Magazine - Year 1949 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
विनाश के पथ पर सरपट मत दौड़िए
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री रमेशचन्दजी यादव, सिवनी)
हमारे अतीत और वर्तमान के बीच एक चौड़ी खाई पैदा हो गई है। कभी-कभी तो संदेह होता है कि यह वर्तमान भारत का, प्राचीन भारत से कोई संबंध भी है कि नहीं।
इतिहास साक्षी है कि प्राचीन भारत के निवासी पूर्ण स्वस्थ, सदाचारी, बलवान, निरोग, दीर्घजीवी, पराक्रमी, उदार, दूरदर्शी और तदनुसार धन-धान्य से सम्पन्न थे। उनकी महत्ता को संसार एक स्वर से सिर झुकाकर स्वीकार करता था पर आज तो इससे सर्वथा विपरीत स्थिति दृष्टिगोचर होती है। आज की भारतीय प्रजा दुर्बल, रोग ग्रस्त, अशक्त, कायर, स्वार्थी, अल्पजीवी, संकीर्ण वृत्ति होने के कारण निर्धन, निस्तेज और पतनोन्मुख हो रही है। यह कहते हुए संकोच होता है कि वर्तमान प्रजा उन प्राचीन ऋषियों और महापुरुषों की सन्तान है भी या नहीं जो आत्मिक और भौतिक शक्तियों से सुसम्पन्न होने के कारण इस भारत भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ बनाने में सफल हुए थे।
इस आश्चर्यजनक परिवर्तन का कारण जानने के लिए जब हम गंभीरतापूर्वक विचार करते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि विचार और आचरणों में भारी हेर-फेर हो जाने के कारण ही परिस्थितियाँ इस प्रकार उलट गई हैं। प्राचीन काल में लोगों का ईश्वर पर अटूट विश्वास होता था, धर्म के लिए वे प्राण तक देने को तैयार रहते थे, कर्मफल मिलने के ध्रुव सत्य की कोई उपेक्षा नहीं करता था, ईमानदारी और आत्म-सम्मान को जीवन का सार समझा जाता था। वचन को निबाहना, अत्याचार का मुकाबला करने में प्राण जाना सौभाग्य समझना, अन्याय का कण लेने की अपेक्षा भूखों मर जाने को श्रेष्ठ मानना, यह उस समय के लोगों की आन-बान-शान थी। संचय और भोग की वृत्तियों को यहाँ सदा तिरस्कृत किया गया है। त्याग, तप, संयम, स्वाध्याय, परमार्थ, प्रेम, संगठन और आत्मिक उन्नति को ही यहाँ सदा सम्मानित किया जाता रहा है।
इसी आध्यात्मिक दृष्टिकोण का, इसी धर्मनिष्ठा का परिणाम था कि भारतीय समाज में इतनी शाँति, सुव्यवस्था और सम्पन्नता थी कि भारत भूमि को ‘पृथ्वी का स्वर्ग’ कहा जाता था और कहते हैं कि देवता भी यहाँ जन्म लेने के लिए ललचाते थे। संसार भर में ज्ञान का, विज्ञान का, प्रेम का, धर्म का, नेतृत्व का प्रकाश यहीं से फैलाया जाता था। चक्रवर्ती राज्य भारत माता के वीर पुत्र करते थे क्योंकि उन्हीं में वे आत्मिक योग्यताएं थीं जिनके कारण महामानवों का निर्माण होता है। उच्च विचारधारा वाले मनुष्य ही दीपक के समान स्वयं प्रकाशित होते हैं और अपने प्रकाश से, अंधकार में भटकती हुई साधारण जनता का पथ-प्रदर्शन करते हैं।
आज भी वही भारत भूमि है, वही जलवायु है, वही नदी, पर्वत हैं, उसी हाड़-माँस से बने मनुष्य हैं कोई विशेष अंतर दिखाई नहीं पड़ता पर एक ही तत्व घट जाने से भारतीयों की महानता नष्ट हो गई। वह तत्व था-उच्च विचार, धार्मिक भावना, आस्तिकता, सत्य के प्रति श्रद्धा। इस तत्व का घटना एक प्रकार का मानव का पशु में परिवर्तन हो जाना है। आज नर पशुओं के झुँड इधर से उधर फिरते हैं, वे धीरे-धीरे नर पिशाच बनने के लिए अग्रसर होते जाते हैं।
