Magazine - Year 1950 - Version 2
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Language: HINDI
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गायत्री में प्रणव और व्याहृतियों का हेतु।
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भूर्भुवः स्वस्त्रयोलोका व्याप्तमोम्त्रह्मेतेषुहि।
स एव तथ्यतो ज्ञानी यस्तद्वेत्ति विचक्षणः॥
-गायत्री स्मृति
अर्थ- भूः भुवः और स्वः ये तीन लोक हैं।
इन तीनों लोकों में ॐ ब्रह्म व्याप्त है। जो बुद्धिमान उस व्यापकता को जानता है वह ही वास्तव में ज्ञानी है।
यह विश्व तीन मार्गों में विभक्त है प्रत्येक विभाग को लोक कहते हैं। भूःलोक, भुवःलोक, स्वः लोक यह तीनों प्रसिद्ध हैं। मोटे तौर से इन्हें आकाश पृथ्वी और पाताल कहा जाता है। आध्यात्मिक भाषा में इन्हें साँसारिक, शारीरिक और आत्मिक क्षेत्र कहा जाता है। इन तीनों क्षेत्रों में ॐ नाम वाला परमात्मा समाया हुआ है। यह तीनों ही प्रभुमय हैं। यह संदेश गायत्री मन्त्र के आरम्भ में प्रयुक्त होने वाले प्रणव और व्याहृतियों में सन्निहित है।
गायत्री मन्त्र का सर्वप्रथम प्रारंभिक संदेश यह है कि विश्व के जीवन के तीनों भागों में परमपवित्र महा मानवता का, ईश्वरीय दिव्यता का अस्तित्व स्वीकार करें। गीता के 11 वें अध्याय में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को विराट रूप दिखाया था। रामायण में भगवान राम ने अपने जन्म काल में कौशल्या को विराट् रूप दिखाया था, उत्तरकाण्ड में काकभुसुंडिजी के संबंध में वर्णन है कि वे भगवान के मुख में चले गए तो उन्होंने वहाँ सारे ब्रह्माण्डों को देखा। मिट्टी खाते समय माता के अनुशासन करने पर भी भगवान ने अपना मुँह खोल कर अपने अन्दर विश्व ब्रह्माण्डों को दिखाया था। इस विराट् रूप की भावना प्रत्येक द्विज के-मनुष्यता का उत्तर दायित्व समझने वाले व्यक्ति के-अन्तःकरण में बिठा देना गायत्री का प्रथम उद्देश्य है।
भगवान के इस विराट् रूप को देखना हर किसी के लिए संभव है। अखिल विश्व ब्रह्माण्ड को परमात्मा की विशालकाय मूर्ति समझना और उसके अंग प्रत्यंगों के रूप में समस्त पदार्थों को देखने की भावना ही विराट् रूप का दर्शन है। चर्म चक्षुओं से इस प्रकार के दर्शन किसी के लिए भी संभव नहीं, अर्जुन के लिए भी संभव नहीं थे इसलिए भगवान ने “दिव्यं ददामि ते चक्षुम्” दिव्य चक्षु, दिव्य दृष्टि, दिव्य भावना देकर इस रूप का दर्शन होना संभव किया था।
आकाश, पाताल पृथ्वी से-ऊपर, नीचे, बीच में-सर्वत्र-परमात्मा की दिव्य ज्योति जल रही है, सर्वत्र वह परम प्रभु समाया हुआ है। प्रत्येक अणु परमाणु उसकी सत्ता से परिपूर्ण है, इस महासत्य को जब हम अपनी दिव्य कल्पना के आधार पर हृदय क्षेत्र में प्रतिष्ठित करते हैं तब वह क्षण विराट् दर्शन के ही होते हैं। यह अनुभूति जितनी अधिक तीव्र प्रत्यक्ष, निश्चित और श्रद्धामय होगी, उसी अनुपात से भगवान के विराट रूप के दर्शन का आनन्द मिलेगा। और अर्जुन, कौशल्या, यशोदा, काकभुसुँडि की तरह उस दर्शन का अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त होगा।
