Magazine - Year 1950 - Version 2
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सत्यनारायण व्रत कथा का रहस्य।
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(श्री. अशर्फीलालजी मुख्तार, बिजनौर)
सत्यनारायण की कथा का उत्तर भारत में बहुत प्रचार है। ईश्वर पूजा को एक मध्यवर्ती मार्ग सत्य नारायण की कथा का माना जाता है। कोई प्रसन्नता की, संतोष की, सफलता की, भार निवृत्ति की बात होने पर, तीर्थ यात्रा आदि से लौटने पर अथवा स्वाभाविक श्रद्धा से प्रेरित होकर लोग सत्य नारायण की कथा कराते हैं।
यह कथा नारद और विष्णु के संवाद से आरंभ होती है। नारदजी मनुष्य शोक के निवासियों को अनेक प्रकार के दुखों से ग्रस्त देखकर उन्हें दुख से छुड़ाने का उपाय भगवान से पूछते हैं। भगवान नारद जी की उपाय के रूप में सत्य नारायण का व्रत बताते हैं। इसके बाद विष्णु ने नारद को और सूतजी शौनकादयों को वे उपाख्यान सुनाते हैं जिनमें इस व्रत के करने वालों को मनोवाँछित लाभ हुए है। शतानन्द, ब्राह्मण, काष्ठ विक्रेता भील, साधु वैश्य, लीलावती कलावती, गौ चराने वाले गोप, अंगध्वज राजा आदि के द्वारा सत्यनारायण की आराधना करने से मनोवाँछित लाभ मिलने एवं आराधना का तिरस्कार करने पर दुख दारिद्र एवं संकट में पड़ने की कथा इन उपाख्यानों में है। जिससे यह प्रकट होता है कि जो उस व्रत को करेंगे वे लाभ उठावेंगे और जो उसका तिरस्कार करेंगे वे घाटे में रहेंगे।
यहाँ एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि वह कथा कौन सी थी जो शतानन्द, भील, साधु वैश्य, लीलावती, कलावती, गोप, अंगध्वज आदि ने कराई थी। यह प्रश्न उचित भी है क्योंकि वर्तमान कथा का निर्माण तो तभी हुआ होगा जब उपरोक्त व्यक्ति उसे करा चुके होंगे। यह हो नहीं सकता कि उनने जो कथा कराई हो उसमें उन्हीं का वर्णन रहा हो, तब उस असली कथा का पता चलना ही चाहिए जो विष्णु द्वारा नारद को और सूतजी ने शौनकादि को सुनाई थी। इस प्रश्न का उत्तर कथा वाचकों से पूछा जाता है तो वे या तो निरुत्तर हो जाते हैं या ऐसा कहते हैं कि प्रत्येक कल्प में शतानन्द, साधु, काष्ठ विक्रेता , लीलावती, कलावती, गोप आदि हुए हैं। पूर्व कल्प के शतानन्द आदि की कथा इस कला के शतानन्द ने सुनी होगी। ऐसे उत्तरों से भली प्रकार समाधान नहीं होता।
तात्विक बात यह है कि विष्णु भगवान ने नारद को और सूतजी ने शौनकाद को सत्य का व्रत लेने की, सच्चाई का जीवन बिताने की शिक्षा दी थी और सत्य को ही सब प्रकार के दुखों का हर्ता बताया था। उनका कथन था कि लोगों के सम्पूर्ण दुख असत्यमय आचरण के कारण है। बेईमानी, दुराचार, झूठ, छल, दंभ आदि की दुर्भावनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य नाना प्रकार के दुष्कर्म करते हैं और उन पापों के फलस्वरूप तरह-तरह के रोग, शोक, दुख, दारिद्र, क्लेश, कलह सामने आते हैं यदि मनुष्य का जीवन सत्य युक्त, सात्विक, शुद्ध निर्मल हो तो कोई कारण नहीं कि उसे दुखों की यातना सहनी पड़े। इस ध्रुव तथ्य की शिक्षा देते हुए विष्णु ने नारद को कहा था कि सत्य ही नारायण है। सच्चाई पर उतनी श्रद्धा आस्था, निष्ठा होनी चाहिए जितनी की ईश्वर पर होती है। इसलिए सत्य को नारायण कहा गया और सत्य नारायण का व्रत लेना, दुखों का निवारक और सुख समृद्धियों का संवर्धक बताया गया।
