Magazine - Year 1954 - Version 2
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Language: HINDI
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यह अलभ्य अवसर चूका नहीं जाना चाहिए।
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इस वर्ष का कुम्भ पर्व असाधारण महत्व का है। यों तो पूर्ण कुम्भ बारह वर्ष पीछे आता रहता है, पर इस वर्ष जैसे पुण्य योग इस अवसर पर एक साथ एकत्रित हुए हैं जैसे सुयोग सौ वर्ष बाद आते हैं। भारतीय धर्म में प्रत्येक पुण्य पर्व पर कुछ उत्तम कर्म करने का विधान है। इन विधानों को प्रायः सभी धार्मिक श्रद्धा वाले व्यक्ति प्रसन्नता पूर्वक अपनाते हैं। हमें पता है कि इस कुम्भ पर्व पर अनेकों आध्यात्मिक आत्माएं अनेक प्रकार के साधन, तप, दान आदि के आयोजन कर रहे हैं। उचित अवसर पर किया हुआ थोड़ा कार्य भी साधारण अवसर की अपेक्षा कहीं अधिक फलप्रद होता है। जो बात नवरात्रि साधना के विशेष अवसर के संबंध में लागू होती है वही बात और भी जोरदार कारणों के साथ कुम्भ वर्ष के संबंध में है।
अनेक पर्वों पर अनेक प्रकार के शुभ कार्य भिन्न-भिन्न रीति से किये जाते हैं। कुम्भ पर्व का प्रधान पुण्य ज्ञान दान है। त्रिवेणी तट पर दूर-दूर से लोग केवल इसी उद्देश्य से आते हैं। अनेकों सन्त महात्मा जो सदा गंगा के उद्गम केन्द्र में हिमालय को अपना घर बनाये हुए हैं, जनता के कल्याण के लिये किसी गुप्त प्रकट देश में प्रयोग करते हैं और किसी न किसी प्रकार ज्ञान दान का पुण्य कार्य करके अपने कर्त्तव्य को पूर्ण करते हैं। देश के कौने-कौने से प्रायः सभी प्रमुख अध्यात्म परायण व्यक्ति यहाँ आते हैं और उनका उद्देश्य सद्ज्ञान का आदान-प्रदान नहीं होता। यों त्रिवेणी स्नान भी होता ही है। पर कुम्भ का मूल हेतु स्नान नहीं, ‘ज्ञान दान’ है।
जिस प्रकार सोमवती अमावस्या को ग्रहण के दिन प्रायः सभी धार्मिक मनुष्य स्नान करते हैं- रोग आदि विशेष स्थितियों को छोड़कर ऐसे अवसरों का स्नान आवश्यक मानते हैं, उसी प्रकार कुम्भ पर्व पर आत्मा को कल्याण मार्ग पर अग्रसर करने वाले ज्ञान का आदान-प्रदान करना भी आवश्यक माना जाता है। इस अवसर पर स्वाध्याय, सत्संग, प्रवचन, कथा श्रवण आदि के आयोजन सर्वत्र ही होते हैं। लोग अपनी-अपनी आर्थिक स्थिति के अनुकूल कुछ न कुछ दान पुण्य भी करते हैं। मानसिक दृष्टि से घोर कृपणों को छोड़ कर निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी कुछ न कुछ अवश्य ही देते हैं। कुछ देने से त्याग करने से ही आत्मा का उत्कर्ष होता है। यज्ञ का अर्थ परमार्थ ही है। हम कुछ छोड़ने के उपरान्त ही अधिक उत्तम वस्तु पाने की आशा कर सकते हैं।
गायत्री संस्था की ओर से देशव्यापी कुम्भ पर्व की योजना इसी दृष्टि से की गई है। प्राचीन काल में एक स्थान पर सीमित भीड़ ही हो सकती थी। शहर बड़े न थे इसलिए तीर्थों में जगह भी काफी थी। पर अब तो परिस्थितियाँ बदल गई है। रेल-मोटर आदि साधनों से धार्मिक, आध्यात्मिक सभी प्रकार के व्यक्ति विभिन्न उद्देश्यों से अवाँछनीय संख्या में प्रयाग पहुँचते हैं और मेले-ठेले के अशान्त वातावरण में वह सब नहीं हो पाता जो होना चाहिए। आर्थिक कारण भी ऐसी यात्रा में बाधक होते हैं। इसलिये गायत्री संस्था ने ‘महा अभिज्ञान’ का आयोजन स्थान-स्थान में घर-घर में किये जाने की प्रेरणा की है। हर्ष की बात है कि प्रायः सभी निष्ठावान सदस्यों ने अपने-अपने स्थानों पर अपनी स्थिति के अनुसार ज्ञान प्रसार के आयोजन किये हैं। कुछ ने तो आश्चर्यजनक उदाहरण उपस्थित किये हैं, उनके सचित्र वर्णन अगले अंक में छपेंगे।
यह अंक पहुँचने तक माघी अमावस्या तारीख 3 फरवरी का पूर्ण कुँभ समाप्त हो चुका होगा। पर उसका पुण्य पर्व सम्पूर्ण कुम्भ संक्रांति तक रहेगा। कुम्भ का सूर्य ता. 12 फरवरी को होगा और वह एक महीने ता. 14 मार्च तक चलेगा। कुम्भ योजना में भाग लेने एवं इस सम्बंध में कुछ करने का यह भी अवसर है। जैसे ठीक सूर्योदय के समय का प्रातःकाल कहते हैं पर सूर्य निकल आने के कुछ देर पीछे भी प्रभात काल ही रहता है। उसी प्रकार ता. 3 फरवरी को कुम्भ पर्व होने पर भी उसका पुण्य काल सम्पूर्ण कुम्भ संक्रान्ति तक रहेगा। इस अवधि में हमारे परिवार के सभी सदस्यों को किसी न किसी रूप में ज्ञान दान का शुभ कृत्य करके अक्षय पुण्य का संचय करना चाहिये।