हम देखते हैं कि ईश्वर भक्ति में वास्तविक तन्मयता होने के स्थान पर आडम्बर, पाखंड और विडम्बना का बोलबाला है। धर्म को ‘वाम्हनों’ के ठगने-खाने का धंधा घोषित कर दिया गया है। मार्क्सवाद के अनुसार कर्मफल के सिद्धाँत कपोल, कल्पना ठहरा दिये गये हैं। सत्य और ईमानदारी को अव्यवहारिक एवं कोरा आदर्शवाद बताकर उपेक्षित किया जा रहा है। रूप और धन पर, भोग और संचय पर, लोग बेतरह मुग्ध हैं। उचित-अनुचित का विचार करने की बजाय ‘जैसे बने वैसे’ स्वार्थ सिद्ध करने की नीति का डंका बज रहा है। स्वाध्याय को समय की बर्बादी करना कहा जाता है और उन निरुपयोगी पुस्तकों को लोग रात-रात भर जाकर घोटते हैं जो नौकरी दिलाने वाले सर्टीफिकेट के लिए आवश्यक होती हैं। तप, त्याग, संयम, परमार्थ, साधु बैरागियों के लिए छोड़ दिया गया है। आज तो कूटनीति का, डिप्लोमैसी का बोलबाला है। इन परिस्थितियों में ओछे, तुच्छ, नीच, कमीने, कायर, स्वार्थी, बदमाश, इन्द्रिय लोलुप, स्वार्थी, चोर, व्यसनी, लोभान्ध, मनुष्यों का ही निर्माण हो सकता है। यह विचार-धाराएं वैसे महापुरुषों को उत्पन्न नहीं कर सकतीं, वैसे समाज की रचना नहीं कर सकतीं, जैसा कि हमारे अतीत काल में रहा है।
विज्ञान की उन्नति ने आज मनुष्य के लिए सुख-सुविधा के अनेक साधन उपस्थित कर दिए हैं। जिनके कारण आशा तो यह की जानी चाहिए थी कि इस युग के मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ, दीर्घजीवी और पराक्रमी होंगे। पर हो बिल्कुल उलटा रहा है। क्या धनी क्या निर्धन सभी अपनी स्वास्थ्य संपत्ति से वंचित होकर बीमारी और कमजोरी को एक अमीरी फैशन बनाते जा रहे हैं। कारण यह है कि प्रकृति माता का तिरस्कार करके लोग कृत्रिमता में, फैशन में अपना बड़प्पन अनुभव करने लगे हैं। तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजनों का स्वाद लेने के लिए धान्य को कुधान्य बनाकर खाया जाता है। चाय, सिगरेट, शराब आदि मादक पदार्थों का व्यसन दिन-दिन बढ़ रहा है, रात्रि को देर तक जागना, दिन को सोना, अनावश्यक वस्त्रों से लदे रहना, वीर्यपात की अति, चटोरेपन की प्रधानता, व्यायाम और शारीरिक परिश्रम की उपेक्षा, दूषित जलवायु के स्थानों में लोभ वश पड़े रहना, आदि-आदि कारणों से स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जाता है। नित नई बीमारियाँ उत्पन्न होती और फलती-फूलती रहती हैं। जवानी पूरी तरह आने नहीं पाती कि बुढ़ापा आरंभ हो जाता है। जो आयु किसी समय गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने योग्य समझी जाती थी आज वह मृत्यु की तैयारी की सीमा बन गई है।
इस पतनोन्मुखी प्रगति का अन्त कहाँ जाकर होगा, वह कल्पना करके ही छाती धड़कने लगती है। कुविचार और दूषित आधार ने हमारा शारीरिक और मानसिक जीवन खोखला कर दिया है। फिर भी हमारी आँखें नहीं खुलतीं और इस सड़क पर घुड़दौड़ लग रही है। यह विनाश का पथ है जिस पर प्रत्येक कदम अधिक भयंकर परिस्थितियाँ सामने उपस्थित करता चलेगा। और एक दिन सर्वनाश के गहरे गर्त में गिरा देगा।
अभी भी संभलने का समय है, यदि हम अपने प्राचीन गौरव की झाँकी पुनः करना चाहते हैं, भारतभूमि को पुनः ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ बनाना चाहते हैं तो हमें अपने विचारों को नम्र और आचरण को प्रकृति अनुकूल बनाना होगा। सादा जीवन और उच्च विचार ही भारत की उन्नति का मूलमंत्र हो सकता है।