लीलावती, कलावती आदि की कथाएँ सत्य का महात्म्य बताने के लिए उदाहरण रूप से हैं। कोई सिद्धाँत केवल विवेचनात्मक ढंग से या शुष्क उपदेश के ढंग से समझाया जाय तो सर्वसाधारण की समझ में वह वैसी अच्छी तरह नहीं आता जैसा कि उदाहरण एवं घटनाएं सुनने से समझ में आ जाता है। मनुष्य का स्वभाव लोभ और भय से बचने और लोभ को प्राप्त करने के लिए ही अधिकाँश कार्य करता है। इस मनोवैज्ञानिक रहस्य को हमारे शास्त्रकार भली प्रकार जानते थे इसलिए उन्होंने सत्य नारायण का व्रत लेने के साथ साथ उन कथाओं को भी संबद्ध कर दिया जिनके कारण लोगों को इस महा अभियान द्वारा लाभ प्राप्त करने का लोभ बढ़े और विमुख रहने पर अनिष्ट होने का भय उपस्थित हो। इन दोनों आधारों के कारण सुनने वाले की रुचि सत्य नारायण की ओर बढ़े।
जिस दिन सत्य नारायण का व्रत लिया जाता है उस दिन पवित्रता पूर्वक व्रत उपवास रख कर उत्सव का आयोजन किया जाता है। गुरु जन, ब्राह्मण, देवता, भगवान की प्रतिमा, अग्नि, वरुण (जल) आदि का आवाहन, स्थापन इसलिए किया जाता है कि इन श्रेष्ठ सत्ताओं की उपस्थिति में, साक्षी में, जो प्रतिज्ञा की जा रही है, उसके पालन में अधिक दृढ़ता और लोक-लाज रहे और जब भी व्रत भंग का अवसर आवे तब यह ध्यान तुरन्त ही उठ आवे कि जो प्रतिज्ञा इतने देवताओं और सत्पुरुषों के सामने की गई थी उसे तोड़ना मेरे लिए लज्जा की बात होगी।
बार-बार सत्यनारायण की कथा इसलिए कहलाई जाती है कि कालान्तर में प्रतिज्ञा का प्रभाव मस्तिष्क में से हटने लगता है लोग पुरानी प्रतिज्ञा को विस्मरण कर देते हैं इसलिए बार-बार, वह प्रण करने से मनोभूमि का पुनर्जागरण होता रहता है और चित्त पर हर बार नया संस्कार जम-जम कर सत्य पालन की उस विचार धारा को धीरे-धीरे अधिक परिपुष्ट करता रहता है इसीलिए जीवन में अनेकों बार जल्दी-जल्दी सत्यनारायण के व्रत का उत्सव कराने की परम्परा चली आ रही है।
कई आदमी इस वास्तविकता को समझ कर ऐसा भय करेंगे कि हमारा जीवन अभी असत्यपूर्ण है, और वर्तमान परिस्थितियों में हम पूर्ण तथा सत्यनिष्ठ हो भी नहीं सकते, ऐसी दशा में सत्य नारायण का उत्सव कराना या कथा कहलाना निरर्थक होगा। ऐसा शंका करने वाले सज्जनों को समझना चाहिए कि पतनोन्मुख प्रवृत्तियों को रोकने के लिए व्रत ही एकमात्र उपाय है। नीचे की ओर तेजी से बहते हुए पानी के आगे अगर बाँध खड़ा न किया जाय तो पानी किस प्रकार रुक सकेगा? बाँध कई बार टूट भी जाता है, उस टूट फूट की दुरस्ती बराबर की जाती रहती है और पानी थोड़ा बहुत निकल भी जाय तो भी अधिकाँश तो रु का ही रहता है। इसी प्रकार व्रत न लेने वाले की अपेक्षा व्रत लेने वाला अपेक्षाकृत सत्य का पालन अधिक ही कर लेता है और जितना कुछ भी सत्य के समीप रहता है उतना तो पुण्य फल के द्वारा मिलने वाला आनंदों को प्राप्त कर ही लेता है। इस प्रकार यदि कभी व्रत भंग भी होता रहे तो भी व्रतहीनों की अपेक्षा तो उत्तमता ही रहती है।
सत्य का व्रत लेने की आवश्यकता ही इसलिए है कि हमारा आज का जीवन अधिकाँश में असत्य ग्रस्त है। असत्य एक रोग है, व्रत एक दवा है। व्रत रूपी औषधि सेवन करते रहने से धीरे-धीरे सत्य रूपी निरोगता प्राप्त होती है पूर्ण तो एक परमात्मा है। मनुष्य सभी अपूर्ण है। इस अपूर्णता को दूर करके पूर्णता को प्राप्त करने का जो प्रयत्न है उसे ही साधन या व्रत कहते हैं। किसी बात का व्रत लेने से, निश्चय करने से, ही तो उस ओर प्रगति होती है। फेल हो जाने के भय से स्कूल में भर्ती न होना कोई बुद्धिमानी नहीं है। इसी प्रकार “व्रत टूट गया तो कैसा होगा?” इस भय से व्रत ही न लेना कोई उचित कारण नहीं है।
हमारा बाह्य एवं भीतरी जीवन सच्चाई से भरा हुआ हो, उसमें प्रेम, पवित्रता, निष्कपटता, ईमानदारी, उदारता, त्याग, पुरुषार्थ, सरलता और सादगी की प्रधानता रहे यह सत्य नारायण का पथ है। यही समस्त सुख शान्तियों का मूल उद्गम है। इस पथ पर चलने का संकल्प करने का ही दूसरा नाम सत्य नारायण व्रत है। यह व्रत धार्मिक परम्पराओं के अनुसार जब किया जाता है तो और भी उत्तम होता है। सत्य नारायण व्रत कथा का यही रहस्य है।