
इस पवित्र देह से पाप मत कीजिए।
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(श्री स्वामी रामानन्द जी)
मनुष्य का पतन शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से होता है। हमको जिस प्रकार शरीर और व्यवहार सम्बन्धी विषयों में सावधान रहने की आवश्यकता है, उसी प्रकार मानसिक दोषों से भी सतर्क रहना आवश्यक है। मानसिक दोष सूक्ष्म इन्द्रियों के विषय होने के कारण अधिक कठिनता से दूर किये जा सकते हैं। मानसिक दोष ही वास्तविक पाप हैं और उनसे प्रत्येक क्षण सावधान रहना बचे रहना परमावश्यक है।
काम क्रोध, लोभ, मोह, असन्तोष, निर्दयता, असंयम, शोक, स्पृहा, ईर्ष्या और निन्दा मनुष्य में रहने वाले ये बाहरी दोष तनिक सा अवसर पाते ही उत्तरोत्तर बढ़ने लगते हैं।
मुनि सनत्सुजात के अनुसार, “जैसे व्याध मृगों को मारने का अवसर देखता हुआ उनकी टोह में लगा रहता है, उसी प्रकार इनमें से एक-एक दोष मनुष्यों का छिद्र देखकर उस पर आक्रमण करता है।”
अपनी बहुत बड़ाई करने वाला, लोलुप, अहंकारी, क्रोधी, चंचल और आश्रित की रक्षा न करने वाले ये 6 प्रकार के मनुष्य पापी होते हैं। महान संकट के पड़ने पर भी जो निडर होकर पाप कर्मों का आचरण करते हैं। सम्भोग में ही मन रखने वाला, विषमता रखने वाले, अत्यन्त भारी दान देकर पश्चाताप करने वाला, कृपण, काम की प्रशंसा करने वाला तथा स्त्रियों के द्वेषी ये सात तथा पहले के छः ये तेरह प्रकार के मनुष्य नृशंस कहे गये हैं। इनसे सावधान रहें?
मनुष्य प्रायः तीन तरह से पाप में प्रवृत्त होता है। (1) शरीर (2) वाणी और (3) मन द्वारा। इनके भी विभिन्न रूप हो सकते हैं। विभिन्न अवस्थायें और स्तर हो सकते हैं। ये प्रत्येक मनुष्य का अधःपतन करने में समर्थ हैं। तीनों द्वार बन्द रक्खें, शरीर, मन और वाणी का उपयोग करते हुये बड़े सचेत रहें। कहीं ऐसा न हो कि आत्म संयम की शिथिलता आ जाए और पाप पथ पर चले जायं।
शरीर के पापों में से समस्त दुष्कृत्य सम्मिलित हैं। जिन्हें रखने से ईश्वर के भव्य मन्दिर रूपी पार कराने वाले पवित्र मानव शरीर को भयंकर हानि पहुँचती है। कंचन तुल्य काया में ऐसे विचार उपस्थिति हो जाते हैं जिनसे जीवित अवस्था में ही मनुष्य नर्क की यन्त्रणायें प्राप्त करता है।
हिंसा प्रथम कायिक पाप है। आप सशक्त हैं, तो हिंसा द्वारा अशक्त पर अनुचित दबाव डालकर पाप करते हैं। मद् ईर्ष्या द्वेष आदि की उत्तेजना में आकर निर्बलों को दबाना, मारपीट या हत्या करना जीवन को गहन अवसाद से भर लेना। हिंसक की आत्मा मर जाती है। उसे उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता, उसकी मुख मुद्रा से क्रोध, घृणा, द्वेष की अग्नि निकला करती है।
चोरी करना कायिक पाप है। चोरी का अर्थ भी बड़ा व्यापक है। किसी के माल को हड़पना, डकैती, रिश्वत आदि तो स्थूल रूप में चोरी है ही, पूरा पैसा पाकर अपना कार्य पूरी दिलचस्पी से न करना भी चोरी का ही एक रूप है। किसी को धन, या सहायता या वस्तु देने आश्वासन देकर, बाद में सहायता प्रदान न करना भी चोरी का एक रूप है। इसलिये ये कार्य अनिष्टकारी एवं त्याजनीय हैं।
व्यभिचार मानवता का सबसे निकृष्टतम कायिक पाप है। जो व्यक्ति व्यभिचार जैसे निंद्य-पाप-पंक में डूबते हैं, वे मानवता के लिए कलंक स्वरूप हैं। गन्दी कहानियाँ और दुर्घटनायें सुनने में आती रहती हैं। यह ऐसा पाप है, जिसमें प्रवृत्त होने से हमारी आत्मा को महान् दुःख होता है। मनुष्य आत्म उन्नति का रोगी बन जाता है, जिससे आत्मा तक की दुष्प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। पारिवारिक सुख, बाल बच्चों, पत्नि का पवित्र प्रेम, समृद्धि नष्ट हो जाती है। सर्वत्र एक काला अन्धकार मन वाणी और शरीर पर छा जाता है। परमपिता परमात्मा ने यह मनुष्य देह सुकार्य करने के लिए दी है। इसलिए इस जीवन में अच्छे कर्म ही करते रहना चाहिये जिनसे आत्मा का कल्याण हो। तथा साथ ही समाज का भी भला हो, जिससे सुख शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो सके।