Magazine - Year 1947 - Version 2
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Language: HINDI
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सबसे पहले आध्यात्मवाद की शिक्षा प्राप्त कीजिए
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संसार में अनेक प्रकार के ज्ञान और विज्ञान मौजूद हैं। लोग अपनी रुचि के अनुसार उन सबको सीखते हैं और लाभ उठाते हैं। पर इन सब विज्ञानों से ऊंचा एक महा विज्ञान है, जिसके बिना अन्य सब विज्ञान, अधूरे एवं अनुपयोगी हैं। खेद है कि उस महा विज्ञान के महानतम लाभ और महत्व की ओर हम ध्यान नहीं देते। अध्यात्मवाद जीवन का वह तत्वज्ञान है जिसके ऊपर आन्तरिक और बाहरी उन्नति, समृद्धि एवं सुख शान्ति निर्भर है।
साहित्य, कला, शिल्प, रसायन, विज्ञान आदि का ज्ञान मनुष्य की पदवी और समृद्धि को बल देता है। पर अध्यात्म ज्ञान के बिना सहयोग, प्रेम, आत्मीयता, सन्तोष, आनन्द एवं उल्लास की उपलब्धि नहीं हो सकती। अनेकों धन कुबेर और उच्च पदासीन व्यक्ति अपने जीवन को नरक की ज्वाला जैसी अशान्ति की अग्नि में दिन रात जलता हुआ अनुभव करते हैं। इसके विपरीत अनेकों साधारण स्थिति के व्यक्ति अपने को स्वर्गीय सन्तोष की शान्ति से परितृप्त अनुभव करते हैं।
आध्यात्मवाद वह महा विज्ञान है जिसकी जानकारी के बिना भूतल के समस्त वैभव निरर्थक हैं और जिसके थोड़ा सा भी प्राप्त होने पर जीवन आनन्द से ओत प्रोत हो जाता है। संसार में सीखने योग्य, जानने योग्य अनेकों वस्तुएं हैं पर अखण्ड ज्योति के पाठको! स्मरण रखो सबसे पहले जिसे सीखने और हृदयंगम करने की आवश्यकता है वह—वैज्ञानिक आध्यात्मवाद ही है।
जीवन का सर्वोपरि लाभ
संसार में अनेक प्रकार के लाभ हैं। धन, मान, प्रतिष्ठा, स्त्री, पुत्र, स्वास्थ्य, सहयोग, विद्या, मनोरंजन वैभव, सम्पन्नता, साधन, स्थान आदि कई प्रकार के लाभ लोगों को प्राप्त होते हैं। लाभों को प्राप्त करने के लिए लोग जन्म लेते हैं और मृत्यु पर्यन्त लगे रहते हैं। जितने अंशों में लाभ मिल जाते हैं उतने अंशों में उन्हें तृप्ति व संतोष भी मिलता है, उतने अंशों में प्रसन्नता भी मिलती है।
आत्म सन्तोष, तृप्ति एवं प्रसन्नता का अस्तित्व क्षणिक होता है। दूसरे ही क्षण जो प्रतिक्रिया होती है उससे वह प्रसन्नता नष्ट हो जाती है। कारण यह है कि किसी वस्तु के न होने पर उसके प्राप्त होने की आशा में जो सुख है वह प्राप्त हो जाने पर नहीं रहता। बीमार आदमी स्वस्थता के लिए तरसता है, उसे संसार की सर्वोपरि संपदा समझता है पर जो स्वस्थ हैं उन्हें स्वास्थ्य की कुछ महत्ता प्रतीत नहीं होती। निर्धन के लिए धनी होने की आशा स्वर्ग लाभ जैसी सुख प्रद है पर धनी हो जाने पर उसे उस दशा में कोई विशेषता नहीं मालूम पड़ती। इसी प्रकार स्त्री हीन, पुत्रहीन, साधन हीन मनुष्य अपनी अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त करने की आशा से लालायित रहते हैं। पर प्राप्त होते ही उनका रस चला जाता है। क्योंकि वास्तव में उन वस्तुओं के पाने पर भी मनुष्य को सुख नहीं मिलता, अभाव ग्रस्तों की भाँति साधन सम्पन्न भी दुखी ही देखे जाते हैं।
