Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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उत्पादन बढ़े पर स्तर न गिरे
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(श्री अगरचन्द नाहटा)
आज विश्व में आवश्यकताएं बहुत बढ़ी हुई नजर आती हैं। पहले के लोग बहुत सीमित कपड़े, खाद्य पदार्थों और धन दौलत घर-मकान आदि में काम चला लेते थे। मोटा पहनना, मोटा खाना एवं थोड़ा कमाना संयमित जीवन बिताना ही उनका आदर्श था। प्राचीन ग्रन्थानुसार उस समय के मनुष्य प्रधानतः दो ही वस्त्र रखते थे। एक अधोवस्त्र धोती जैसा, दूसरा उत्तरीय ऊपर के शरीर को ढ़कने का। पर आज हम देखते हैं कि सात वस्त्र तो मामूली बात है। धोती के भीतर अण्डरवियर या कच्छा और ऊपर में गंजी, उसके ऊपर कमीज फिर कोट, सिर पर टोपी या पगड़ी, पाकेट में रुमाल और चद्दर, शाल, दुशाले आदि, यह साधारण वेश हुआ। विशेष में तो एक धोती के स्थान पर पेंट, सूथना, पाजामा, चूड़ीदार, हाफ पेंट, ब्रिजिस आदि कई प्रकार व अनेक डिजाइन के अधोवस्त्र, जाकिट, चोले, वस्त्रकोट जवाहर जाकेट, कई प्रकार की अँगरखी, सर्दी के मौसम में हाथ और पाँव में मोजे कान पर कनपेंच या कोई और वस्त्र, इसी तरह सिर के भी पगड़ी, साफा आदि अनेक वस्त्र, हमारी आवश्यकता में शुमार हो गये हैं। और इन वस्त्रों में पतले मोटे रेशमी सूती अनेक रंग, अनेक डिजाइन जिसकी गणना भी पूरी नहीं हो सकती। इसी प्रकार खाने वाली पदार्थों की, रहने के मकानों की, वाहनों की यावत् घर बिखरी के सामानों की इतनी अधिक आवश्यकतायें बढ़ गई हैं कि इनको बसाने में बहुत समय और द्रव्य का खर्चा हो जाता है। कहिए जब हमारी इन आवश्यकताओं की पूर्ति होना ही कठिन है। तृष्णा का अन्त ही कहाँ? नित्य नये डिजाइन व नित्य नई वस्तुएँ बनती रहती हैं और जिस को देखते हैं उसी ओर मन ललचा जाता है। आवश्यकता तो सीमित हो सकती है पर तृष्णा की सीमा नहीं होती। पहनने के कपड़ों और गहनों से अलमारियां भरी पड़ी हैं पर कोई नया डिजाइन देखा कि इसे भी ले लें, इस प्रकार की लालसाएं बढ़ती ही चली जा रही हैं।
आवश्यकता आविष्कार की जननी है। मनुष्य का मस्तिष्क विज्ञान का भण्डार है। नित्य नई खोज मानव बुद्धि का चमत्कार है। विचारों का प्रवाह प्रतिपल चलता रहता है। वह रोके नहीं रुकता है, जैसा है उससे संतोष नहीं। और चाहिए, ऐसा चाहिए, इतना चाहिये, इस तरह का चाहिए, ऐसी विचार लहरी दौड़ती है और संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। घर में धान के बोरे भरे पड़े हैं पर मन में होता है यह कितने दिनों का, अरे यह तो थोड़े दिनों में ही समाप्त हो जायगा। और संग्रह कर लिया जाय तो अच्छा हो। सच पूछिये भगवान ने प्राणी को अमर नहीं बनाया तो अच्छा ही किया। नहीं तो न मालूम मनुष्य कितना