Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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ज्ञान−यज्ञ का महान् अभियान
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यह सर्वविदित है कि इस संसार की सर्वोत्कृष्ट वस्तु ‘ज्ञान’ है। ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान बनता है, बन्धन से मुक्त होता है। इस ज्ञान के अभाव की जो अज्ञान की जो अज्ञान स्थिति है उसमें डूबा रहने से ही मनुष्य पतन के, पाप के, अन्धकार के गर्त में डूब कर दुर्गति को प्राप्त होता है। इसलिए शास्त्रों ने और आप्त पुरुषों ने सदा एक स्वर से ज्ञान प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहने के लिए हर व्यक्ति को आदेश दिया है। जिसकी ज्ञान में दिलचस्पी नहीं, जो विवेक का महत्व नहीं समझता, जिसे मनन और चिन्तन में अभिरुचि नहीं, जो प्रस्तुत समस्याओं पर विचार करना नहीं चाहता वह एक प्रकार से पशु ही कहा जा सकता है। ऐसे नर−पशुओं की वृद्धि से धरती का भार बढ़ता है और नाना प्रकार के लोक संकट उत्पन्न होते हैं।
विचारों की प्रेरक शक्ति
मनुष्य को किसी भी दिशा में अग्रसर करने की प्रेरणा केवल विचार शक्ति द्वारा ही मिल सकती है। पाप पूर्ण विचार जहाँ मनुष्य को पापी बनाते हैं वहाँ पुण्य के विचारों से वह धर्मात्मा, महात्मा एवं परमात्मा बन जाता है। इस हाड़−माँस की गीली मिट्टी जैसे शरीर का किसी ढाँचे में ढालना एवं पकाना एकमात्र विचार शक्ति द्वारा ही सम्भव होता है। कुछ लोग अपने आप अपने विचारों का निर्माण करते हैं कुछ लोग समीपवर्ती वातावरण से प्रभाव ग्रहण करके अपनी विचारधारा की दिशा बनाते हैं। जो भी हो, है महत्व विचार शक्ति का ही। शारीरिक दृष्टि से भी मनुष्य लगभग एक से हैं पर उनके बीच जो जमीन आसमान जैसा अन्तर दीख पड़ता है उसका कारण और कुछ नहीं केवल ज्ञान का स्तर एवं विचारों का प्रवाह ही है।
ज्ञान की महत्ता बताते हुए कितनी ही जगह ऋषियों ने उसे ईश्वर के रूप में ही प्रतिपादित किया है। गीताकार का कथन है कि—‟इस संसार में ज्ञान से बढ़कर श्रेष्ठ और कोई वस्तु नहीं है।” ज्ञान दान को ब्रह्मदान कहते हैं। प्राचीन काल में ब्राह्मण और साधु ज्ञानदान का परम पुनीत सत्कर्म निरन्तर किया करते थे इसलिए उन्हें पूजनीय श्रद्धास्पद एवं श्रेष्ठ माना जाता है। जीवन की सर्वोपरि श्रेष्ठ वस्तु का निरन्तर दान करने वालों को सम्माननीय एवं श्रेष्ठ माना भी क्यों न जाता, जन−समाज की मनोदिशा का निर्माण उन्हीं के सत्प्रयत्नों पर ही निर्भर जो था। जब तक इस देश के साधु और ब्राह्मण अपना कर्तव्य पालन ठीक प्रकार करते रहे तब तक हम अपने गुण, कर्म, स्वभाव की श्रेष्ठता के कारण विश्व के नेता भी रहे और प्रचुर भौतिक सम्पदाओं के अधिपति भी। क्यों न हों, विवेक ही तो इस विश्व की सर्वोपरि शक्ति है। बुद्धिमान को ही बलवान कहा जाता है। बुद्धिहीन का बल तो एक क्षणभंगुर दिखावा मात्र है।
भौतिक सहायता की स्वल्प सीमा
