Magazine - Year 1958 - Version 2
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Language: HINDI
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विश्राम कैसे करना चाहिये।
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(श्री ‘शंकर’)
मनुष्य के जीवन धारण करने के लिये विश्राम उसी प्रकार आवश्यक है जैसे अन्न, जल, पवन आदि। इसलिये विश्राम के सम्बन्ध में लोग ज्यादा बतलाने की आवश्यकता नहीं समझते। उनका विचार है कि दिन भर परिश्रम करने के पश्चात् रात को पैर पसार कर सो रहना ही विश्राम है। यह सच है कि विश्राम का मूल अर्थ इतना ही है। पर जब हम उसके गूढ़ार्थ पर विचार करते हैं तो जान पड़ता है कि विश्राम का अर्थ केवल सो जाने या निद्रा आ जाने से ही नहीं है। वरन् नित्य प्रति के जीवन निर्वाह के लिये किये गये परिश्रम के उपरान्त शरीर और मन को उससे पूर्णतया छुट्टी देना ही विश्राम कहा जा सकता है। सेठ-साहूकारों की तरह सुबह 8-9 बजे से शाम से 7-8 बजे तक दुकान करना और उसके बाद भोजन करके 10-11 बजे सो जाना विश्राम नहीं कहलाता। निद्रा तो शरीर का स्वाभाविक धर्म है। उसके बिना मनुष्य का काम एक दो दिन से ज्यादा नहीं चल सकता। पर विश्राम का अर्थ इस समय दैनिक व्यवसाय का काम करने के बाद मनोरंजन या अन्य विधियों से शरीर और मन को पूर्णरूप से ढीला कर देना और दूसरे वातावरण में पहुँचा देना है, जिससे कार्य से उत्पन्न अवसाद जाता रहे।
इस सम्बन्ध में जानकार व्यक्ति योरोप का उदाहरण देते हैं। वहाँ बूढ़े-जवान, धनी-गरीब सभी अपने नित्य प्रति के कामों का समय निर्धारित कर लेते हैं; प्रति दिन आठ घंटा काम करने का, आठ घंटा सोने का और आठ घंटा विश्राम करने का। वे लोग सुबह उठते ही काम में लग जायेंगे और काम का निर्धारित समय पूरा होते ही वे विश्राम में लग जायेंगे। उनके सामने कैसा भी लाभ या हानि का संयोग क्यों न आ जाये, वे अपने इस कार्यक्रम में शायद ही परिवर्तन करते हैं। जिन दिनों लन्दन पर जर्मनी के वायुयानों की बम वर्षा हुआ करती थी, उन दिनों में भी वहाँ के सिनेमा घर, नाच घर और मनोरंजन के अन्य स्थान भीड़ से भरे रहते थे। फुटबाल, घुड़दौड़, क्रिकेट के मैच आदि सब बदस्तूर होते रहते थे।
इस प्रकार नियमित रूप से काम करने का परिणाम यह होगा कि विश्राम के बाद मनुष्य में नई शक्ति उत्पन्न हो जाती है और वह दूने उत्साह से काम करने लगता है। इस तरह काम करने से ज्यादा थकावट नहीं आती और नित्य का काम निर्धारित समय से पहले ही पूरा किया जा सकता है। जापानियों ने भी बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जो उन्नति की थी और उद्योग-धन्धों में क्राँति करके संसार के बाजार में अपना सिक्का जमा लिया था उसका कारण यही था कि काम और विश्राम के सम्बन्ध में उन्होंने योरोप का अनुकरण किया था।
पर हमारे यहाँ की दशा उल्टी ही है। हमारे देशवासी रात में सात-आठ घण्टा सो लेने को ही विश्राम समझते हैं। यहाँ के बड़े-बड़े शहरों के कारखानों में ‘ओवर टाइम’ की प्रथा भी खूब चालू है और लोग थोड़ी अधिक आमदनी हो जाने के ख्याल से उसे पसन्द भी करते हैं। वे कहा करते हैं कि आजकल कारखाने या दफ्तर में ज्यादा काम आ गया है इसी से ओवरटाइम करना पड़ रहा है। पर वे यह नहीं जानते कि काम का अन्त कभी नहीं होता। इसलिए काम उसी समय समाप्त समझ लेना चाहिये जब हम उसे छोड़कर छुट्टी ले लें। जो लोग इसका ध्यान न करके सदा काम की चिन्ता में ही लगे रहते हैं, उनकी दशा बड़ी बुरी होती है। सोते समय भी वे मन में यही विचारते रहते हैं कि मुझे अभी बहुत काम करना है। अगर रात न हुई तो उसे पूरा कर लेता। ऐसा आदमी भले ही निद्रा लेने की इच्छा करे पर सच्ची नींद उसे नहीं आ सकती क्योंकि दिमाग में तो काम करने का तूफान उठा रहता है। ऐसे आदमी का जीवन थोड़े ही दिनों में भार स्वरूप हो जाता है। वह लोभ में पड़कर काम तो जरूर करना चाहता है पर अधिक समय तक उसकी शक्ति कायम नहीं रहती और वह काम को ठीक ढंग से करने के बजाय बिगाड़ने लगता है। तब मालिक भी उस पर नाखुश रहने लगता है। इस प्रकार उचित विश्राम के अभाव से उसका जीवन असफल हो जाता है और निराशा के फंदे में फँस थोड़ी आयु में ही उसकी इहलीला समाप्त हो जाती है।
बहुत से लोग जो दिन-रात नाना जंजाल में फँसे रहते हैं और कभी फुर्सत नहीं पाते वे उत्साह बढ़ाने या मस्तिष्क ताजा करने के उद्देश्य से बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, चाय, शराब आदि का सेवन करने लगते हैं। शुरू में चाहे इनके कारण इन्हें कुछ स्फूर्ति का अनुभव हो, पर अन्त में बड़ी खराबी होती है। इन नशीली चीजों का व्यसन लग जाने से धन की हानि के साथ-साथ शरीर में भी दोष उत्पन्न होने लगते हैं। ये चीजें हलके जहर (स्लो पाइजन) के नाम से प्रसिद्ध हैं और इनके प्रभाव से मनुष्य शरीर अनेक प्रकार के रोगों का घर बन जाता है। बहुत से लोग तो इनके फंदे में फँसकर अकाल मृत्यु के शिकार ही बन जाते हैं।
हमारा यह आशय नहीं कि लोग विश्राम के लिए सिनेमा और अश्लील नाच-गान का सहारा लें। हमारे देश में भी पहले सायंकाल के बाद गाँवों और कस्बों में रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने, भजन-कीर्तन करने, धार्मिक नाटक आदि देखने की प्रथा थी। अब भी हमको विश्राम के लिए समयोपयोगी और लाभदायक मनोरंजन के मार्ग ढूँढ़ लेने चाहिए।