संग्रह करने लगता। उसका सारा जीवन अतृप्त ही रहता और वह संग्रह के धंधे में ही चक्कर काटता रहता। पर बलिहारी है प्रकृति की, उसने जीवन के साथ मरण का भी गठबन्धन कर दिया। प्रकृति का अटल नियम है कि जो जन्म लेगा वह अवश्य मरेगा, जो उत्पन्न होगा उसका विनाश भी होगा। इस सत्य को जानने पर कि जीवन का कोई भरोसा नहीं कि एक श्वांस आया, दूसरा न आया, प्रकृति के एक हल्के से झोंके से बड़ी से बड़ी चट्टान गिर जाती है, सुदृढ़ मकान भूमिसात् हो जाते हैं, शहर वीरान हो जाते हैं, बस्ती खड़े-खड़े उजड़ जाती हैं। यह सब हम प्रतिपल देख रहे हैं। उत्पादन प्रतिपल होता है तो विनाश भी प्रतिक्षण होता है। हम भी उसी प्रकृति के पुतले हैं। थोड़े दिनों के लिये खेल खेलने के लिये आये और जब भी घण्टा बज गया चल पड़े। यह जानते हुये भी, समझते हुए भी हम बेईमान हैं, यही तमाशा है। मरण सामने दीख रहा है पर हम अपने को अमर से समझ कर प्रवृत्ति कर रहे हैं। थोड़े से जीवन के लिये कितना छल, छिद्र, प्रपंच, अन्याय, हिंसा व द्वेष बुद्धि। हैरान है कि यह सब किसलिए क्यों?
मनुष्य नित्य नये आविष्कार करता है, उसका मस्तिष्क खाली बैठा नहीं रहता, उसका मस्तिष्क खाली बैठा नहीं रहता, उसके मन में उछल कूद मचती रहती है। उत्पादन और संग्रह इतना बढ़ता जाता है कि उससे अपने जीवन तक ही नहीं, सात पीढ़ियों या पचास पीढ़ियों तक के लोग खाते रहें। पर प्रकृति को यह बर्दाश्त नहीं। वह प्राणी की समस्त आशाओं पर पानी फेर देती है। सात पीढ़ी के लिये संग्रहीत धन और वस्तुएँ चँद क्षणों में ही नाश हो जाती हैं, उन्हें टिकाये रखने की भरपूर चेष्टा की जाती है, पर वे रह नहीं पाती। इस माया, लीला या प्रकृति का विधान कोई जान नहीं पाया, बड़े-बड़े बुद्धिवादी हार गए पर पार नहीं पाया।
आज मानव की संख्या प्रबल वेग से बढ़ रही है। संख्या के अनुपात में उत्पादन की वृद्धि हो, यह नारा लगाया जाना स्वाभाविक ही है। समस्त राष्ट्र इसी होड़ में लगे हैं कि नित्य नये अनुसंधान हों, आविष्कार हों और अधिकाधिक उत्पादन हो। मनुष्य के हाथ मशीनों के आगे बेकार साबित हो रहे हैं। इस मशीन युग ने गजब ढा दिया। सैकड़ों हजारों आदमियों का काम एक ऑटोमेटिक मशीन कर डालती है। चंद व्यक्तियों ने लाखों व्यक्तियों को बेकार बना दिया। लगता तो यह है कि इन कारखानों में इतने व्यक्तियों को काम मिल गया पर जरा सोचने पर विदित होता है कि चंद व्यक्तियों को काम मिला और हजारों बेकार हो गये। उत्पादन बढ़ाया तो उसे खपाने की धुन सवार हुई। क्योंकि कहावत है बेटी और माल चाहे कोई करोड़पति ही क्यों न हो घर में टिक नहीं सकते। एक व्यक्ति के पास लाख रुपया हो तो वह आनन्द से अपना और अपने परिवार का जीवन बिता सकता है पर तृष्णा उसे और भी उत्पादन की ओर ढकेलती है। कोई