किसी दुखी व्यक्ति को अन्न, जल, वस्त्र, औषधि, पैसा आदि उपकरणों से सहायता करके कुछ समय के लिए उसके कष्ट को कम किया जा सकता है। जब उस दान का प्रभाव समाप्त हो जायेगा तो फिर वह कष्ट पुनः ज्यों का त्यों हो जायेगा। फिर इस प्रकार की सहायता धन सम्पन्न लोग ही कर सकते हैं, वे ही कुँआ, बावड़ी, प्याऊ, धर्मशाला, सदावर्त, औषधालय आदि खुलवा सकते हैं। जिनके पास धन नहीं है वे ऐसे कार्य इच्छा रहते हुए भी नहीं कर सकते। धन दान का सदा सदुपयोग ही नहीं होता। कई बार दुष्ट दुरात्मा लोग आपत्तिजनक एवं धर्मात्मा होने का ढोंग बनाकर दान ले जाते हैं और फिर उसे बुरे मार्ग में खर्च करके देने वाले को भी पाप का भागी बनाते हैं। इसलिए दान एक प्रशंसनीय सत्कर्म होते हुए भी उसमें सम्पन्नता और सदुपयोग की शर्त लगी हुई है। यह दो शर्तें पूरी न हो सकें तो धन दान की सत्प्रवृत्ति भी निष्फल हो जाती है। यदि वह सफल भी हो तो उससे किसी के कष्ट का एक सीमित अवधि तक ही निवारण हो सकता है सदा के लिए उन्मूलन नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि धन दान की उपेक्षा की जानी चाहिए। इन पंक्तियों का यह उद्देश्य नहीं। अपनी पुण्यकमाई में से एक नियत अंश हर आदमी को नियमित रूप से निकालते रहना चाहिए और उसका विवेकपूर्ण सत्कार्यों में उपयोग करने का गृहस्थ−धर्म तो सदा ही पालन करना चाहिए।
इन पंक्तियों का प्रयोजन यह है कि—ज्ञान−दान की पुनीत प्रक्रिया को हम लोग इस संसार का सर्वश्रेष्ठ परमार्थ समझ कर उसे अत्यधिक महत्व दें और इस बात का प्रयत्न करें कि विचारकता एवं विवेकशीलता की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिले। हर आदमी ज्ञान की महत्ता एवं उपयोगिता को समझे। आज जिस प्रकार शारीरिक आलस बढ़ रहा है, लोग श्रम से जी चुराने लगे हैं उसी प्रकार वे जीवन की महत्वपूर्ण समस्याओं पर गहराई से विचार करना छोड़ कर केवल प्रचलित परम्पराओं के आधार पर, दूसरों की देखा−देखी भेड़ चाल से चलते रहते हैं। यही स्थिति आज के अनुपयुक्त वातावरण के लिए उत्तरदायी है।
मनोभूमि ढालने की अग्नि
जैसे लोहे को किसी अन्य आकृति में ढालना हो तो उसे गरम करके नरम बनाना पड़ता है, तब वह पिछली आकृति को छोड़कर किसी अन्य आकृति में ढलता है। वैसे ही मनुष्य का अन्तःकरण ज्ञान और विवेक की आग में ही नरम बनता है और तभी वह अपने पूर्व पथ को छोड़कर किसी अच्छे मार्ग पर चलने को तैयार होता है। पाप और बुराई को तो लोग दूसरों की देखा−देखी एवं उनसे प्राप्त होने वाले तात्कालिक लाभों से प्रभावित होकर ही अपना लेते हैं, पर कुकर्म का लोभ त्याग कर, सत्कर्म की ओर अग्रसर होना, हीन स्थिति से ऊँचे उठकर उच्च स्थिति के लिए प्रयत्नशील होना, बिना तीव्र भावना एवं बिना उत्कृष्ट प्रेरणा के सम्भव नहीं हो सकता और यह कार्य ज्ञान की अग्नि द्वारा ही सम्भव हो सकता है। मशीनें, कोयला, भाप, तेल, गैस, बिजली, अणु आदि भी आग्नेय शक्ति द्वारा गतिशील होती हैं, मनुष्य रूपी मशीन को यदि उत्कर्ष के श्रेष्ठ मार्ग पर चलाना हो तो उसे ज्ञान की—विवेक की शक्ति अनिवार्यतः चाहिए। इसके बिना हृदय की आँखें नहीं खुलतीं और न दूरवर्ती भलाई, बुराई सूझ पड़ती है। केवल ज्ञान में ही वह शक्ति सन्निहित है जो व्यक्ति के अन्तस्तल को पलटे और उसे अनुपयुक्त मार्ग से हटाकर उपयुक्त मार्ग पर प्रवृत्त करें।
