष्णु बनता है मौन, पूजन, आराधना, एकान्त सेवन, दान, परोपकार सत्संग, स्वाध्याय, म्यान जैसे कार्यों से मानसिक क्षमता एकाग्रता बढ़ती है। केवल सत्य ही बोलना, हिंसा न करना, धन का अधिक संचय न करना, काम सेवन अयुक्त मर्यादा से अधिक न करना। अन्योपार्जित धन से, कटुभाषण से बचना, आदि आत्मिक बातों से आत्म शक्ति बलवती होती है।
आत्म शुद्धि के लिए चांद्रायण या अर्ध चांद्रायण जैसे व्रत बहुत उपयोगी हैं। उनसे अनेक रोगों की अपने आप चिकित्सा भी हो जाती है। चांद्रायण व्रत एक महीने के लिए होता है। जिस आदमी का आहार एक सेर का हो वह पूर्णमासी के दिन पूर्ण आहार करके प्रतिदिन एक छटाँक घटाता जाय और अमावस्या को बिल्कुल निराहार रहे। फिर शुक्र पक्ष की प्रतिपदा से एक छटाँक आरम्भ करके प्रतिदिन एक छटाँक बढ़ाता जाय और पन्द्रह दिन में (अगली पूर्णमासी को) पूरे आहार पर पहुँच जावे। अर्ध चांद्रायण इसका आधा होता हो। पन्द्रह दिन में से सात दिन क्रमशः कम करे आठवें दिन निराहार रहे फिर उसी क्रम से बढ़ाकर अगले सात दिन में पूर्ण आहार पर पहुँच जावे। नये साधकों को अर्ध चांद्रायण ही सुगम पड़ता है।
व्रतों से साधक की आत्म शक्ति बढ़ती है और उसे बाह्य एवं आन्तरिक अनेक लाभों की उपलब्धि होती है।