Magazine - Year 1952 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
सत्य की साधना
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री अगर चन्द, नाहटा)
मनुष्य में किसी भी गुण व दोष की प्रकर्षता होती है तो उसके अनुसंगिक इतर गुण दोष स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए ‘एक ही साधे, सब सधे’ उक्ति कही गई है।
वैसे प्रत्येक मनुष्य बहुत से गुण व दोषों का पिटारा है। किसी भी व्यक्ति में सभी गुण ही गुण हो या दोष ही दोष हों, गुण कुछ भी न हों ऐसा प्रायः नहीं होता, पर एक को प्रधानता देने से दूसरा दब जाता है, महत्वहीन हो जाता है। इसीलिए प्रत्येक मानव को कम से कम एक गुण को तो बहुत अच्छी मात्रा में पनपाने का लक्ष्य रखना व प्रयत्न करना चाहिए।
गुण चाहे एक ही हो व अच्छी व अधिक मात्रा में हो तो उसका प्रभाव बहुत पड़ता है और उसके कारण दूसरे, अनेक दूषण दबे हुए रहते हैं या लोग उनको दस गुना कर लेते हैं। इसी प्रकार कोई एक भी दुर्गुण जब जीवन में जोर पकड़ लेता है तो उसके अन्य बहुत से गुण दब जाते हैं—महत्वहीन व हृतप्रभाव हो जाते हैं अर्थात् जिस किसी एक भी गुण व दोष का जीवन में विशिष्ट स्थान हो जाता है तो वही उभरा हुआ सहज दृष्टिगोचर होता है दूसरे छोटे मोटे गुण-दोष तिरोभूत से पड़े रहते हैं। लोग विशिष्ट गुण-दोष को प्रधानता देकर उनसे अपना व्यवहार चलाते हैं। एक गुण के पीछे कई दोष निभा लिए जाते हैं।
प्रत्यक्ष जीवन में हम इस सत्य का अनुभव पद-पद पर करते ही रहते हैं। एक ही परिवार के विभिन्न व्यक्तियों में किसी में कोई गुण अच्छे परिणाम में होता है तो किसी में कोई अवगुण वैसे ही उत्कृष्ट मात्रा में होता है। ऐसी परिस्थिति में साधारणतया हम गुण को प्रधानता देते हैं, दोषों को दरगुजर कर लिया जाता है। जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग देखने को मिलते हैं कि एक कर्मचारी बड़ा तुनक मिज़ाज का होता है पर ईमानदार या किसी कार्य में विशेष दक्ष होता है तो उसके गुण से लाभ उठाने के लिए उसके स्वभाव व व्यक्तिगत दोष निभा लिए जाते हैं। वैसे ही अन्य बातों में तो एक व्यक्ति बहुत ठीक हो पर कोई स्वभाव व चरित्रगत दोष उसमें पड़ा हो तो उस व्यक्ति को अलग कर देना पड़ता है। हम प्राय कहा करते हैं कि अमुक बातें ठीक होने से क्या? यह अवगुण जो बड़ा लगा हुआ है। इससे कभी बड़ा नुकसान होना सम्भव है अतः ऐसे दोष पहले से ही दूर कर दिया जाना उचित है।
कुछ वर्ष पूर्व शान्ति निकेतन के आचार्य, सन्त साहित्य के विशिष्ट अनुभवी श्री क्षिति मोहन सेन से मिलने पर आध्यात्मिक साधना व आत्मानुभव प्राप्ति का उपाय पूछने पर आपने कहा था कि मनुष्य आत्मानुभव तथा आत्मसाक्षात्कार इसीलिए नहीं कर पाता कि वह जितनी बातें करता है वैसी साधना नहीं करता। अन्यथा किसी भी एक धर्म की साधना अच्छे रूप से की जाय तो बाकी के गुण भी स्वयं भी विकसित होते रहेंगे व दोष क्रमशः क्षीण होते चले जायेंगे। ‘एक ही साधे सब सधे’ आप जैन हैं अहिंसा जैन धर्म का प्रधान उपदेश है उसी की ठीक से साधना करिये। जीवन में प्रतिक्षण होने वाली हिंसा भावना व कार्य को टटोलकर उसे दूर हटाइये और विश्व प्रेम, प्राणी मात्र के साथ आत्मीय भाव की अभिवृद्धि, अहिंसा तत्व, भावों की निर्मलता करते रहिये, आप इस एक ही गुण की साधना में जीवन लगा देंगे तो आपकी आत्मा उत्तरोत्तर आगे बढ़ती जायगी। आगे का रास्ता स्वयं दिखाई देने लगेगा। एक गुण की प्रकर्षता से अन्य गुण भी खींचे हुए चले आयेंगे अन्यथा बहुत से साधन बतलाने पर भी उसे जीवन में नहीं उतारेंगे तो कोई लाभ नहीं होने वाला है। ऐसी ही भावना के कुछ शब्द कह कर वे अपने कार्य में लग गये। विचार करने पर उन्होंने इन थोड़े से शब्दों में ही बहुत बड़ी बात कह दी प्रतीत हुई कि उसके लिए अपनी तैयारी कहाँ?