विचारों की शक्ति , उपयोगिता, आवश्यकता, को समझने और स्वीकार करने के लिए जन−साधारण को यदि तत्पर न किया जा सका तो युग−परिवर्तन का स्वप्न एक शेखचिल्ली की कल्पना मात्र ही बना रहेगा। सद्विचारों के सम्पर्क में आकर आवश्यक प्रेरणा जो लोग ग्रहण न करेंगे, उन्हें दण्ड के अतिरिक्त और किसी प्रकार सुधारा न जा सकेगा। प्रजातन्त्र युग में छोटे दोषों के लिए मर्मान्तक पीड़ा देकर मृत्यु−दण्ड या उसी के समान आँखें फोड़ने, हाथ काटने जैसे नृशंस दण्ड दिये जाने भी संभव नहीं। यदि दिये भी जावें तो उनसे बचे रहना जिनके लिए संभव होगा, वे दण्डशक्ति रखने वाले लोग तो उन कुकृत्यों को कर ही सकेंगे। अधिक छिपकर पकड़ में न आने की अधिक चतुरता तो तब भी चल ही सकेगी। ऐसी दशा में अनीति का उन्मूलन तो नृशंस दंड व्यवस्था में भी न हो सकेगा। जिन देशों में आज भी अधिकनायकवाद है और प्रतिपक्षियों को नृशंस दंड देने के क्रम चल रहे हैं, वहाँ भी दंड का उद्देश्य सफल कहाँ हो पा रहा है? दंड की एक सीमा तक उपयोगिता हो सकती है पर मानवी प्रकृति उससे नहीं बदली जा सकती, यह परिवर्तन तो हृदय−परिवर्तन के साथ ही हो सकता है और हृदय परिवर्तन का मार्ग ज्ञान का अवलम्बन ही हो सकता है। नारद ने बाल्मीकि और बुद्ध ने अंगुलिमाल जैसे भयंकर डाकू को ज्ञान देकर ही संत बनाया था।
धर्मसेवा का सर्वश्रेष्ठ माध्यम
हम ज्ञान का प्रकाश फैलाने का व्रत लें। धर्म−सेवा का अनादि काल से लेकर अद्यावधि यह एक ही सर्वोपरि माध्यम रहा है। सत्कर्म की प्रेरणा देने से बढ़कर और कोई पुण्य हो भी नहीं सकता। इसे गरीब अमीर, विद्वान, अविद्वान सभी अपनी सामर्थ्य के अनुसार कर सकते हैं। सबल भावना वाला व्यक्ति अपने समीपवर्ती क्षेत्र में अपनी भावनाऐं, मान्यताऐं अवश्य फैला सकता है। यह ठीक है कि हर एक के पास निज के उपार्जित उत्कृष्ट विचार नहीं हो सकते और उसका निज का व्यक्तित्व भी इतना प्रभावशाली नहीं हो सकता कि उसकी दी हुई शिक्षा को लोग शिरोधार्य कर लें। पर इतना तो हो ही सकता है कि संदेशवाहक के रूप में उत्कृष्ट विचारों को अपने सम्पर्क में आने वाले लोगों तक पहुँचाया जा सके। भोजन बनाना कठिन हो सकता है। पर परोसने में क्या कठिनाई? घड़ी, मशीन बनाना कठिन हो सकता पर उसका उपयोग करने में—दूसरों को समय बता देने में क्या असुविधा पड़ेगी? ज्ञान प्रसार के व्रतधारी ‘अखण्ड−ज्योति संस्था’ द्वारा युग निर्माण के लिए इन दिनों प्रस्तुत की जाने वाली प्रचण्ड एवं प्रखर विचारधारा को जनसाधारण तक पहुँचाने में एक संदेशवाहक का कार्य तो आसानी से कर सकते हैं। थोड़ी−सी अभिरुचि एवं प्रवृत्ति इस ओर मुड़नी चाहिए। कुछ दिनों इसे अपने स्वभाव में सम्मिलित करने की तो कठिनाई रहेगी पर यह सब जैसे ही अभ्यास बना वैसे ही एक धर्म सेवा की, ज्ञान यज्ञ की, एक महान प्रक्रिया चल पड़ेगी और साधारण व्यक्ति भी युग निर्माण के लिए एक उपयोगी परमार्थ करने का श्रेय लाभ लेने लगेगा।
ज्ञान यज्ञ के लिए समय दान
एक घंटा रोज का समय हम इस कार्य के लिए नित्य लगाया करें कि युग निर्माण विचारधारा को सुनने समझने की अभिरुचि साधारण लोगों में उत्पन्न की जा सके तो इतने मात्र से भी बहुत काम हो सकता है। हममें से हर एक का कुछ न कुछ परिचय एवं प्रभाव क्षेत्र होता है। उसमें जो शिक्षित हों उन्हें अपना युग निर्माण साहित्य पढ़ने देने और फिर उनसे वापिस लेने के लिए उनके पास आना-जाना आरम्भ करना चाहिए। पुस्तकें बाँट देने से या पुस्तकालय खोल देने से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। जब तक लोगों की अभिरुचि ही न जागेगी, तब तक मुफ्त में मिली हुई पुस्तक को भी लोग न पढ़ेंगे और पुस्तकालय खुल गये तो उसमें पढ़ने न आवेंगे। कार्य तो जनसम्पर्क से ही होगा।
