Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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धर्म-मय जीवन का तत्वज्ञान
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(श्री योगीराज अरविंद)
धर्म मनुष्य के अंदर एक ऐसी प्रेरणा, भावना, प्रवृत्ति और विधि-व्यवस्था है, जिसका लक्ष्य स्पष्ट रूप में भगवान ही है। जबकि मनुष्य की अन्य सभी प्रवृत्तियाँ परोक्ष रूप में ही उन्हें अपना लक्ष्य बनाती प्रतीत होती हैं और जगत की बाह्य एवं अपूर्व प्रतीतियों के पीछे चिरकाल भटक-भटक कर ठोकर खाने के बाद ही कहीं उन तक पहुँच पाती हैं। इस प्रकार आदर्श व्यक्ति तथा आदर्श समाज का विकास करने और मनुष्य जीवन को भगवान में ऊँचा उठा ले जाने का ठीक मार्ग यही प्रतीत होगा कि समस्त जीवन को धर्ममय बनाकर सब काम-काज धार्मिक भावना के अनुसार चलाया जाय।
विद्रोह ने पराकाष्ठा तक पहुँच कर धर्म को बिल्कुल मटियामेट कर देने का यत्न किया, निःसंदेह धर्म के विरोधियों ने यहाँ तक अभिमान किया कि हमने मनुष्य के अंदर की धार्मिक प्रवृत्ति का उन्मूलन कर दिया है। परन्तु जैसा कि हम आज देखते हैं, यह अभिमान थोथा और अज्ञानपूर्ण था, क्योंकि मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति अन्य सबसे बढ़कर उसकी एकमात्र ऐसी प्रवृत्ति है, जो नष्ट नहीं की जा सकती। भूतकाल में मानव समाज के पथ-प्रदर्शक एवं नियामक होने में धर्म की असमर्थता का सारा मूल कारण इसी बात में निहित है कि मंदिरों, गिरजों और मत-सम्प्रदायों ने दर्शन और विज्ञान के मार्गों में जबर्दस्त रुकावट डाली, एक गिओर्डानो ब्रूनो को जला दिया तथा एक गेलिलियो को बंदी बनाया और इस मामले में इन्होंने इतने सामान्य रूप में दुर्व्यवहार किया कि दर्शन और विज्ञान को अपने उचित विकास का खुला क्षेत्र प्राप्त करने के लिए आत्म-रक्षा के भाव में धर्म पर आक्रमण कर उसे नष्ट-भ्रष्ट कर देना पड़ा, और यह सब इसलिए कि मनुष्यों ने यह निश्चित धारणा बना ली थी कि धर्म, ईश्वर तथा संसार के सम्बंध में कुछ ऐसे स्थिर बौद्धिक विचारों के बंधन से बँधा हुआ है जो कसौटी पर पूरे नहीं उतर सकते। अतएव उस कसौटी को आग तथा तलवार से दबा देना आवश्यक था। धार्मिक भ्राँति के जीवित बने रहने के लिए वैज्ञानिक एवं दार्शनिक सत्य का निषेध करना आवश्यक था। हम यह भी देखते हैं कि अति संकीर्ण धार्मिक भावना असहिष्णु वैराग्यवश जीवन के आनंद और सौंदर्य को कुचल कर उसे ऊसर बनाती रही है। वे नहीं देख सके कि धार्मिक तप, धर्म का मुख्य अंग भले ही हो, पर यह उसका सार-सर्वस्व नहीं, क्योंकि प्रेम, त्याग, सज्जनता, सहिष्णुता, दयालुता भी ईश्वरीय गुण है। इतना ही नहीं, बल्कि ये अधिक दिव्य वस्तुएँ हैं और वे भूल गये या वे कभी जानते ही न थे कि पवित्रता के समान प्रेम और सौंदर्य भी ईश्वर का स्वरूप है।