भारतीय संस्कृति का मूल ईश्वर विश्वास है। भारतीय दर्शन का आरम्भ ईश्वरवाद को लेकर होता है। भारतीय जीवन में सर्वप्रथम ईश्वर का स्थान है। यही उसकी आत्मिक विचार धाराओं और परम्पराओं का मूल्य स्त्रोत है। यदि इस ईश्वरीय तथ्य को उसमें से पृथक कर दिया जाए तो फिर उसकी सारी महत्ता ही हतप्रभ हो जाती है।
संसार को जड़ प्रकृति की रचना, ईश्वर रहित मानने से उसे भोग्य समझने की, अपने लाभ के लिए मनमाना उपयोग करने की इच्छा होती है जैसा कि आम लोगों का ख्याल है कि संसार की सभी वस्तुएं मनुष्य के लाभ या उपयोग के लिए बनाई गई हैं। इस भौतिक दृष्टिकोण को अपनाकर मनुष्य जाति ने अन्य प्राणियों पर भारी अत्याचार, शोषण और बलात्कार किया है। पदार्थों का दुरुपयोग किया है। वस्तुओं को जोड़-जोड़ कर उनका संचय करके परिग्रह का पाप कमाया और सम्पत्तिवान बनने के लोभ में असंख्य अल्पशक्ति वालों को, अभाव-ग्रस्त एवं निर्धन रहने का दुख सहने को विवश किया। अनीश्वरवादी भौतिक दृष्टिकोण स्वभावतः पदार्थों का मनमाना उपयोग करके अपनी संतुष्टि की इच्छा पैदा करता है। इसके विपरीत प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थों में, प्रत्येक परमाणु में तीनों लोकों में भूः र्भुः स्वः में, सर्वत्र ॐ को परमात्मा को व्याप्त देखने से दूसरे ही दृष्टिकोण की उत्पत्ति होती है।
प्रत्येक वस्तु में विश्वव्यापी, आत्मा का परमात्मा का, सच्चिदानन्द शक्ति का दर्शन करना सब प्राणियों और पदार्थों में परमात्मा की झाँकी करना एक ऐसी आत्मिक विचार पद्धति है जिसके द्वारा विचार करने पर विश्व सेवा की, लोक सुरक्षा की, विश्व व्यवस्था की भावना पैदा होती है। ईश्वर सब प्राणियों में समाया हुआ है इसलिए प्रभु की चलती फिरती इन प्रतिमाओं को स्वस्थ, सुन्दर और सुखी रखने के लिए अपने प्रयत्न होने चाहिएं। संसार के पदार्थों धन सम्पदाओं, प्रकृति, वैभवों में ईश्वर का निवास है इसलिए इनको दैवी अमानत समझ कर अपने लिए न्यूनतम भाग उपयोग करना और शेष को सर्वोपयोगी, सुन्दर एवं सुविकसित बना रहने देना उचित है। इस प्रकार विश्व में भूः भुवः स्वः में, आत्मा की, परमात्मा की झाँकी करने से संसार के प्रति एक श्रद्धामय भावना उत्पन्न होती है जिसके कारण अपने भोग के लिए संसार का मनमाना उपयोग करने की इच्छा हटती है और उसके स्थान पर विश्व को अधिक सुगम्य, समृद्ध एवं सुख-शाँतिमय बनाने में अपने आपका उत्सर्ग करने की भावना पैदा होती है। कहना न होगा कि भोगवादी विचारधारा ही व्यक्तियों, और समुदायों में क्लेश, पाप और संघर्ष उत्पन्न करती है। इसके विपरीत विश्व को परमात्मा की दिव्यमूर्ति मान कर उसके आगे आत्म-समर्पण करने की त्यागमयी आध्यात्मिक मनोवृत्ति विश्व में सुख शान्ति की, प्रेम, एकता, सेवा-सहानुभूति, संयम, उदारता, भ्रातृ भावना आदि की अभिवृद्धि करती है।