उन रुपयों को ब्याज में लगाकर बढ़ाता है कोई व्यापार कर। पर रुपया किसी घर में टिकता नहीं। उसे तिजोरी में रहने से बेचैनी हो जाती है। मन में होता है कि इसमें पड़े रहने से क्या लाभ? किसी को ब्याज में दें या व्यापार में दें तो बढ़ेगा ही। खाते-खाते तो कुँए ही सूख जाते हैं। इस तरह उत्पादन की वृद्धि की प्रक्रिया चलती ही रहती है। किसान चंद दानों से सैकड़ों हजारों मन धान के लिए जोतता है, पर खाने योग्य रखकर बेच डालता है। फिर फसल का समय आता है और हल जोतकर उत्पादन की तैयारी कर बैठता है। हर व्यक्ति चाहता है कि कुछ पैदा करे और इसी से सृष्टि चलती है।
उत्पादन करना, बढ़ाते जाना, जीव का धर्म है तो खपाते जाना, विनाश कर डालना भी उसी का या प्रकृति का धर्म है। दोनों का चक्कर चलता रहता है। कभी उत्पादन बढ़ता है तो कभी विनाश। वैसे दोनों साथ भी चलते रहते हैं।
उत्पादन किया जाय, बढ़ाया जाय यह ठीक है क्योंकि निकम्मा रहना अच्छा नहीं। ईश्वर या प्रकृति ने हाथ पाँव दिये हैं तो उन्हें चलाते रहना ही चाहिये दूसरों के उत्पादन पर हमारा जीवन टिका है तो हम भी कुछ ऐसे उत्पादन करें जिससे हमारा व दूसरों का जीवन चल सके। पूर्व काल में आवश्यकताएं कम थीं और संतोष भी रहता था। इसलिए जो थोड़ा उत्पादन करते उसी में मस्त रहते। कुछ प्रकृति भी अनुकूल थी, थोड़े प्रयत्न से अधिक उपजता था। इसलिए उन्होंने अपने बचे हुए समय का सदुपयोग अंतर्जगत की शोध में लगाया। उनके विचार में भौतिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा कराना ही जीवन की सफलता नहीं, ध्येय नहीं। बाहर जो कुछ दिखाई दे रहा है उसके भीतर भी कुछ है। पर भौतिक आवश्यकताओं में लगे रहने के कारण उसे देख नहीं पाते। अन्तर्मुखी होने के लिए बाहर से मुख मोड़ना होगा, साधना करनी होगी। उस साधना के भिन्न-भिन्न पथ, धर्म या आधार के रूप में प्रकटित हुए। बहिर्मुख वृत्ति को छोड़कर अन्तर की शोध की गई। उत्पादन तो वहाँ भी हुआ पर विभिन्न प्रकार का। भौतिक पदार्थों का उत्पादन नहीं, आत्मिक और गुणों और शक्तियों का उत्पादन हुआ। आवश्यकताएं सीमित होनी ही थी क्योंकि बिखरी हुई शक्ति को एकाग्र किये बिना साधना संभव नहीं। आवश्यकताओं की पूर्ति में फंसा हुआ मन चंचल बना हुआ रहता है, एक आवश्यकता की पूर्ति हुई तो दूसरी की इच्छा और प्रकटित हुई। उसी की अधेड़ बुन में लगे रहने से अन्तरात्मा की शोध हो नहीं सकती।