वस्तुएं परिवर्तन शील एवं नाशवान होती हैं। वे बदलती और नष्ट होती रहती हैं। मनुष्य चाहता है कि उसकी वस्तु सदा उसी रूप में रहे पर यह संभव नहीं। इसलिए ,धन, सम्पत्ति या स्त्री पुत्रों के नष्ट होने पर उलटा शोक, विछोह, दुःख क्लेश होता है, दूसरी ओर हर लाभ को अधिक मात्रा में प्राप्त करने की तृष्णा बढ़ती है। इस तृष्णा की पूर्ति के लिए मनुष्य चिन्ता, बेचैनी एवं अत्यधिक श्रम शीलता में लगा रहता है। मन को उस आकर्षण एवं भार से पल भर के लिए छुटकारा नहीं मिलता, फल स्वरूप लाभ के लिए किये गये प्रयत्न प्राणी को अशान्त बनाये रखते हैं। कितने ही व्यक्ति तो पाप पुण्य, उचित अनुचित का विचार करके जैसे भी बने लाभान्वित होने की चेष्टा करते हैं। इस घुड़दौड़ में वे पग−पग पर ठोकर खाते और आहत होते हैं।
इन सब बातों पर गम्भीरता से विचार करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि साँसारिक पदार्थों से, बाह्य परिस्थितियों से जो सुख मिलते हैं, जो लाभ प्रतीत होते हैं वे अवास्तविक एवं क्षणिक हैं। सुखाभास मात्र है। असल में मन की संतुष्टि का दूसरा नाम ही सुख है। एक आदमी धन में सुख मानता है वह धन के लिए स्वास्थ्य एवं शरीर को भी गमा सकता है। दूसरा आदमी विषय सेवन में सुख मानता है और उसके लिए सारी धन संपत्ति को स्वाहा कर देता है। मन जिस ओर झुक जाता है, जिस केन्द्र पर मनोवाँछा एकत्रित हो जाती है, उसी में लाभ प्रतीत होने लगता है।
आज जिधर हमारा मन लगा हुआ है यदि कल उधर से हट कर दूसरी ओर लग जाय तो कल जो पदार्थ काम या साधन सुख दायक प्रतीत होते थे वे ही आज निरर्थक व्यर्थ या हानिकारक प्रतीत होने लगते हैं। इससे प्रकट है कि मन के सन्तोष में ही सुख है। राजा अपने राजमहल में जितना सुखी है, साधु अपनी कुटी में उससे भी ज्यादा सुखी है। ‘माल’ की मस्ती दुनिया में बहुत बड़ी मानी गई है पर ‘ख्याल’ की मस्ती उससे भी बड़ी है। मन का प्रकाश जिस वस्तु पर भी पड़ता है वह चमकने और जगमगाने लगती है, वही लाभ दायक प्रतीत होने लगती है।
हम सुखी होना चाहते हैं, लाभ कमाना चाहते हैं। हमारा सुख स्थायी एवं मजबूत होना चाहिए। यह तभी हो सकता है कि जब हम मन के प्रकाश को स्थायी और मजबूत वस्तुओं पर फेंके और उनकी जगमगाहट का आनन्द लूटें। आत्मिक तत्व शाश्वत एवं स्थायी हैं, वे न तो कभी बदलते हैं और न नष्ट होते हैं, हर अवस्था में उनकी एक–सी स्थिति रहती है। आत्मा का जो स्वभाव है वही स्वभाव मन का बना देने से दोनों का समन्वय हो जाता है। जैसे सच्चे हृदय से स्त्री और पुरुष अनन्य प्रेम के साथ एक हो जाते हैं तो दांपत्ति जीवन के आनन्द की सीमा नहीं रहती। इसी प्रकार आत्मा और मन का स्वभाव एक हो जाने पर हमारे अन्तः प्रदेश में जो अपार शाँति उद्भूत होती है उसके सुख की संसार के किसी भी लाभ से तुलना नहीं की जा सकती है।
“योग विद्या” मन और आत्मा के स्वभाव का एकीकरण करने की विद्या है। दोनों का स्वभाव एक हो जाने से मन, वचन और काया से एक ही प्रकार के परम सात्विक कार्य होने लगते हैं। उन दोनों के परस्पर विरोधी होने के कारण जो संघर्ष चलते थे, उन सबकी समाप्ति हो जाती है, अन्तर्द्वन्द्व, भीतर संघर्ष, पर स्वर विरोधी विचार, नष्ट हो जाने से मनुष्य अपने अन्तस्तल में बहुत हलका, शान्त, स्वस्थ, संतुष्ट एवं प्रसन्न अनुभव करता है। इस स्थिति को प्राप्त करने के पश्चात ही साँसारिक सम्पदाओं के भोग का आनन्द आता है। मन पर काबू हो, इन्द्रियाँ संयम में हों, दृष्टिकोण निर्भ्रान्त हो तो ही मनुष्य प्राप्त वस्तुओं से सुख लाभ कर सकता है अन्यथा वे लाभ उलटे गले की फाँसी बन जाते हैं। चटोरा मनुष्य मिष्टान्न के लिए बुरी तरह लालायित फिरता रहता है और जब उसे मिठाई मिल जाती है तो इतना अधिक खा मरता है कि लेने के देने पड़ जाते हैं। इसी प्रकार अन्य वैभवों तथा लाभों से सुख भोगने की अपेक्षा मनुष्य चिन्ता, तृष्णा, मोह, लालसा, लिप्सा, मद, अहंकार, दंभ, पाप, अनाचार, अतिभोग, कृपणता आदि के चक्कर में फँस जाता है और सुख के स्थान पर दुख भोगने लगता है। पर जिसे आत्म स्थिति प्राप्त है, जो योग परायण है, वह संयम पूर्वक वस्तुओं का उपभोग करता है, उनके द्वारा प्राप्त होने वाले लाभों को उठाता है और हानियों से बच जाता है।