मनुष्य की पशुता पर, पाशविक मनोवृत्तियों पर अंकुश रखना और उनके स्थान पर दैवी सद्वृत्तियों का, महान मानवता का विकास करना आध्यात्मवाद का प्रधान लक्ष्य है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए भगवान के विश्वव्यापी विराट् रूप की मान्यता भारतीय धर्म शास्त्रों में है। पौराणिक उपाख्यानों में अर्जुन, यशोदा, कौशल्या, काकभुसुण्डि आदि के उस विराट् रूप का घटनात्मक वर्णन किया गया है। गायत्री मन्त्र के प्रारम्भ में ‘ ॐ भूः भुर्वः स्वः’ इसी उद्देश्य से है। इस व्याहृति भाग का संदेश यह है कि हम निखिल विश्वब्रह्माण्ड में विश्वात्मा को, परमात्मा को समाया हुआ अनुभव करें और प्रभु की इस सुगम्य वाटिका के किसी भी कण का अपव्यय या दुरुपयोग अपनी पाशविक वृत्तियों को संतुष्ट करने के लिए न करें।
प्रत्येक पदार्थ में परमात्मा की सत्ता समाई हुई देखने की, ॐ में भूर्भुवः स्वः ओत प्रोत अनुभव करने की, शिक्षा गायत्री ने इसलिए दी है कि चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के उपरान्त मनुष्य के अन्तःकरण में जिन अनेकों पाशविक वृत्तियों की, नीच संस्कारों की प्रधानता होती है उनको चोरी चोरी चरितार्थ करने का अवसर न मिले। मनुष्य उस स्थिति में पाप करता है जब वह देखता है कि मेरे पाप कर्म गुप्त रहेंगे या उनके दण्डों से मैं बच जाऊंगा। यदि उसे यह विश्वास दृढ़ हो जाए कि भगवान जर्रे जर्रे में समाया हुआ है, हर जगह मौजूद है तो पापकर्म करने का साहस ही नहीं हो सकता। ऐसा कौन सा चोर है जो सावधान खड़ी हुई सशस्त्र पुलिस के सामने चोरी, करने का साहस करे। चोरी व्यभिचार, ठग, धूर्तता, दंभ, असत्य, हिंसा आदि के लिए आड़ की, पर्दे की, दुराव की, जरूरत पड़ती है। जहाँ मौका होता है, इन बुरे कामों को पकड़ने वाला नहीं होता, वहीं इनका किया जाना संभव है। जहाँ धूर्तता को भली प्रकार समझने वाली, देखने वाली, पकड़ने वाली, मजबूत ताकत सामने खड़ी होती है वहाँ पाप कर्मों का हो सकना संभव नहीं। इसी प्रकार जो इस बात पर सच्चे मन से विश्वास करता है कि परमात्मा सब जगह मौजूद है वह किसी भी दुष्कर्म को करने का साहस नहीं कर सकता।
बुरे काम करने वाला पहले यह भी भली प्रकार देखता है कि मुझे देखने या पकड़ने वाला तो कोई यहाँ नहीं है, जब वह भली भाँति यह विश्वास कर लेता है कि उसका पाप कर्म किसी की दृष्टि या पकड़ में नहीं आ रहा है तभी वह अपने काम में हाथ डालता है। इस प्रकार जो व्यक्ति अपने को परमात्मा की दृष्टि या पकड़ से बाहर मानते हैं वे ही दुष्कर्म करने को उद्यत हो सकते हैं। पापकर्म करने का स्पष्ट अर्थ यह है कि यह व्यक्ति ईश्वर को मानने का दंभ भले ही करता हो पर वास्तव में परमात्मा के अस्तित्व से इनकार करता है। उसके मन को इस बात पर भरोसा नहीं है कि परमात्मा यहाँ मौजूद है। यदि विश्वास होता तो इतने बड़े हाकिम के सामने किस प्रकार उसके कानूनों को तोड़ने