भौतिक उत्पादन को ही लें, वह आज विश्व में खूब बढ़ रहा है क्योंकि उत्पादन के बिना स्थिति संभव नहीं। जनसंख्या बढ़ रही है व आवश्यकताएं बढ़ रही हैं तो उत्पादन बढ़ना ही चाहिये इसके बिना संतुलन ठीक रह ही नहीं सकता। पर इस उत्पादन में एक बड़ी कमी यह आ गई है कि इसका स्तर दिनों दिन गिर रहा है। चीजें सस्ती और लुभावनी बनती हैं पर टिकाऊ नहीं। हमारे कागजों को ही लीजिये, पहले हाथ के बनते थे अब मशीन के देखने में साफ सुथरे हैं और दामों में सस्ते। पहले के कागजों की घुटाई का काम करना पड़ता था तो टिकाऊ भी वे जितने होते थे आज के नहीं हो सकते। करीब 800 वर्ष की कागज की प्रतियाँ तो मैंने स्वयं देखी हैं। उसका कागज और सँभाल के रखे जाने पर स्याही आज भी ऐसी स्थिति में है कि पाँच चार सौ वर्ष और भी न बिगड़े, पर मिल का कागज बढ़िया होते हुए भी थोड़े वर्षों में जीवन शेष होने लगता है। सौ पचास वर्ष पहले की छपी हुई किताबें आज किस स्थिति में है हम सबको अनुभव है। यही हाल स्याही और अन्य रंगों का है। हजार डेढ़ हजार वर्ष पुराने चित्रों का रंग और लिखी प्रतियों की स्याही आज भी चमक रही है। तब आज की स्याही और रंगों की स्थिति से तो हम परिचित ही हैं।
थोड़े वर्षों पहले तक उत्पादकों में यह भावना थी कि चीज अच्छी और टिकाऊ बने। पर आज उस भावना में बहुत अन्तर आ गया है। आज के उत्पादक यही चाहते हैं कि बनी हुई चीजें जल्दी-2 नष्ट हो जाए ताकि लोग नए उत्पादनों को खरीदते रहें दिखने में आकर्षक और सस्ते लगते हों पर वे पड़ते बहुत महंगे हैं। दो चार उदाहरण दूँ-
मेरे देखते-देखते जर्मनी की चीजें बड़ी मजबूत मानी जाती थीं और जापान की सस्ती होतीं पर टिकाऊ नहीं। इसीलिये वह कहावत प्रसिद्ध हुई है। महंगा रोये एक बार सस्ता रोये सौ बार अर्थात् जर्मनी की टिकाऊ चीजों के दाम कुछ अधिक रहने पर भी वे बहुत अधिक दिनों तक काम देंगी, इस दिनों में जापान वाली सस्ती चीजें कई बार टूट-फूट जाएंगी और टूटी हुई चीजों का मूल्य मिलाने से बहुत सस्ता भी सदा महंगा पड़ेगा।
अब घड़ियों को लीजिये। मेरे मकान में “सेंटथोमस” की घड़ी 50 वर्ष पहले की आज तक बराबर चल रही है। दो चार वर्षों में ओइलिंग भले ही करा लो, पर न तो कभी उसका पुर्जा कब्जा टूटा, न कभी खराब और बन्द हुई। पर आज की घड़ियाँ तो रोज बीमार। कभी फंनर टूट गया, कभी और कुछ खराबी हो गई। उनकी नित्य की मरम्मत बड़ी भारी पड़ती है। खैर, दाम तो सभी चीजों के बढ़ गए हैं कोई बात नहीं। पर चीज की क्वालिटी इतनी घट गई यही विचारणीय समस्या है। पहले जापान की सस्ती मानी जाने वाली दीवाल घड़ी जो पाँच 2 रुपये में खरीदी गई थी 20 वर्षों से काम दे रही है। पर अभी मैंने 70-80 रुपए की घड़ी खरीदी वह भी रोज बीमार। यही हाल हाथ घड़ियों का है। दाम तो दस-बीस गुने लगते ही हैं, पर काम दस-बीस गुना कम भी नहीं देतीं। इस तरह की स्थिति सभी चीजों की है। इधर मूल्य बढ़े पर चीजों के स्तर घटते ही घटते जा रहे हैं। लोग कहते हैं आविष्कार बढ़े हैं, उत्पादन बढ़े हैं हम आगे बढ़े हैं। पर मैं मानता हूँ रुपये का मूल्य घटा है और चीजों के दाम बढ़े हैं। अनीति बढ़ी है, नीति घटी हैं। धोखाधड़ी बढ़ी है, सजावट घटी है। दाम बढ़े है पर टिकाऊपन भी घटा है। मोल बढ़ा है पर स्तर ऊँचा नहीं हुआ या नहीं बढ़ा। हमारा दुहरा नुकसान हो रहा है। एक तरफ रुपये अधिक लगते हैं, दूसरी तरफ चीज़ घटिया और बिना टिकाऊ हाथ आती है। यह स्थिति शोभनीय नहीं कही जा सकती।