दानों में ज्ञान दान सर्वश्रेष्ठ है। ज्ञान दान में भी ब्रह्म दान उत्तम कहा गया है। गायत्री ज्ञान का दान करना एक बहुत बड़ा शुभ कर्म है। जिसकी तुलना साधारण शुभकर्म, व्रत, जप, स्नान आदि से नहीं हो सकती। पिछले अंकों में हमने इसके लिए अपने सभी परिजनों से आग्रह पूर्वक जोर दिया है। कार्य की सुविधा की दृष्टि से पाँच-पाँच पैसे वाली अत्यन्त सस्ती और चित्ताकर्षक सुन्दर आठ पुस्तकें भी छपाई हैं। इस प्रकाशन का उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों तक कम से कम खर्च में गायत्री ज्ञान का विस्तार करना ही है। संस्था की ओर से सवालक्ष मनुष्यों को गायत्री ज्ञान का ब्रह्मदान करने का जो संकल्प किया गया है, उसकी पूर्ति के लिये यह छोटा साहित्य उपयुक्त माना गया है।
पिछले अंकों के अनुरोध के अनुसार अनेक व्यक्ति इन छोटे सैटों को 10-10 या 30-30 मंगाकर अपने क्षेत्र में प्रचारित कर रहे हैं। कुछ महानुभावों ने तो एक-एक हजार सैट मंगाये हैं। 240 सैटों का प्रचार करने का संकल्प कई एक निष्ठावान मनस्वी व्यक्ति कर चुके हैं। अच्छा हो कि इस दिशा में हम सभी और अधिक उत्साहपूर्वक कार्य करें ताकि सवालक्ष व्यक्तियों को ज्ञान दान करने का संकल्प पूरा हो सके। अभी इस दिशा में बहुत अधिक काम करने को शेष पड़ा हुआ है। कुम्भ पर्व समाप्त हो जाने पर भी यदि यह संकल्प पूरा न हुआ तो यह बात हम सबके लिए बड़ी खेदजनक होगी।
जिनकी निज की आर्थिक स्थिति में जितनी गुँजाइश हो, उसके अनुकूल वाले सैटों का दान करें। अपने मित्रों पर जोर देकर उन्हें ऐसे पुनीत दान के लिए तैयार करें। जिनके पास समय हो तो इन सैटों को बेचने का प्रयत्न करें। बेचने में जो समय एवं समझाने का श्रम लगाना पड़ेगा, वह भी दान से किसी भी प्रकार कम नहीं है। वैसे मुफ्त लेने देने की अपेक्षा खरीदना-बेचना अधिक उत्तम है क्योंकि इसमें लेने वाले को वस्तु का मूल्य मालूम होता है और बेचने वाले को समय एवं योग्यता खर्च करनी पड़ती है। साधारण लोग भी अपनी दुकानों पर रोज बहुत पैसे की बिक्री करते हैं। यदि कोई मनुष्य सच्चे मन से चाहे तो 10-20 रुपये की इतनी सस्ती और सुन्दर पुस्तकें अवश्य बेच सकता है। जो बच जायं उन्हें दान भी कर सकता है। गुरुओं के लिये प्राचीन काल में शिष्य लोग भिक्षा माँगकर लाते थे। अब भी यज्ञोपवीत संस्कार कराते समय ‘गुरु के लिए भिक्षा माँगने’ की लकीर-पीटनी पड़ती है। हम चाहते हैं कि गायत्री माता को गुरु मानकर उनके ज्ञान का प्रचार करने के लिए हम सभी अधिक उत्साह से कुछ कार्य करें। दूसरों को गायत्री ज्ञान से परिचित कराने के लिए अपने प्रभाव का पूरा-पूरा उपयोग करें। इस दिशा में लगाया हुआ थोड़ा सा श्रम, समय तथा धन भी बहुत महत्वपूर्ण परिणाम उत्पन्न करने वाला सिद्ध होगा।
ऐसा भी हो सकता है कि इस छोटे साहित्य के जितने प्रचार की संभावना हो उतना उधार मंगा लिया जाय। उसे बेच कर पीछे पैसे भेज सकते हैं। जो लोग दान करना चाहें वे इस समय मंगाकर उतना साहित्य अपने निकटवर्ती सत्पात्रों को दान कर दें और पीछे थोड़ा-थोड़ा करके उस पैसे को चुकाते रहें। दस से कम सैट नहीं मंगाने चाहिये। जो सज्जन कुछ अधिक साहित्य मंगावें उन्हें रेलवे पार्सल से मंगाने चाहिये, अपने पास के स्टेशन और रेलवे लाइन का नाम लिख देने से रेलवे पार्सल कम किराये में पहुँच जाता है।
यह कुम्भ पर्व अतीव महान है, ऐसा अवसर पर्व सौ वर्ष बाद आया है। आगे भी सौ वर्ष तक ऐसे कुम्भ योगों का पर्व आने वाला नहीं है। इसलिए अधिक आग्रह के साथ अपने प्रत्येक परिजन से अनुरोध है कि वह इस अवसर पर गायत्री ज्ञान का प्रसार करने का पुण्य प्रयत्न अवश्य करे। इस अवसर पर इस दिशा में अपना समय, श्रम एवं धन लगाने की कंजूसी करना निश्चय ही एक भारी भूल मानी जायेगी।