का साहस करता? जो व्यक्ति एक पुलिस के चपरासी को देखकर भय से थर-थर काँपा करते हैं वे इतने दुस्साहसी नहीं हो सकते कि सृष्टि के सर्वोच्च अफसर की आँखों के आगे, न करने योग्य काम करें, उसके कानून तोड़ें, उसको क्रुद्ध बनावें, उसकी अवज्ञा करें। ऐसा दुस्साहस तो वही कर सकता है जो यह समझता है कि परमात्मा कहने-सुनने भर की चीज है। वह पोथी-पत्रों में, मन्दिर-मठों में, नदी-तालाबों में या स्वर्ग नरक में भले ही रहता हो पर हर जगह मौजूद नहीं है।
गायत्री में सर्वप्रथम प्रणव और व्याहृतियों (ॐ भूर्भुवः स्वः) का आयोजन इसी लिए किया गया है कि मानव हृदय में गहराई तक यह भावना जागृत हो जाए कि सर्वत्र परमात्मा व्याप्त है। प्रत्येक पदार्थ विश्वात्मा से परिपूर्ण है। कोई भी बुराई, भलाई जो उसके मन में आती है विश्वात्मा की जानकारी में तत्क्षण आ जाती है। संसार का प्रत्येक व्यक्ति यह जान जाता है कि अमुक व्यक्ति के आन्तरिक भाव क्या हैं। किसी को मायाचार प्रलोभन या धोखे से कुछ समय के लिए भ्रम में भले ही डाल दिया जाए पर आध्यात्म विज्ञान की सुनिश्चित प्रणाली के अनुसार हमारी गुप्त भलाइयाँ और बुराइयाँ प्रत्येक जड़ चेतन पदार्थ के अन्तराल में निवास करने वाली विश्वव्यापी आत्मा में सर्वत्र फैल जाती हैं तद्नुसार उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप विश्व ब्रह्माण्ड की भाव लहरी कुँए की आवाज की तरह हमारे लिए लौट पड़ती है। चोर का, व्यभिचारी का, ठग का, कलेजा अपने आप बिना किसी कारण के धक् धक् करता रहता है, अनायास ही उसके मन में तरह-तरह के भय, संदेह, पश्चाताप उठते रहते हैं। यह सब क्या है? यह उस मनुष्य की गुप्त बुराइयों की प्रतिध्वनि है जो विश्व आत्मा से टकरा कर कुँए की आवाज की तरह वापिस लौटती है। दर्पणों से बने हुए महल में बन्द हुआ कुत्ता जैसे चारों ओर अपने जैसे असंख्य कुत्ते घूमते देखता है अपने भौंकने का प्रत्युत्तर असंख्य मुखों से सुनकर डरता और घबराता है। वैसे हो पापी मनुष्य भी सर्वत्र व्याप्त विश्वात्मा से टकराकर लौटी हुई अपनी अनुचित मनोवाँछाओं की भयंकरता से अपने आप पीड़ित, प्रस्त और आत्म-प्रताड़ित होता रहता है। यही बात भलाइयों, अच्छाइयों, पुण्य-भावनाओं, सद्वृत्तियों के बारे में है। पवित्र अन्तःकरण से निकली हुई सद्भावनाएं विश्व-भर के जड़-चेतन पदार्थों में-व्यापक परमात्म संबंध के कारण सात्विक प्रतिक्रिया उत्पन्न करती हैं और संसार की हर वस्तु के लिए आदर की, आशीर्वाद की, सहयोग की, उदारता की प्रतिध्वनि भेजती है। फलस्वरूप सद्भावना युक्त मनुष्य प्रतिक्षण अनायास ही अपने अन्दर आनन्दमयी तरंगों का आस्वादन करता रहता है।