इस बार उसी सत्य को पुनः एक साधु से सुन कर इस लेख के लिखने का विचार हो आया। स्वयं उसकी साधना न करने पर भी दूसरे जिज्ञासु व साधक तो उस साधना से लाभ उठावें। इसी अन्तः प्रेरणा से यहाँ उन साधु महात्मा से इस सम्बन्ध में जो बातचीत हुई नीचे उद्धृत की जाती हैं।
इन महात्मा का नाम लक्ष्मणगिरि है। इनकी आयु इस समय 64 वर्ष की है। 40 वर्ष पूर्व वे साधु हो गये थे। उनके कहने से विदित हुआ कि वे पढ़े लिखे तो अधिक नहीं पर बहुत से साधुओं के संपर्क में आने से अनुभव ठीक है। अभी वे आसामवर्ती बदरपुर के शिव मन्दिर के सेवायत हैं। सिलचर की शिवबाड़ी की भी व्यवस्था उनके हाथ में आई है उसी प्रसंग से वे सिलचर आये थे वापिस बदरपुर जाते सिलचर स्टेशन पर गाड़ी में उनसे मिलना हुआ। वे बदरपुर जा रहे थे और मैं गौहाटी जा रहा था। पहले दार्शनिक विषयों पर बातचीत प्रारम्भ हुई। फिर आपने प्राणीमात्र की दया पर विशेष महत्व देते हुए परोपकार-सेवा को ही अपना जीवनवृत्त बतलाया। अन्त में आत्म साक्षात्कार के सम्बन्ध में पूछने पर आपने कहा कि साधक के लिए यह बहुत सुगम है वैसे साधारण लोगों के लिये दुर्गम है ही। मैंने उसका सरल उपाय पूछा तो आपने कहा कि सत्य की साधना कीजिए। इससे भूमिका यानी चित्त शुद्धि हो जायगी व वृत्त उपवास के द्वारा शरीर शुद्धि हो जायगी फिर रास्ता स्वयं सूझ पड़ेगा। इस पर भी आगे का मार्ग जानना हो तो इसकी साधना कर लेने के बाद मेरे से पत्र व्यवहार करिये या स्वयं मिलियेगा। मैंने पीछे की बात पहले ही पूछ लेने की उत्सुकता दिखाई तो आपने पुनः पहली बात को दुहराया और सत्य की साधना पर ही जोर दिया। पीछे की बात पीछे ही होगी।
उन्होंने उस सत्य साधना करने की विधि इस प्रकार बतलाई कि पहले महीने में दो दिन किसी पर्व तिथि को ही इसकी साधना शुरू करें। उस दिन व्रत उपवास किया जाय और दृढ़ निश्चय किया जाय कि आज किसी भी प्रकार का तनिक भी झूठ नहीं बोलूँगा। उसी निश्चय को ध्यान में रखते हुए सचेत रहकर व्यवहार करिये।
यदि उसके विपरीत झूठ शब्द मुँह से निकल जाय तो उसी समय उसका पश्चाताप करिये। सन्ध्या काल एकान्त में दिन भर की चर्या को ध्यान से विचार कीजिए, प्रतिज्ञा में कहीं गड़बड़ी तो नहीं हुई है? यदि कुछ हो गई ध्यान में आवे तो उसके लिए कठिन दण्ड लीजिए। प्रिय से प्रिय खाद्य पदार्थ आदि को छोड़ दीजिए या 2-4 उपवास मुक्ति के लिये कर डालिये इससे झूठ छटती या मन्द होती चली जायगी। विचारपूर्वक अन्तः निरीक्षण करने पर जिस साधारण असत्य की ओर आपका लक्ष्य नहीं जाता वह भी सामने आ जायगा और उससे छुटकारा पाने की व्याकुलता बढ़ेगी। सत्य के प्रति निष्ठा और झूठ को छोड़ने की दृढ़ प्रतिज्ञा एक ही बात है—ये दोनों साथ-साथ होते हैं। साधना में जो विघ्न बाधा आवे, धैर्य से सहिये, विचलित न होइये।
