Magazine - Year 1954 - Version 2
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Language: HINDI
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वेदों के स्वर्ण सूत्र
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कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
यजु. 40/2
मनुष्य इस संसार में कर्म करता हुआ ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करे।
आरोहणमाक्रमणं जीवतो जीवतो ऽयनम्।,
अथ. 5/307
उन्नत होना और आगे बढ़ना प्रत्येक जीव का धर्म है।
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृतयुमुपाध्नत।
अथ. 11/5/19
ब्रह्मचर्य रूपी तपोबल से ही विद्वान लोगों न मृत्यु को जीता है।
आयुर्यज्ञेन कल्पताम्, प्राणों यज्ञेन कल्पताम्।
यजु. 09/29
जीवन को यज्ञ से समर्थ बनाओ, तथा प्राणों को पुष्ट करो।
जिव्हाया अग्रे मधु में जिव्हा मूल मधूलकम्।
अथ. 34/12
मेरी जिव्हा के अग्र भाग में तथा मूल में मधुरता हो।
शिवा नः संख्या सन्तु भात्रा।
ऋग. 4/10/8
भाइयों से मित्रता कल्याणकारिणी होती है।
ऋतस्य पथा प्रेत।
यजु. 7/45
सत्य के मार्ग पर चलो।
कुण्वन्तो विश्वमार्थम्।
ऋग. 9/63/5
सारे संसार को श्रेष्ठ बनाओ।
मा वः स्तेन ईशत माघशंसः।
यजु. 1/1
चुप से धन लूटने वाला और पाप फैलाने वाला तुम पर हुकूमत न करे।
मधुमती वाचमुदेयम्।
अथ. 16/2/2
मैं मीठी वाणी बोलूँ।
तन्में मनः शिव संकल्पमस्तु।
यजु. 64/1
मेरा मन उत्तम संकल्पों वाला हो।
आकूतिः सत्या मनसो में अस्तु।
अथ. 5/3/4
मेरे मन का विचार सच्चा ही हो।
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वर्ष-14 संपादक- श्रीराम शर्मा, आचार्य अंक-4
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