सर्वत्र प्रभु की झाँकी करना, सर्वत्र विश्वात्मा का, परमात्मा का दिव्य प्रकाश झिलमिलाते देखना, अपने चारों ओर, अन्दर-बाहर दिव्य सत्ता से परिपूर्ण अनुभव करने से अनायास ही मनुष्य परम सात्विक, परम आनन्दमयी भावना से ओत-प्रोत हो जाता है। स्वार्थ और वासना की नारकीय नीच विचारधाराओं से वह ऊपर उठता है और दिव्य दृष्टि से अपने को, दूसरों को, संसार के पदार्थों को देखता है। यह विचारधारा निश्चय ही व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में सुख शान्ति का आविर्भाव करती है। इस प्रकार की मान्यता रखने वाले व्यक्तियों के गुण, कर्म, स्वभाव महान मानवता के अनुकूल होते हैं, उनसे मनुष्यता की प्रतिष्ठा बढ़ती है। वह स्वयं सुखी रहते हैं और अपने चारों ओर सुख-शान्ति का वातावरण उत्पन्न करते हैं।
भुः संसार को, भुवः शरीर को, स्वः अन्तरात्मा को भी कहते हैं। यह तीनों परम प्रभु से ओत-प्रोत हैं, यह मानकर चलने से लोक सेवा द्वारा संसारव्यापी ईश्वर की उपासना करने की इच्छा होती है। शरीर और मन को स्वस्थ, संयत, सक्रिय, सन्मार्ग गामी, सुखी, सद्गुण सम्पन्न बनाने में प्रभु प्रज्ञा का ध्यान रहता है। अन्तरात्मा को पवित्रता, पुण्य, परहित, उदारता, प्रेम, प्रसन्नता की भावना द्वारा प्रभु के निवास योग्य सुन्दर मन्दिर बनाने का विचार होता है। जीवन के इन तीनों क्षेत्रों में भी ईश्वरीय श्रद्धा की स्थापना हो जाती है। समष्टि क्षेत्र विश्वव्यापी ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखने और व्यष्टि क्षेत्र में जीवन के इन तीनों विभागों में ईश्वर की व्यापकता का अनुभव करने से जीवनमुक्ति का अनुभव होता है। सर्वत्र भीतर बाहर ईश्वर ही ईश्वर का परिलक्षित होना यही तो परमानंद की, ब्रह्म निर्माण की सहज समाधि की, स्थिति प्रज्ञ की, परमहंस अवस्था है। गायत्री का साधक इस भावना को जैसे-जैसे जितनी-जितनी मात्रा में हृदयंगम करता जाता है। इस तत्व पर उसकी श्रद्धा और अनुभूति जितनी ही प्रबल होती जाती है उसी अनुपात से वह मायामुक्त होता जाता है। और जीवित स्वर्ग में प्रवेश करता जाता है।
ईश्वर उपासना की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। विभिन्न सम्प्रदायों के अनेक धर्मग्रन्थों में विविध प्रकार के ईश्वरीय चरित्रों, कथाओं का वर्णन है, इनके कहने या सुनने से परमात्मा प्रसन्न होने का महात्म्य लिखा है। मन्दिर, मस्जिद, गिरजे, तीर्थ, व्रत, उद्यापन, हवन, बलिदान, जप-तप, साधना, संन्यास, ध्यान, संध्या, नमाज, कथा, कीर्तन, दान, पुण्य, पूजा, अर्चना, भोग, प्रसाद आदि अनेक विधि-विधानों कर्मकाण्डों द्वारा परमात्मा की उपासना की जाती है। इन सबका एक मात्र रहस्य यह है कि मनुष्य प्रभु की सत्ता को अपने समीप देखे, उसका ध्यान रखे, मनोभूमि में उसे प्राथमिकता दे, और अपने चारों ओर ईश्वर की समीपता देखते हुए उचित विचारधारा और कार्यप्रणाली को ही अपनाए। ईश्वर को निकटतम उपस्थित देखने वाला व्यक्ति स्वभावतः सन्मार्गगामी होगा। उसका मन और शरीर उचित गतिविधि को ही अपनाता है। फलस्वरूप सत्कर्मों का फल इतना शान्ति दायक, इतना सन्तोषजनक, इतना कल्याणकारक होता है कि उसे ईश्वरीय वरदान से कम किसी भी प्रकार नहीं कह सकते ।