राजनीति में ऐसे धर्म ने प्रायः ही राजसत्ता का पक्ष-पोषण किया है और अधिक महान राजनीतिक आदर्शों के आविर्भाव में बाधा डाली है। क्योंकि स्वयं इसका स्वरूप राजसत्ता से पोषित धर्म के अंतर को हृदयंगम नहीं कर पाता था अथवा क्योंकि यह झूठे दैवी राज्य का प्रतिनिधि बना हुआ था, यह भूलकर कि सच्चा दैवी-राज्य ईश्वर का राज्य होता है न कि पोप तथा पुरोहित पुजारियों का राज्य। इसी प्रकार इसने प्रायः कठोर तथा घिसी−पिटी समाज-व्यवस्था का समर्थन किया हैं, क्योंकि इसने समझा कि इसका अपना जीवन उन सामाजिक रूपों में बँधा हुआ है, जिनके साथ वह अपने इतिहास के दीर्घ भाग में सम्बद्ध रहा था और इसने गलती से यह परिणाम निकाल लिया कि समाज व्यवस्था में किया गया आवश्यक परिवर्तन भी धर्म का उल्लंघन होगा और इसके अस्तित्व के लिए संकट मानो मनुष्य की धार्मिक भावना जैसी शक्तिशाली आभ्यंतरिक वस्तु सामाजिक रूप के परिवर्तन सरीखी तुच्छ वस्तु या सामाजिक पुनर्व्यवस्था जैसी बाहरी वस्तु से मिटायी जा सकती हो। यह भ्राँति अपने नानारूपों में अतीत के क्रियात्मक धर्म की महान दुर्बलता रही है और साथ ही इसे बुद्धि, सौंदर्य भावना, सामाजिक एवं राजनीतिक आदर्श-यहाँ तक कि मानव की नैतिक भावना को ऐसा अवसर और बहाना मिला है कि वे उस वस्तु के विरुद्ध विद्रोह करें, जो उनकी अपनी सर्वोच्च प्रवृत्ति और नियम नीति होनी चाहिए थी। यह ठीक है कि धर्म जीवन में प्रभावपूर्ण तत्व होना चाहिए। इसे जीवन का प्रकाश और विधि-विधान होना चाहिए, परन्तु यहाँ धर्म से हमारा मतलब धर्म के उस स्वरूप से है, जो कि उसका (वस्तुतः) होना चाहिए और जो उसका अन्तरीय स्वरूप है। उसके अस्तित्व का मूल नियम है-ईश्वर की खोज एवं आध्यात्मिकता का सिद्धाँत। दूसरी ओर यह भी सच है कि धर्म जब अपने आप को किसी मत, सम्प्रदाय या मठ-मंदिर से या रूढ़ विधि-विधानों की पद्धति मात्र से एकाएक कर लेता है, तब वह सहज ही बाधक शक्ति का रूप धारण कर सकता है और मानव आत्मा के लिए यह आवश्यक हो सकता है कि वह जीवन की विविध प्रवृत्तियों पर से इसका प्रभुत्व दूर करे।
जो आध्यात्मिक पुरुष मानव जीवन को इसकी पूर्णता की ओर ले चल सकता है, उसका आदर्श रूप “ऋषि” के प्राचीन भारतीय विचार में निदर्शित है। जिस ऋषि ने मनुष्य का सा जीवन बिताते हुए अतिबौद्धिक, अतिमानसिक, आध्यात्मिक सत्य का दिव्य शब्द श्रवण किया होता है, वह इन शरीर, प्राण, मन की निरंतर सीमाओं से ऊपर उठ चुका होता है। और सभी वस्तुएँ उर्ध्व स्तर से देख सकता है, पर साथ ही उसे उनके प्रयत्न के प्रति सहानुभूति होती है और वह उनके भीतर बैठकर उन्हें भीतर से भी देख सकता है। वह पूर्णज्ञान एवं उच्चतर ज्ञान से युक्त होता है। अतः वह मानव जगत का उसी तरह पथ-प्रदर्शन कर सकता है, जिस तरह ईश्वर दिव्य रीति से इसका पथ-प्रदर्शन करते हैं, क्योंकि भगवान के समान वह भी जगत के जीवन में रहता हुआ भी उससे ऊपर होता है।