विचार−परिवार का निर्माण
हमें अपने परिचय एवं प्रभाव क्षेत्र में से शिक्षित एवं सौम्य प्रकृति के लोगों की एक लिस्ट बनाकर उसे अपनी डायरी में नोट करना चाहिए और फिर ज्ञान दान के लिए दिये हुए घण्टे में उनके घर जाकर मिलना चाहिए। जो पुस्तक अगले दिन उन्हें पढ़ानी हो अन्य बातों के प्रसंग के साथ, उस पुस्तक के संबंध में चर्चा करनी चाहिए और उसकी उपयोगिता, श्रेष्ठता एवं महत्ता की भूरि−भूरि प्रशंसा इस प्रकार करनी चाहिए कि उस व्यक्ति में उसे पढ़ने की अभिरुचि जागृत हो। यदि पहली वार्ता में वह अभिरुचि जागृत न हुई हो तो फिर किसी अन्य दिन उस सम्बन्ध में पुनः प्रशंसा करनी चाहिए। जैसे भूख लगने पर ही भोजन खाया जाना गुणकारक होता है वैसे ही अभिरुचि जगाकर दिया हुआ साहित्य ही मनोयोगपूर्वक पढ़ा जाता है और उसी का कुछ प्रभाव भी पड़ता है। जब तक अभिरुचि न जगे, जब तक वह उस पुस्तक को पढ़ने की माँग न करने लगे तब तक उसे पढ़ने नहीं देनी चाहिए वरन् लगातार प्रयत्न करना चाहिए कि वह आपके द्वारा की हुई उस पुस्तक की प्रशंसा सुनकर उसे पढ़ने की आपसे माँग करे। माँग होने पर उसके पास स्वयं ही उसे पहुँचाने जाना चाहिए और वापिस लेने कब आवें, यह भी पूछ लेना चाहिए, ताकि वह उपेक्षा में डाले न रखे। इस प्रकार बार−बार आने जाने का, मिलने-जुलने का सिलसिला परमार्थ बुद्धि से चला देने पर अपने मिशन के सम्बन्ध में विचार−विनिमय एवं वार्तालाप का अवसर भी मिल सकेगा और पुस्तक में प्रस्तुत विचारों का अपने व्यक्तिगत विचारों द्वारा समर्थन करने से पढ़े हुए विषय की पुष्टि भी होगी। इस प्रकार लगातार हमारे द्वारा प्रस्तुत विचारधारा और आपके द्वारा उत्पन्न की हुई अभिरुचि एवं प्रेरणा से उसे पढ़ने वाले के मन पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा। आज न सही कल उसमें परिवर्तन होगा ही। पूर्ण रूप से न सही किसी अंश में वह अपने से सहमत होगा कि और बहुत न सही थोड़े अंश में विचार बदलने से उसके कदम भी श्रेष्ठता की दिशा में तीव्र या मन्दगति से अवश्य बढ़ेंगे।
शिक्षित ही नहीं अशिक्षित भी
शिक्षितों को यह साहित्य पढ़ाया जाना चाहिए किन्तु अशिक्षितों को, स्त्री-बच्चों को सुनाने के लिए भी इन अंकों में बहुत कुछ है। बाहर के लोग सुनने न आयें न सही हम अपने घर के स्त्री-बच्चों को इकट्ठा करके उन्हें अखंड−ज्योति में प्रस्तुत छोटी−छोटी कथा कहानियाँ एवं उनके समझने लायक आवश्यक बातें उनको अपनी भाषा में सुनाने-समझाने के लिए घरेलू सत्संग तो चला ही सकते हैं। लोगों से घर−घर मिलने जाने और व्यक्तिगत चर्चाऐं करने से भी सत्संग का उद्देश्य पूरा हो सकता है। अशिक्षितों को इकट्ठे करने पर उनसे पृथक−पृथक मिलकर अपनी विचारधारा से परिचित कराया जा सकता है। स्वाध्याय और सत्संग ज्ञान यज्ञ के दो पहलू हैं, इनका आरम्भ सबसे पहले ऊपर बताई हुई पंक्तियों के अनुसार ही हमें आरम्भ कर देना चाहिए ताकि लोगों की सोई हुई जिज्ञासा एवं अभिरुचि का जागरण हो सके। यदि उस कुँभकरणी निद्रा से मानवी चेतना को जगाया जा सका तो वह जागरण अभूतपूर्व हलचल उत्पन्न करने वाला होगा यह निश्चित है।