निश्चय ही ईश्वर एक निर्विकार, सर्वव्यापक, नियम स्वरूप, सत्ता है। वह न किसी पर प्रसन्न होता है न अप्रसन्न । निन्दा स्तुति से वह प्रभावित नहीं होता। खुशामद करना या कोसना उसके लिए दोनों बराबर हैं। वह तो कर्म करने के लिए मनुष्य को पूर्णतया स्वतंत्र छोड़ देता है और निष्पक्ष जज की तरह किए हुए कर्मों का यथोचित फल मिलने की व्यवस्था कर देता है। ईश्वर उपासना एक आध्यात्मिक व्यायाम है, एक आत्म-अनुशासन है जिससे मनुष्य की अन्तः भूमि का सुसंबद्ध विकास होता है। उस विकास के फलस्वरूप ऐसे विचारों और कार्यों का अभ्यास हो जाता है जिसके कारण अति आनन्द दायक परिस्थितियाँ आये दिन अनायास ही प्राप्त होती रहती हैं। ईश्वर उपासक कृतज्ञतापूर्वक इस आनन्द उपहार को ईश्वरीय वरदान समझ कर शिरोधार्य करता हुआ अपनी अहंकारिता का परिचय देता है। इस प्रकार जो कार्य किसी भी ईश्वर उपासना विधि से होता है वही कार्य प्रणव और व्याहृतियों में सन्निहित भावनाओं को अपनाने से हो सकता है।
ईश्वर ने मनुष्य को कर्म करने में पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की है। हम चाहे जैसे भले या बुरे कर्म करने में पूर्णतया स्वतंत्र हैं इतना होते हुए भी कर्म फल से छुटकारा नहीं मिल सकता, उसमें मनुष्य, ईश्वर का परतंत्र है। कर्म का फल मिलना अवश्यम्भावी है। प्रत्येक प्राणी की अन्तरात्मा में बैठा हुआ ईश्वर उसे कर्तव्य अकर्तव्य का संदेश देता रहता है। चोरी करते समय भीतर ही भीतर उसे न करने की पुकार उठती है, पैर काँपते हैं। और दिल धड़कता है, इसी प्रकार कोई सत्कर्म करने पर आन्तरिक सन्तोष होता है मानो अन्तरात्मा उस सुकृत के लिए आशीर्वाद दे रही हो। यह ईश्वरीय पथ प्रदर्शन है, अन्तरात्मा के आदेशों पर चलते हुए सद्विचार और सत्कार्यों को अपनाना एक प्रकार से उसकी सच्ची पूजा करना है। राजा चारणों, नटों, प्रशंसकों और खुशामदियों से उतना प्रसन्न नहीं होता जितना आज्ञाकारी आदेश पालक, कर्तव्यनिष्ठ और वफादार कर्मचारी से संतुष्ट रहता है।
यों ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है। पर हमारे लिए उसकी छाया दो स्थानों पर विशेष रूप से प्रदर्शित होती है। दो वेदियों से वह हमें विशेष रूप से पुकारता है। (1) सतोगुण की वृद्धि के स्थानों में (2) निर्धनों की सहायता के क्षेत्रों में। जहाँ उत्तम विचार और कार्य हो रहे हैं। मानव प्राणियों में सात्विकता की वृद्धि के लिए जहाँ आयोजन हो रहे हैं उन स्थानों में ईश्वर की विशेष कलाएं, अतिरिक्त शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं वहाँ अपना समय, सहयोग, सद्भाव देना निस्संदेह ईश्वर की पूजा का एक श्रेष्ठ कार्य है। वह परीक्षा लेता है कि देखें हममें दया रूपी, उदारता रूपी, श्रद्धा भक्ति है या नहीं? जो सच्चा ईश्वर भक्त है वह अपने से अधिक उन्नतिशील लोगों को देखकर प्रसन्न होता है और अपने से निर्बलों की सहायता के लिए दौड़ पड़ता है जो गिरे हुए हैं उन्हें उठाना, जो पीड़ित हैं उन्हें सहायता देना, ईश्वर की क्रियात्मक पूजा है।