खिलौने आदि को भी लीजिये। पहले लकड़ी या लोहे के बनते थे तो टिकाऊपन था, पर आज सारी चीजें प्लास्टिक की बनने लगी हैं और उनका उत्पादन बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। बाल संवारने के कंघे 4-6 पैसे में मिलने लगे हैं जरूर, पर टिकते कितने दिन हैं ? यह भी देखिए। आज किया और दस-पन्द्रह दिन में टूट कर निकम्मा हो गया। बच्चों के खिलौने और सजावट के सामान, और घर विखरी की चीजें प्याली, डब्बी आदि हर प्रकार की चीजें प्लास्टिक की खूब बनने लग गई हैं। वे दिखने में सुन्दर, पैसे में सस्ती पर जरा सी ठेस लगी कि खत्म। नित्य नई चीजें व उनके डिजाइन निकलते रहते हैं। लोग उनसे आकर्षित होकर खरीदते रहते हैं। बिक्री बढ़ती है तो उत्पादन भी जोर-शोर से होता है। पर चीजें आज खरीदीं और चन्द दिनों में ही टूट-फूट कर नष्ट हो गई। इससे देश की कितनी बरबादी होती है इसका गंभीरता से विचार कीजिये। ऐसे उत्पादनों को बढ़ाइये मत, रोकिये जो कि देश की तबाही कर रहे हैं।
अब दवाओं को देखिए। इंजेक्शन जब चालू हुए थे, तो इतने अच्छे कामयाब थे कि एक इंजेक्शन लेते ही रोग तुरन्त काबू में आ जाता था पर आज इंजेक्शन पर इंजेक्शन लेते जाइये, थोड़ा ठीक मालूम हुआ पर फिर वही स्थिति। डाक्टरों के पास इंजेक्शन ही एक इलाज रह गया है और इससे आज बड़ी तबाही मच रही है। मध्यम स्थिति के लोग तो इससे बरबाद हो रहे हैं।
भारत में विदेशों के अनुकरण में उत्पादन बढ़ाने का खूब प्रयत्न हो रहा है और इससे देश की बहुत बड़ी उन्नति मानी जाती है पर अभी विदेशों के ही अनुपात से देखिए, हमारी उत्पादन की वस्तुओं का स्तर कितना नीचे है। बाहर की चीजों को लोग अधिकतम दाम देकर खरीदते हैं पर भारत की चीजों को सस्ते में भी खरीदना नहीं चाहते। इसका कारण स्पष्ट है कि वे उतनी कार्यकारी नहीं। हमारे यहाँ के उत्पादक प्रायः अनीति का आश्रय लेते हैं। दिखाते कुछ हैं देते कुछ हैं। बाहर कुछ है भीतर कुछ है, नकल अधिक है असल नहीं। तब कहिये उनका विश्वास हो भी कैसे? धोखा खाते हैं तो रहा-सहा विश्वास भी उठ जाता है। आज एक चीज़ निकली वह चालू नहीं हुई। जमी नहीं, इससे पहले स्टेंडर्ड गिरा दिया। एक ने नहीं किया तो दूसरों ने नकल करके, थोड़ा सस्ता करके उसे नुकसान पहुँचाया। ऐसी अनैतिक स्थिति जो बढ़ती जा रही है देश के लिए बहुत घातक है। भारत के प्राचीन गौरव के तो सर्वथा प्रतिकूल ही है। यह आध्यात्मिक और व्यवहारिक दोनों तरह का घोर पतन है, सोचें और सुधारें।