Magazine - Year 1950 - Version 2
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Language: HINDI
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संसार में सर्वत्र ईश्वर ही है।
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(श्री स्वामी शिवानन्दजी सरस्वती)
संसार में जो कुछ भी है सभी में ईश्वर का वास है, वह भले ही चर हो या अचर। ईश्वर का न कहीं अन्त है और न आदि। वह सर्वव्यापी, अन्तर्यामी, सर्वशक्तिमान है, वह अन्तरात्मा द्वारा नियंत्रण करता है। अमरत्व, स्वतंत्रता पूर्णता, शान्ति, स्वर्ग प्रेम आदि शब्द ईश्वर के पर्याय हैं।
जीवन की सफलता का प्रधान रूप स्वधर्म का निष्काम प्रतिपालन है। निष्काम कर्म से हृदय शुद्ध होता है। मन को एकाग्र करने के लिए उपासना करनी होगी और अन्त में निष्काम कर्म द्वारा मोक्ष मिलेगा।
शुकदेवजी ने विवाह नहीं किया और घर बार छोड़कर जंगलों में विचरते रहे। व्यास से उनका वियोग सहा न गया और उनकी तलाश में बाहर निकले। जिस समय व्यासजी एक सरोवर के तट से जा रहे थे तो उन्होंने देखा कि जो अप्सराएँ सरोवर में नंगी स्नान कर रही थीं बाहर निकल आयीं और कपड़े पहन लिये। उन्हें शर्माते देखकर व्यासजी को आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा-जब मेरा जवान लड़का इधर से गया तो तुम लोगों को शर्म न आयी लेकिन मुझ बूढ़े को देखकर तुम लोग शर्मा गयीं। अप्सराओं ने उत्तर दिया-’आपके लड़के को स्त्री पुरुष की विभिन्नता का ज्ञान नहीं है लेकिन आपको है।’
संन्यासी भाव शुकदेव की भाँति होना चाहिए, न कि आज कल के संन्यासियों की तरह, जो बगैर किसी आन्तरिक सुधार के ही संन्यासी का रूप धारण कर लेते हैं। ‘मन ना रंगाये जोगी कपड़ा रंगायें” यह तो पाखण्ड है।
यदि प्राण स्थिर हो जाए तो मन भी स्थिर हो जाता है। यदि दृष्टि स्थिर है तो मन भी स्थिर हो जाता है। यदि वीर्य स्थिर है तो मन भी स्थिर है। इसलिये प्राण दृष्टि और वीर्य संयमित रखे। धारणा और ध्यान के अभ्यास से मन की चंचलता दूर होती है।
ईश्वर की प्राप्ति की प्रबल अभिलाषा ही भक्ति है। ईश्वर में अपने को लीन कर देना चाहिए। शरीर रहते विदेह बन जाना चाहिये।
यह शरीर बनता बिगड़ता रहता है। यह पाँच तत्वों द्वारा निर्मित है, इसके आदि-अन्त दोनों हैं। विशुद्ध आत्मा न आता है और न जाता है, न बनता है और न बिगड़ता है। आत्म-ज्ञान पाने की चेष्टा करनी चाहिये। कर्म, पीड़ा आदि उसे स्पर्श भी नहीं कर पाते। कर्म से आत्मा का सम्बन्ध नहीं है। उस पर कुछ प्रभाव नहीं करता, उसे कोई उत्पन्न नहीं करता और न उसमें सुधार ही ला सकता है। आत्म-ज्ञान से अविद्या का नाश होता है। साँसारिक आघातों का मूल स्रोत अविद्या है। प्राचीन कवियों में आत्मज्ञान था। अज्ञान और अविद्या दूर करने का एक मात्र साधन आत्म-ज्ञान है।
ब्रह्म जानने वाला स्वयं भी ब्रह्म ही है। जीवित रहकर ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर लेने से वह जीव मुक्त हो जाता है। ब्रह्म-ज्ञान ही मोक्ष का साधन है।
वासना के विनाश से मनोनाश हो जाता है और जब मन का विनाश हो जाता है तो संस्कारों का विनाश भी हो जाता है तभी जीवन मुक्ति मिल जाती है। ईश्वर में अनन्य भक्ति और साधुओं की संगति से परमानन्द मिलता है।
यह आत्मा या बुद्धि स्वप्रकाशित है। वही कान, वही आँख, वही जिह्वा, मन तथा प्राण है। प्राण, इन्द्रिय, मन आदि सभी उसी से शक्ति पाते हैं। वही अन्तर्यामी है।
सूर्य उसी से चमकता है, सागर उसी से सीमित रहता है, इन्द्र, वायु, यम तथा अन्य देवता उसी की आज्ञा से अपने कर्तव्य करते हैं, उसी की आज्ञा से अग्नि जलता है तथा मन, प्राण और इन्द्रियाँ कार्य करती हैं।
विश्व नियन्ता वही है, वह घट-घट व्यापी है। विश्व का सहारा वही है, वही पालक है वही संहारक है। वह शासक है। वही शान्ति और अमरत्व प्रदान करता है। वही ओज, तेज, बल, ऐश्वर्य यश, आरोग्य, दीर्घायु, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति, श्रेय, विद्या, मोक्ष आदि का दाता है।
भगवान की शक्ति ‘काल’ है। वह स्वयं कालातीत है। अन्य सभी जीव और वस्तु नश्वर हैं। भगवान अविनाशी हैं।
यदि समय से वृत्तियाँ लोप हो जायें तो ‘काल’ का भी लोप हो जायेगा। भगवान की अचिन्तय शक्ति माया का प्रादुर्भाव ‘मन’ है। मूल-प्रकृति अव्यक्त, प्रधान प्रकृति, आदि शक्ति, महाशक्ति, पराशक्ति आदि माया, महामाया आदि भगवान की लीला के लिये विभिन्न रूप धारण करती है। माया विचित्र है। उससे भी विचित्र स्वयं ईश्वर और उसकी लीला है। जो तन, मन, धन से ईश्वर की भक्ति करता है वही अमरत्व फल पा सकता है।
सत्व ज्ञान-शक्ति है। राजस क्रिया-शक्ति है। तामस द्रव्य-शक्ति है। मन और पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ सत्व से उत्पन्न होती हैं। प्राण और पाँचों कर्मेन्द्रियाँ राजस से उत्पन्न होती हैं पंच भूतों की उत्पत्ति तामस से होती है। आकाश वायु जल पृथ्वी और अग्नि पंच भूत है।
दिक् श्रोत्रेन्द्रिय के देवता हैं, वायु स्पर्श के, सूर्य दृष्टि के, वरुण स्वाद के, अश्विनी कुमार घ्राण के अग्नि वाक् के, इन्द्रिय पाणि के, उपेन्द्र अथवा विष्णु पाद के, यम गुदा के, और प्रजापति उपस्थेन्द्रिय के।
ईश्वर का अवतार मनुष्य की उन्नति के लिये होता है। जब कभी संसार में अधर्म की, पापाचार की वृद्धि होती है तो ईश्वर धर्म की संस्थापना के लिये विश्व पर अवतरित होते हैं और जब अवतार धारण कर पृथ्वी पर आते हैं मनुष्य का रूप धारण कर आते हैं। अवतार कई प्रकार के होते हैं, जैसे-पूर्णावतार, अंशावतार आवेशावतार और लीलावतार।
कर्मयोग रूपी वृक्ष का बीज श्रद्धा है जड़ विश्वास है। भागवतों की सेवा जल-वृष्टि है, आत्म-समर्पण फूल है और भगवत् मिलन ही उसका फल है।