Magazine - Year 1949 - Version 2
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Language: HINDI
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समाज सेवा से आत्म-रक्षा
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(श्री स्वामी जयन्ती प्रसाद जी)
जिस प्रकार सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणुओं की एकता से विश्व की उत्पत्ति है-उसी प्रकार अनेकों व्यक्तियों के मेल से समाज बना है। एक-एक कर के समाज से सभी व्यक्तियों को यदि पृथक कर दिया जाय तो यहाँ समाज रहे न संसार। अतः आओ, हम सब अलग-अलग अपने अस्तित्व की चिंता छोड़ व्यक्तित्व का, स्वार्थ का, अहंकार त्याग कर निजी सद्गुणों द्वारा समाज तथा संसार की सेवा वाली सुन्दर सृष्टि का सृजन करें। मनुष्य सेवा के लिए ही पैदा हुआ है- मैं आपकी सेवा करूं, आप उनकी और वे मेरी। इस प्रकार हम सबका कार्य सुचारु व सुव्यवस्थित रूप से ठीक समय पर होता रहे। और रागद्वेष रूपी तू-तू, मैं-मैं के उस छीना झपटी वाले दूषित तरीके को ग्रहण करने से भी बच जायं जिसे अपनाने से मन कलुषित रहता है, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। चित्त चलायमान होता है और व्यर्थ का अहंकार चमक जाता है।
भारत वर्ष में अतिथि सत्कार का बड़ा ही महत्व है। आतिथ्य सत्कार से ही गृहस्थाश्रम का महत्व व शोभा बताई जाती है। हर कोई जिस प्रकार अपने अतिथि को अपने से अच्छा खिलाता-पिलाता है। आतिथ्य सत्कार के समय भीतर से सेवा भाव का समुद्र उमड़ पड़ता है। उसी तरह की निर्मल, निर्दोष तथा परमार्थ की निष्कलंक और पवित्र भावना, सेवा भाव से एक दूसरे के प्रत्येक कार्य को करते समय रह सकती है। सेवा बहुत ही ऊँची चीज है। सेवा में न मजदूरी का ही भाव है और न दुकानदारी का इसलिए सेवा करना मनुष्य मात्र का सबसे मुख्य कर्त्तव्य है। विदेशों में कुछ भी रहा हो परन्तु भारतवर्ष की संस्कृति तो यही बतलाती है कि मानवता की सेवा करने से ही हमारी रक्षा हो सकती है।