अपने से ज्ञान में, बल में, धन में, गुणों में, पुण्य में जो लोग पिछड़े हुए हैं उन्हें ऊंचा उठा कर अधिक सुखी बनाने के लिए जो भी प्रयत्न किए जाएं वे सभी ईश्वर की उपासना के प्रतीक हैं। चूँकि सभी में ईश्वर है इसलिए अपने में, अपने परिवार में, अपने स्वजनों निकटवर्तियों में भी वह है। अपने निकटवर्ती क्षेत्र से कार्य आरंभ करना सुविधाजनक एवं उचित होता है, इसलिए अन्तरात्मा की अपेक्षा अपना मन निर्मल है उसे ऊंचा उठाना चाहिए एवं अपने परिजनों को आन्तरिक और साँसारिक संपदाओं से सम्पन्न करना चाहिए। उनमें सात्विकता के अंश अधिकाधिक मात्रा में भरने चाहिएं। इस प्रकार अपने निकटवर्ती क्षेत्र से, मन-मन्दिर तथा परिवार-उपवन से ही ईश्वराधना आरंभ कर देनी चाहिए। ‘दिया तले अंधेरा’ की कहावत चरितार्थ करना उचित नहीं। मन्दिर में घी के दीपक करना और अपने निकटवर्ती क्षेत्र में अज्ञान का अंधकार, यह तो कोई भला तरीका नहीं है।
स्वयं अधिक न कर सकें तो जो लोग सात्विकता को बढ़ाने का, धर्म का, कर्तव्यनिष्ठा का, सद्ज्ञान का, सत्कर्मों का आयोजन कर रहे हैं उसमें शक्तिभर सहयोग देकर सर्वव्यापी सच्चिदानन्द परमात्मा की पूजा करनी चाहिए। अपनी बड़ी शक्ति दूसरों की बड़ी शक्ति में मिला देने से एक सुव्यवस्थित शक्ति प्रवाह बन जाता है, अपनी शक्ति कम हो तो उसे दूसरों के साथ युक्त करके प्रभु के पूजन के महान अभियान में साझी बना जा सकता है। सर्वध्यापक एक ईश्वर प्रसन्नता के लिए (1) सत् तत्व की वृद्धि करना (2) गिरों को उठाना, यह दोनों ही सदाचार उसकी पूजा के सर्वश्रेष्ठ साधन हैं।
ईश्वर सर्वत्र है इसका यह गलत अर्थ न लगा लेना चाहिए कि जहाँ जो कुछ भी हो रहा है ईश्वर की इच्छा से हो रहा है ऐसा कदापि नहीं होता, पाप तो मनुष्य अपनी स्वतंत्र कर्तव्य शक्ति का दुरुपयोग करके करते हैं। इस दुरुपयोग का नाम ही शैतान है। शैतान की सत्ता को हटा कर ईश्वरीय सत्ता को प्रकाश में लाना यह मनुष्य मात्र का धर्म है। हर मनुष्य को, हर जड़ चेतन पदार्थ को उपयोग, सुखदायक और सुव्यवस्थित बनाना यही तो हर वस्तु में छिपे हुए ईश्वर को प्रत्यक्ष करना उसका पूजन करना है। मैल और गर्द गुबार से जैसे मन्दिर की प्रतिमा को माँज-धोकर नित्य स्वच्छ किया जाता है वैसे ही संसार के
ऊपर चढ़ी हुई बुराइयों रूपी गर्द गुबार को हटा कर स्वच्छ करना ईश्वर पूजा का एक प्रधान कार्य है।
गायत्री मानव जीवन में सर्वतोमुखी आनंद की स्थापना करने वाली महाविद्या है। उसका प्रारम्भ सर्वत्र ईश्वरीय मोचना रखने की शिक्षा से होता है। ॐ भू र्भुवः स्वः का, प्रणव और व्याहृतियों का, प्रथम आयोजन उसमें इसीलिये हुआ है। गायत्री स्तुति के प्रथम श्लोक में इसी लिये यह कहा गया है कि-जो भूर्भुवः स्वः में ॐ की व्यापकता को जानता है वही बुद्धिमान वास्तविक ज्ञानी है। पाठकों को ऐसा ही ज्ञानी बनने का प्रयत्न करना चाहिए।