Magazine - Year 1953 - Version 2
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Language: HINDI
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धावक का मनुहार (Kavita)
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मैं प्रतीची दूर युग की अरुणिमा लेकर चला हूँ।
छिप गये हँसते सितारे क्षितिज की इस लालिमा में,
छिप गया हँसता दिवाकर गगन की इस कालिमा में,
पी गई अतृप्त धरती ओस के मनुहार कण वे,
बीतते जाते अनेकों प्राण मय संचार क्षण ये,
क्रूर बन्धन मय जगत को प्राण मय कुछ दे चला हूँ।
मैं प्रतीची दूर युग की अरुणिमा लेकर चला हूँ॥
वेदना हँसती रही कुछ क्षण उसे सहता रहा मैं,
तार वीणा तोड़कर भी कुछ अरे कहता रहा मैं,
इस जगत के नियम से भी शेष कुछ क्या रह सका है,
वेदना अपने हृदय की कौन किससे कह सका है,
वेदना का भार निज उर में छिपा कर ले चला हूँ।
मैं प्रतीची दूर युग की अरुणिमा लेकर चला हूँ॥
अट्ठासी रात्रि में संसार जब निज रूप लिखता,
मैं उसी क्षण विश्व के उस रूप की छाया निरखता,
सोचता, संसार को विभु ने अरे क्योंकर सजाया,
जब यहाँ पर शेष अब तक कुछ कभी रहने न पाया,
बस इसलिए ही मैं यहाँ निज रूप को देकर चला हूँ।
मैं प्रतीची दूर युग की अरुणिमा लेकर चला हूँ॥
प्राप्त होता स्वप्न की दुनिया सजाकर मनुज जगता,
बीतता हर क्षण अरे इस विश्व की कुछ बात कहता,
स्वप्न मय संसार में यह स्वप्न तूने क्यों सजाया,
क्या किसी का स्वप्न अब तक बाग बन कर लहलहाया,
इसलिये मैं अध खिला ही स्वप्न बन लेकर चला हूँ।
मैं प्रतीची दूर युग की अरुणिमा लेकर चला हूँ॥
*समाप्त*
(श्री राधेश्याम जैसवाल)
(श्री राधेश्याम जैसवाल)