आन्तरिक आनन्द की निर्मल निर्भारिणी में स्नान करने के लिए दुख रहित सुख प्राप्त करने के लिए, योग ही एक मात्र आधार है। इसको अपना लेने पर मन, वचन, कर्म से हम, आध्यात्म की दिशा में चलते हैं। फलस्वरूप आनन्द प्रेम एवं सद्भाव प्राप्त होता है जिससे हमें पग पग पर प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता के अनुभव होते रहते हैं। इस जन्म के समाप्त होने पर भी पुण्य कर्म की प्रचुरता के कारण सद्गति प्राप्ति होती है और प्राणी स्थिति के अनुसार अच्छे घर में जन्म एवं मुक्ति प्राप्त करता है।
योग साधन से मन का संयम सत्कर्म स्वरूप, शक्तियों का प्रचुर अपव्यय बच जाता है, क्रिया शक्ति बढ़ती है, जिससे अधिक तेजी के साथ मनुष्य उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकता है। यह विचार गलत है कि “अध्यात्म मार्ग पर चलने वाला साँसारिक वैभवों को प्राप्त नहीं कर सकता।” सच बात यह है कि आत्मवादी व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में बलवान शक्ति सम्पन्न और श्रीमान बन सकता है। आज भिखमंगे और अनधिकारी व्यक्तियों के योग मार्ग में अन्धाधुन्ध धंस पड़ने के कारण उसकी अप्रतिष्ठा अवश्य हो गई है पर वस्तु स्थिति में कुछ भी अन्तर नहीं आया है। अध्यात्म विद्या एक महाविज्ञान है। उसे जितना ही हम कसौटी पर कसते हैं उतना ही वह हर दृष्टि से जीवन के लिए परम उपयोगी विज्ञान सिद्ध होता है।
योग, भारतीय मनोविज्ञान है। मन को हानिकारक अनुपयोगी, निरर्थक मार्ग में भटकने से रोक कर इस प्रकार शिक्षित किया जाता है कि वह उस मार्ग पर चल सके तो हमारे लिए वस्तुतः उपयोगी, लाभदायक एवं मंगलमय है। जैसे सात्विक आहार विहार करने से शरीर का बल, इन्द्रियों की शक्ति, अंग प्रत्यंगों की क्षमता, तेज, सौंदर्य, फुर्ती, सुडौलता, निरोगता आदि की वृद्धि होती है। उसी प्रकार मन का संयम एवं सन्मार्ग में नियोजन करने से आत्मिक स्वास्थ्य बढ़ता है और साथ-2 वे विशेषताएं भी उद्भूत होती हैं जिन्हें ‘अष्ट सिद्धि’ के नाम से पुकारते हैं। आत्म साधना हर मनुष्य के लिए आवश्यक है। वह स्त्री, पुरुष सबके लिए समान रूप से उपयोगी है। संन्यासी और गृहस्थ समान रूप से उसे अपना सकते हैं और लाभ उठा सकते हैं। इस विद्या में जो जितना प्रवेश करता है उसे उसी अनुपात से आत्मलाभ प्राप्त होता है।
इस अंक में योग का परिचय कराया गया है। अध्यात्मवाद की रूप रेखा उपस्थिति करने से पाठक इस तत्व ज्ञान का पर्याय समझ सकेंगे। उसकी आधार भित्ति को समझ सकेंगे अप्रैल के अंक में ऐसी साधना विधियाँ बताई जावेंगी, जिनके आधार पर मन का सुनिर्माण एवं आत्मसाक्षात्कार हो सकता है।
स्मरण रखिए संसार में अनेक लाभ हैं पर जीवन का सर्वोपरि लाभ ‘अध्यात्म’ है। उसका महत्व संसार की महानतम वस्तुओं से ऊँचा है, उसका लाभ सृष्टि के समस्त लाभों से अधिक है। इसलिए उस मार्ग में प्रवेश करने के लिए हम सब को प्रयत्न शील होना चाहिये।