Magazine - Year 1959 - Version 2
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Language: HINDI
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व्यवहारिक अध्यात्मवाद की ओर
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अध्यात्मवाद वह तत्व है जो मनुष्य के अन्तःकरण में से भ्रष्ट आकाँक्षाओं और ओछी मान्यताओं को हटाकर विशाल हृदय, उदार दृष्टिकोण एवं दूरदर्शिता की भावना क्षेत्र में प्रतिष्ठापना करता है। यह प्रतिष्ठापना ही मानवता का, महानता का, धार्मिकता का प्रतिनिधित्व करती है। इसको ही अपनाकर मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता और मनुष्यता के आवश्यक सद्गुणों से सम्पन्न होता है। विश्वामित्र ऋषि के पास रह कर राम-लक्ष्मण जो सीख कर आये थे। संदीपन ऋषि ने गोप-बालक कृष्ण को जो सिखाया था, समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को जो शिक्षा दी थी, नानक ने गुरु गोविन्द सिंह को और अपने शिष्यों को जो सिखाया था वही आध्यात्म है। इसी आध्यात्म को सीखने के लिए प्राचीन समय में सभी बालक गुरुकुलों में भर्ती होते थे और वहाँ से महापुरुष बन कर निकलते थे। नालिन्दा और तक्षशिला के विश्व-विद्यालयों में ‘विष्णु गुप्त चाणक्य’ प्रभृति सहस्रों अध्यापक छात्रों को वह शिक्षा देते थे, जिसे प्राप्त करके शिक्षार्थी विश्व की विभूतियों में चार चाँद लगाने वाले नर रत्न बन कर निकलते थे। आज हमारा दुर्भाग्य ही है कि अज्ञानान्धकार के युग में हमारे आध्यात्मिक आदर्शों को ऐसा विकृत किया गया कि उसमें प्रभावित लाखों आदमी दुर्दशा ग्रस्त, हीन दशा में देश के लिए भार बने हुए विचरते दिखाई पड़ते हैं।
यह अनात्म है। नकली आध्यात्म है। असली आध्यात्मवाद का स्पर्श भी जिसे हो जायगा वह पारस स्पर्श करने वाले लोहे की तरह अपने को बदला हुआ पावेगा। उस आध्यात्म की छाया भी जिस पर पड़ जायगी वह कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हुए पथिक की जैसी मनोवाञ्छा पूरी करेगी। उस आध्यात्मवाद की एक बूँद भी जिसकी जीभ पर पड़ जायगी वह अपने को अमरता प्राप्त देवताओं की तरह पाप तापों से निवृत्ति स्वर्गीय भूमिका में विचरण करता हुआ अनुभव करेगा।
उसी असली आध्यात्मवाद की ओर परिजनों को उन्मुख करने के लिए व्रतधारी आन्दोलन का प्रथम कार्यक्रम है। नित्य उपासना व्रतधारी की आवश्यक शर्त है। मन लगे चाहे न लगे इसे गायत्री मंत्र की एक माला अवश्य करनी चाहिए। यज्ञ पिता की उपासना के लिए उसे कम से कम एक धूपबत्ती या एक बार घृत दीप जलाना आवश्यक है। उपासना की विधि चाहे कितने ही छोटे रूप में क्यों न की जाय पर यही सही है, यही ऋषि प्रणीत है, यही आर्य है, यही वैदिक परम्परा है यह मान्यता-हममें से हर एक को स्थापित करनी है। गायत्री ही भारतीय संस्कृति की जननी और यज्ञ ही भारतीय धर्म का पिता है यह तथ्य हम सबको भली भाँति समझ लेना है। यदि आर्य सिद्धान्त सत्य है तो यह भी सत्य है कि हमारी सनातन एवं अनादि उपासना गायत्री एवं यज्ञ पर ही आधारित है। अन्य उपासना विधियाँ भी चल सकती हैं पर वे इस शाश्वत साधना का स्थान ग्रहण नहीं कर सकतीं जिसका कि अवलम्बन लेकर हमारे ऋषि−मुनियों, देव अवतारों, से लेकर सामान्य नागरिकों को महानता प्राप्त करने की शक्ति एवं प्रेरणा प्राप्त होती रही है।
