Magazine - Year 1947 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
आप भी समाधि लगा सकते हैं।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
योग साधन में समाधि की अवस्था को परमानंद-मयी माना गया है। चित्त जब जिस स्थान पर रुकने लगता है तो उस किसी भी विषय में आनंद आने लगता है। यदि चित्त वृत्तियों का निरोध होने के पश्चात वे निरुद्ध वृत्तियाँ आत्मा परमात्मा में लगती हैं तब तो और भी अधिक आनन्द का अनुभव होता है। इसे ही परमानंद कहते हैं। योग की सफलता इस समाधि रूपी परमानंद से आँकी जाती है। मोटे तौर से समझा जाता है कि बेहोश हो जाने जैसी दशा को समाधि कहते हैं। यदि ऐसा ही होता तो क्लोरोफार्म सूँघ कर या शराब आदि नशीली चीजों को पीकर आसानी से बेहोश हुआ जा सकता था और समाधि सुख भोगा जा सकता था। पर वास्तविक बात ऐसी नहीं है। शरीर भाव का होश छोड़कर आत्म भाव में जागृत हो जाना ही समाधि है। जैसे दिन में दिन का कामकाज सत्य मालूम पड़ता है और रात को सपने सच्चे लगते हैं। दिन में सपने झूठे हैं और स्वप्न में दिन का जीवन निष्प्रयोजन है। इसी प्रकार साँसारिक आदमियों की दृष्टि में समाधि एक प्रकार की बेहोशी है। समाधि अवस्था में गया हुआ आत्मज्ञानी दुनिया वालों को मोह मदिरा पीकर उन्मत्त विचरता हुआ देखता है। यह दृष्टिकोण की विपरीतता ही ‘बेहोशी’ है। अन्यथा बेहोशी का और कोई कारण नहीं। गीता में इसी तथ्य को इस प्रकार कहा है कि ‘जो साधारण प्राणियों के लिए रात है संयमी के लिए दिन है। उसमें वह जागता है और जिसमें जीव जगा करते हैं उनमें मुनि सोया करता है।” तात्पर्य यह कि आत्मज्ञानी के लिए साधारण लोग बेहोश हैं और साधारण लोगों के लिए आत्मज्ञानी बेहोश है। ध्यान की तन्मयता के कारण शरीराभ्यास का ध्यान न रहना यह दूसरी बात है और बेहोश या मूर्च्छित हो जाना बिल्कुल पृथक बात है।
महर्षि पतंजलि ने अपने लोग दर्शन में चित्त वृत्तियों के निरोध को योग कहा है और बताया है कि यह निरोध बलवान होने से समाधि अवस्था प्राप्त होती है। “तस्यापि निरोधे सर्वनिधन्निर्वीज समाधिः” अर्थात् उसके (चित्त के) निरोध से निर्बीज समाधि होती है। इस चित्त निरोध के लिए प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि उपाय हैं। जिनके द्वारा चित्त को अमुक कल्पनाओं से हटाकर अमुक कल्पनाओं में लगाया जाता है। योगी लोग स्थिर होकर एकान्त में एक आसन से बैठते हैं और आंखें मूँद कर ध्यान लगाते या किन्हीं भावनाओं पर चित्त जमाते हैं। यह कल्पना योग हुआ। उस मार्ग में अनेकों प्रकार की साधनाएं होती हैं।
केवल कल्पना योग की साधनाओं द्वारा समाधि प्राप्त होती हो सो बात नहीं है। क्रिया योग में भी ऐसी साधनाएं मौजूद हैं जिन्हें करते हुए काम काजी मनुष्य भी चित्त को एकाग्र कर सकता है और समाधि का आनंद पा सकता है। योगदर्शन के साधन पाद में महर्षि पातंजलि ने तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को क्रियायोग बताया है। (तपस्स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रिया योगः) और इस क्रिया योग का फल लिखते हुए उन्होंने कहा है कि इस क्रियायोग से क्लेश तथा व्यथाएं दूर होकर समाधि प्राप्त होती है। (समाधि भावनार्थः केश तनूकरणार्थंच) इस प्रकार प्रकट है कि क्रियायोग से भी समाधि की सिद्धि हो सकती है।
सत्कार्य के लिए कष्ट सहन करना तप कहलाता है। आत्मोन्नति के लिए लोक कल्याण के लिए, परमार्थ के लिए जो परिश्रम किया जाता है, कष्ट सहन किया जाता है वह तपश्चर्या का प्रतीक है। शुभ कर्म के मार्ग में कठिनाइयों को न गिनना तपस्या का तत्व है। यह तपश्चर्या मनुष्य को समाधि की ओर ले जाती है।
स्वाध्याय का अर्थ है- स्व+अध्याय, अध्ययन। अपने आपको पढ़ना। आत्म चिन्तन, आत्म निरीक्षण, आत्मशोधन, आत्मनिर्माण यह स्वाध्याय के चार अंग है। इन चारों की पूर्ति के लिए सद्ग्रन्थों का पठन, श्रवण तथा सत्पुरुषों का सत्संग भी उपयोगी है। वैसे तो स्वाध्याय बिना पढ़े मनुष्य भी, बिलकुल अकेले रहकर भी कर सकते हैं। मेरी आत्मा वस्तुतः क्या है? इस जीवन का सच्चा प्रयोजन क्या है? मेरे विचार एवं कार्य में उचित तथा अनुचित का कितना अंश है? किन दोषों को छोड़ना और किन गुणों को बढ़ाना मेरे लिए आवश्यक है? अपनी भीतरी तथा बाहरी दुनिया को सुव्यवस्थित किन उपायों से बनाया जाय? अपने सत् निश्चयों को कार्य रूप में परिणत किस प्रकार किया जाय? इन प्रश्नों पर निष्पक्षता, गंभीरता, दृढ़ता एवं सच्चाई से विचार करना और उन विचारों को चरितार्थ करने के लिए कार्यक्रम बनाना यही स्वाध्याय है। स्वाध्यायी मनुष्य को आत्मा का दर्शन होकर रहता है और वह समाधि सुख का रसास्वादन करता है।
ईश्वर प्रणिधान-ईश्वर परायणता को कहते हैं। विश्वात्मा, समस्त प्राणियों की सम्मिलित आत्मा, परमात्मा का आराधन ग्रह है कि अपने स्वार्थ को परमार्थ में मिला दिया जाय। जिसका स्वार्थ, परमार्थ मय है अथवा जिसे परमार्थ में ही स्वार्थ दीखता है वह सच्चा ईश्वर प्रणिधानी है। प्राणि मात्र चर अचर में प्रभु के दर्शन करना, साकार पूजा है। प्रकृति से परे, अजर, अमर, अविनाशी, निष्पाप आत्मा में स्थित होना, पाँच भूतों की संवेदना से ऊपर उठना निराकार पूजा है। चाहे जिस प्रकार भी कीजिए आत्मा को उन्नत, विकसित, महान बना देना, परम बना देना, परम आत्मा, परमात्मा की प्राप्ति है। वह प्रत्यक्ष समाधि ही तो है। इस प्रकार महर्षि पातंजलि के अनुसार हर व्यक्ति साधारण जीवन व्यतीत करते हुए भी समाधिस्थ हो सकता है।