Magazine - Year 1960 - Version 2
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Language: HINDI
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गृहस्थ और साधु जीवन का आदर्श
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(मुनि श्री अमरचन्दजी महाराज)
कबीर की आध्यात्मिक वाणी साधारण जनता को भी मिली है। वे बनारस में रह रहे थे, बनारस तो विद्वानों का धाम है। वहाँ एक सज्जन थे, जिन्होंने अपना जीवन विविध शास्त्रों के अध्ययन में व्यतीत किया था। वेदान्त की चर्चा में अपना समय लगाया था। अपना ब्रह्मचर्याश्रम समाप्त कर चुके थे और सोच रहे थे कि आगे क्या किया जाए? गृहस्थाश्रम में प्रवेश करूं या संन्यासी बनूँ? उन्होंने अनेक विद्वानों से सम्मति ली, किन्तु मन को पूरा पूरा समाधान नहीं मिला। तब उन्होंने कबीर जी से समाधान पाने की इच्छा की। वह बड़े-बड़े प्रश्नों को सुन कर सुन्दर रूप से सुलझा देते थे।
ब्रह्मचारी कबीर के पास पहुँचा। दिन का समय था और सूरज चमक रहा था और कबीर उस समय धूप से बैठे सूत सुलझा रहे थे। ब्रह्मचारी ने वहाँ पहुँच कर नमस्कार किया और कहा-मैं एक प्रश्न करने आया हूँ। वेद वेदान्त पढ़ चुका हूँ। अब मेरे समक्ष यह प्रश्न उपस्थित है कि मुझे गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए अथवा संन्यास में प्रवेश करना चाहिए?
कबीर ने कहा-अच्छा, जवाब दूँगा।
ब्रह्मचारी को बैठे बैठे बहुत देर हो गई और उसने कहा-उत्तर दीजिए। कबीर ने कहा-जरा सूत तो सुलझा लूँ।
थोड़ी देर में सूत सुलझाते-2 बड़बड़ाने लगे। पत्नी आई तो उससे कहने लगे-यह भी कोई घर है? यहाँ इतना अँधेरा है कि सूत सुलझाऊँ तो कैसे सुलझाऊँ?
पत्नी ने यह बात सुनी, वह खड़े पैरों लौट गई और दीपक जला लाई।
ब्रह्मचारी पंडित यह देख कर चकित रह गये। सोचने लगे-लोग कहते हैं कि कबीर जी बड़े तत्वज्ञ हैं किन्तु यह तो पागल मालूम होते हैं। चमकती हुई धूप में भी इन्हें अन्धकार दिखाई देता है। और दीपक जलवा रहे हैं और इनकी पत्नी भी ऐसी ही दीखती है। उसने भी तो दीपक जलाकर रख दिया। नहीं कहा कि प्रकाश हुआ है, सूर्य चमक रहा है। यहाँ अन्धकार कहाँ हैं?
वह ऐसे ही विचारों में डूबता उतरता रहा। आखिर ऊब कर उसने कहा-मेरे प्रश्न का उत्तर मिल जाना चाहिये।
कबीर बोले-उत्तर तो दे दिया और क्या चाहते हो? विस्तार में सुनना चाहते हो, देखो। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहते हो तो तुम्हें ऐसा परिवार बनाना होगा। अपने परिवार को अनुकूल बना सकते हो और स्वयं परिवार के अनुकूल बन सकते हो तो गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने में कोई हानि नहीं हैं। दिन में दीपक जलाना चाहो तो जला सको। तुम्हारी पत्नी बिना किसी तर्क वितर्क तुम्हारी आज्ञा का पालन कर सके और तुम्हारा प्रेम व स्नेह इतना महान हो कि उसके बल पर जो चाहो, वही अपने परिवार से करवा सको। पत्नी और संतति को आज्ञाकारी बना सको और जीवन में हर जगह स्नेह और क्षमता का दान प्रदान कर सको तो गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर सकते हो और यदि संन्यासी बनना है तो उसका भी आदर्श बतलाये देता हूँ।
इतना कह कर कबीरजी उस ब्रह्मचारी को लेकर एक टीले पर पहुँचे, वहाँ एक जराजीर्ण संन्यासी रहते थे। हिलना-डुलना भी उनके लिए बहुत कठिन काम था, कबीरजी ने वहाँ पहुँच कर आवाज लगाई-महाराज दर्शन देना।
महाराज नीचे आये लड़खड़ाते हुए और बड़ी कठिनाई से कबीर जी से बोले-कहिये, क्या बात है?
कबीर-कुछ नहीं, आपके दर्शन करने थे।
दर्शन देकर संन्यासी ऊपर चले गये, काँपते हुए, गिरते-पड़ते हुए। तब कबीर ने फिर आवाज लगाई और कहा-महाराज, दर्शन देना, बात कहना तो बाकी रह गया।
संन्यासी फिर नीचे आये, दम फूलने लगा। पसीने से तर हो गये और हाथ पैर लड़खड़ाने लगे। फिर भी अति संयमित मुद्रा में बोले-कहिये, क्या बात है?
कबीर-कुछ बात नहीं है। दर्शन हो गये।
संन्यासी जैसे के तैसे, प्रसन्न मुद्रा में वापिस लौट गये। उनके चेहरे पर तनिक भी क्रोध और आवेश की झलक दिखाई नहीं दी।
तब कबीर जी ने उस ब्रह्मचारी से कहा-उत्तर मिल गया? संन्यासी बनना है तो ऐसे बनना, मैंने बुलाया तो अशक्त होते हुए भी नीचे आ गये। फिर बुलाया तो फिर चले गए और केवल दर्शन देने के लिये चले आये। और शान्त भाव से लौट गये। तुमने उनके चेहरे पर क्रोध या अभिमान की एक भी रेखा देखी? कुछ भी चिन्ह नजर आया? वे जिस भाव से शान्तभाव से नीचे उतरे, उसी शान्तभाव से ऊपर चढ़ गये। तुम्हें संत बनना है तो ऐसे संत बनना।
ब्रह्मचारी पंडित ने कबीरजी को नमस्कार किया। और कहा-मैं कृतार्थ हुआ। आपने बहुत सुन्दर मार्ग प्रदर्शित किया है। मैं सोचूँगा और जो कुछ बनना है, आपके आदर्श के अनुकूल बनने का प्रयत्न करूंगा।
हमें अपने जीवन का विश्लेषण करना चाहिये। साधु बनना है तो असीम क्षमा की आवश्यकता हैं। हमें अपने विकारों से लड़ना है। क्रोध और अहंकार की एक छोटी सी लहर भी अंतस्तल में नहीं उठने देनी है। अगर उठ खड़ी हुई तो जीवन न इधर का रहेगा, न उधर का रहेगा।
गृहस्थ बनना है तो भी आदर्श बनना है। वहाँ भी क्रोध और अहंकार की लपटों से बचना है। यह लपटें उठती रहीं तो गृहस्थ की सरसता पनप नहीं सकती और जीवन नारकीय बन जाएगा।
आशय यह है कि मनुष्य किसी भी आश्रम में और किसी भी स्थिति में रहे, क्रोध और अहंकार से बचता रहे।