Magazine - Year 1953 - Version 2
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Language: HINDI
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उपेक्षा (Kavita)
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मुझ को भी है परवाह नहीं!
जग में परवाह किसे, मुझको जग की परवाह नहीं॥
जग से मैं तोड़ चुका नाता, उसका भी इसमें क्या जाता।
अपने ही सुख की सीमा तक, सीमित रहता मैं सुख पाता॥ मैं करूं याचना क्यों सुख की, जब उसकी मुझको चाह नहीं- मुझको भी है परवाह नहीं॥ कुछ-कुछ मैंने भी स्वाद लिया, इन सुख की तरल तरंगों का। कुछ-कुछ आभास मिला मुझको, नव प्रेम प्रसंग उमंगों का॥ जग की अस्थिरता में लय है, यह बहता सदा प्रवाह नहीं- मुझको भी है परवाह नहीं॥ है काम नहीं आशा तेरा, आह्वान आज निराशा का।
जल ही जब यहाँ असम्भव है, फिर आश्रय कहाँ पिपासा का॥ जिस पथ में भूल-भुलैया हैं, मैं चलता उसकी राह नहीं- मुझको भी है परवाह नहीं॥
अपने ही सुख की सीमा तक, सीमित रहता मैं सुख पाता॥ मैं करूं याचना क्यों सुख की, जब उसकी मुझको चाह नहीं- मुझको भी है परवाह नहीं॥ कुछ-कुछ मैंने भी स्वाद लिया, इन सुख की तरल तरंगों का। कुछ-कुछ आभास मिला मुझको, नव प्रेम प्रसंग उमंगों का॥ जग की अस्थिरता में लय है, यह बहता सदा प्रवाह नहीं- मुझको भी है परवाह नहीं॥ है काम नहीं आशा तेरा, आह्वान आज निराशा का।
जल ही जब यहाँ असम्भव है, फिर आश्रय कहाँ पिपासा का॥ जिस पथ में भूल-भुलैया हैं, मैं चलता उसकी राह नहीं- मुझको भी है परवाह नहीं॥