जब महीने में दो दिन आपकी सत्य साधना ठीक से हो रही है अनुभव हो जाय तो फिर दो दिन और बढ़ाइये। वह भी ठीक से निभ जाय तो महीने में छः दिन कर दीजिये। फिर तो सत्य आपका स्वभाव ही बन जायगा। झूठ अपने आप भाग जायगा। कमजोरियाँ नष्ट हो जायेंगी। तेज प्रकटेगा।
सत्य के लाभ प्रत्यक्ष व सर्वविदित हैं। इसकी महिमा को सब जानते हैं पर जीवन में उतारते नहीं तभी हम धर्म से कोसों दूर हैं -तेजहीन हैं।
सत्य को नारायण मान कर ही “सत्यनारायण व्रत” को महत्व दिया गया है। साधना करने से इसका प्रभाव स्वयं विदित होगा व आगे का मार्ग चित्तशुद्धि व निर्मलता बढ़ने से स्वयं दीखने लगेगा।
उनके चले जाने पर मैं इस पर काफी देर तक विचार करता रहा। मुझे मानों हजारों ग्रन्थों का सार ही मिल गया। महात्मा गाँधी ने अपने जीवन को सत्य प्रयोग स्वरूप बतलाया है व सत्य को ही ईश्वर कहा है। महर्षियों ने भी ‘सत्य ही परमं तपः, सत्यमेव जयते’ सत्यं हि परम तप है इत्यादि कहा है। सत्य की साधना जीवन को ऊंचा उठाती है परमेश्वर बनाती है। अन्त में महात्मा गाँधी के सत्य सम्बन्धी विचार गाँधी विचार दोहन से उद्धृत किये जाते हैं जिनसे सत्य महत्व-सत्य क्या है? संक्षेप में विदित हो जाता है।
1—”सत्य का अर्थ है परमेश्वर-यह सत्य का ‘पर’ अथवा ऊंचा अर्थ हुआ ऊपर अथवा साधारण अर्थ में सत्य के माने हैं सत्य विचार सत्य वाणी और सत्य कर्म।
2—जो सत्य है, दूर का हिसाब लगाने से, हितकर अथवा भला है। इसलिए सत्य अथवा सत् का भला ही होता है, और जो विचार वाणी और कर्म सत्य है वही सद्विचार-सद्वाणी और सत्कर्म है।
3—जो विचार हमारी राग-द्वेषहीन श्रद्धा और भक्ति युक्त तथा निष्पक्ष बुद्धि को सदैव के लिए अथवा जिन परिस्थितियों तक हमारी दृष्टि पहुँच सकती है उनमें अधिक से अधिक सफलता के लिए उचित और न्याय प्रतीत हो वही हमारे लिए सद्विचार है।
4—जो वाणी कर्त्तव्य रूप हो जाने पर हमारे ज्ञान या जानकारी को सही-सही प्रकट करती है और उसमें ऐसी कमी वेशी करने का यत्न नहीं करती है कि जिससे अन्यथा अभिप्राय भासित हो, वह सत्य वाणी है।
5—विचार में जो सत्य प्रतीत हो उसके विवेकपूर्वक आचरण का नाम ही सत्य कर्म है।
6—चाहे यह कहिये कि पर सत्य को जिसे हमने परमेश्वर कहा है, जानने के लिये यह अपर सत्य साधन है, अथवा यह कहिए कि सत्य विचार वाणी और कर्म की-अपर सत्य पालन की पूर्ण सिद्धि का ही नाम- परमेश्वर का साक्षात्कार है, साधक के लिए दोनों में कोई भेद नहीं है।”
आज हमारे जीवन में पद-पद पर असत्य प्रतिष्ठित है। कहते हैं कुछ, विचार कुछ हैं, करते कुछ हैं इसी से जीवन पतन की ओर प्रवाहित है इनकी एकता होना आवश्यक है। असत्य की रक्षा के लिये हजारों झूठ अपनाने पड़ते हैं, अतः सत्य को ही अपनाइए इससे आत्मा का उत्थान निश्चित है।