उपासना के साथ ही ‘चिन्तन’ का नम्बर आता है। जिस कसौटी पर आत्म और अनात्म, सत् और असत्, खरे और खोटे की परख हो सकती है वह विवेक ही है और यह विवेक हमारे सही चिन्तन पर निर्भर रहता है। स्वाध्याय और सत्संग की महिमा धर्मग्रन्थों में बहुत गायी गई है, इनका बहुत महात्म्य बताया गया है। इसका कारण इन दोनों के द्वारा सही चिन्तन प्राप्त होना ही है। आज स्वाध्याय के नाम पर किसी देवता या महापुरुष की कथा वृत्तान्त या एक ही पुस्तक को रोज रोज पढ़ते रहने की रूढ़ि प्रचलित है। एक पुस्तक का रोज-रोज पाठ करके लोग समझ लेते हैं, हम भी स्वाध्याय का पुण्य प्राप्त कर लेते हैं, हम भी स्वाध्याय का पुण्य प्राप्त कर लेते हैं, यह लकीर पीटना कोई उद्देश्य पूरा न करेगा, वरन् जीवन के विभिन्न प्रश्नों पर सही दृष्टिकोण देने वाली विचार शृंखला ही स्वाध्याय कहलाने की सच्ची अधिकारिणी है। व्रतधारी नित्य चिन्तन करेगा, जीवन की विभिन्न समस्याओं पर सही दृष्टिकोण में सोचेगा। इस सोचने में, चिन्तन में सहायता देने के लिए यह संस्था इसे उपयुक्त विचार सामग्री देती रहेगी। व्रतधारी के पास संस्था द्वारा प्रति सप्ताह एक अंक भेजने और नित्य ही चिन्तक के लिए कुछ ठोस सामग्री देने का कार्यक्रम बनाया गया है। चिन्तन आवश्यक है। उसके बिना आध्यात्मिक प्राप्ति हो नहीं सकती। चिन्तन का यह दूसरा कार्यक्रम भी गायत्री और यज्ञ की उपासना के समान ही आवश्यक है।
अपने गुण, कर्म, स्वभाव पर वैसी ही सूक्ष्म दृष्टि रख जाय जैसी सी.आई. डी. वाले राजद्रोहियों पर रखते हैं तो अपनी त्रुटियाँ आसानी से पकड़ी जा सकती हैं, समझ में आ सकती हैं और सुधारी जा सकती हैं। सबमें बड़ी कठिनाई एक ही है कि अपने दोष इसी तरह समझ में नहीं आते जैसे अपनी आँखों में लगा हुआ काजल अपने को दिखाई नहीं पड़ता। यदि यह पकड़ अपने हाथ में आ जाय तो समझना चाहिए कि आत्मनिर्माण की आधी समस्या हल हो गई।
डायरी लिखना व्रतधारी के लिए इसीलिए एक आवश्यक कर्तव्य निर्धारित किया गया है कि वह अपने गुण कर्म स्वभाव पर रोज ही बारीकी से निगाह रखे। जो बुराइयाँ पकड़ में आयें उन्हें नोट करें। पुलिस वाले एक रजिस्टर रखते हैं जिसका नाम “नम्बर 8” होता है। उसमें हलके के बदमाशों के नाम नोट रहते हैं। इन बदमाशों की गतिविधियों पर निगरानी रखी जाती है। ऐसी सावधानी बरतने से उन बदमाशों की पूरी तो नहीं बहुत कुछ बदमाशी सीमित हो जाती है। इसी प्रकार अपने गुण, कर्म, स्वभाव के हलके में रहने वाले बदमाशों के—कुसंस्कारों के नाम नोट रखे जाएं, उन पर निगरानी रखी जाय तो धीरे-धीरे इनकी उद्दंडता सीमित होती चलेगी। जिस प्रकार मुखिया नम्बरदार सरपंच को पुलिस वाले अपना सहयोगी बनाते हैं उन्हें प्रोत्साहन एवं सम्मान देते है वैसे ही अपने सद्गुणों की परख, प्रशंसा और प्रोत्साहन का कार्य इस डायरी के आधार पर हो सकता है। व्यापारी जैसे अपनी नगदी, माल, और जायदाद का बही खाता रखते को आचरण में व्रतधारी अपने गुण कर्म, स्वभाव का हिसाब रखता जाय तो अन्तः प्रदेश की अव्यवस्था पर काबू प्राप्त किया जा सकता है और आत्म निर्माण का कार्य बहुत सरल हो सकता है।
आत्मा को परमात्मा के रूप में परिणत करने, आत्मसाक्षात्कार, ईश्वर मिलन, ब्रह्मनिर्वाण एवं जीवन मुक्ति प्राप्त करने का एक ही मार्ग है आत्म निर्माण। व्रतधारी को इस दिशा में तेजी से अग्रसर करने की पूरी-पूरी चेष्टा इस सत्संकल्प के आधार पर की गई है।