कुछ दिन बाद युग−निर्माण के लिए मानव−जीवन के हर पहलू पर प्रेरणाप्रद विचारधारा देने वाली एक सस्ती, सुन्दर ट्रैक्टमाला प्रकाशित करने का विचार है, पर अभी उसमें देर है। संभवतः कई महीने उस कार्य में लगें। अभी तो हमें अखण्ड−ज्योति के माध्यम से ही अपना कार्य आरंभ करना है। पाँच शिक्षितों को अपनी पत्रिका पढ़ाने और पाँच अशिक्षितों को उसे सुनाने के लिए हममें से प्रत्येक को व्रत लेना चाहिए। दस व्यक्तियों तक संदेश पहुँचाते रहने का कार्य यों देखने में छोटा लगता है पर इसके फलितार्थ बहुत ही महत्वपूर्ण एवं दूरगामी हो सकते हैं। अखण्ड−ज्योति−परिवार के बीस हजार सदस्य यदि दस व्यक्तियों का धर्म शिक्षण अपने−अपने जिम्मे ले लें तो दो लाख व्यक्तियों का हर वर्ष बहुत कुछ सिखाया जा सकता है। उन दो लाख शिक्षार्थियों में से यदि बीस हजार व्यक्ति हर वर्ष यह शिक्षण सेवा अपने जिम्मे लेते चलें तो चक्रवृद्धि ब्याज वाले सिद्धान्त के अनुसार अगले दस वर्षों में करोड़ों व्यक्तियों की अन्तरात्मा में ऐसी विचारक्रान्ति के बीज बोये जा सकते हैं जिससे सत्प्रवृत्तियों की नयनाभिराम हरियाली सर्वत्र दीखने लगे।
युग−निर्माण का सत्संकल्प
इस अंक के आरम्भिक सचित्र पृष्ठ पर युग−निर्माण का सत्संकल्प छपा है। यह अखण्ड−ज्योति परिवार की दैनिक प्रतिज्ञा है। प्रत्येक शुभ कार्य के आरंभ में पूजा, उपासना आरम्भ करने में भी संकल्प का विधान पूरा करने की हमारी धार्मिक परम्परा अनादि काल से चली आती है। यह संकल्प भी उसी प्रकार प्रयुक्त होना चाहिए। इसे बड़े अक्षरों में एक कार्ड बोर्ड पर लिखकर रख लेना चाहिए। सवेरे उठते ही इसे दुहराकर तब शैया का परित्याग किया जाय। पूजा, उपासना आरंभ करने से पूर्व इसे एक बार भावनापूर्वक पढ़ लिया जाय। साप्ताहिक एवं सामयिक सत्संगों, गोष्ठियों में एक व्यक्ति इसे पढ़े और शेष उसे दुहरायें। सब के हाथ में एक−एक संकल्प पत्र हो तो पढ़ने और दुहराने में सुगमता रहेगी। इसी प्रकार बड़े यज्ञों में या उत्सवों में एक व्यक्ति मंच पर जाकर इसे थोड़ा−थोड़ा करके बोले और जनता उसे दुहरावे। ऐसे अवसरों पर यह पत्र अधिक संख्या में जनता में वितरण किये जा सकते हैं ताकि नये आदमियों को भी इन्हें पढ़ने-बोलने और समझने में सुगमता हो। एक रुपये में 100 के हिसाब से इन्हें अखण्ड−ज्योति कार्यालय से भी मंगाया जा सकता है।
यह संकल्प घर−घर में प्रचलित होना चाहिए। परिवार के लोग इसे पढ़ने और दुहराने के लिए प्रातः सायं पूजा, उपासना के समय एक हो जाया करें और इस संकल्प को पढ़ने के साथ−साथ थोड़ा बहुत नियमित या अनियमित (मानसिक) गायत्री जप ध्यान करें। ऐसी परम्पराऐं हर घर में आरम्भ की जानी चाहिएं। युग−निर्माण का आरम्भ इस सत्संकल्प में सन्निहित भावनाओं के साथ ही होता है।
आगामी तीन अंक
युग−निर्माण के तीन आधारों का अधिक स्पष्टीकरण करने के लिए अखण्ड−ज्योति के आगामी तीन अंकों में विशेष प्रयास किया जायेगा। अप्रैल का अंक तो साधारण विषयों पर ही होगा। इसके बाद मई का अंक स्वस्थ शरीर, जून का अंक स्वच्छ मन तथा जुलाई का अंक सभ्य−समाज सम्बन्धी समस्याओं पर अधिक विस्तारपूर्वक विचार प्रस्तुत करेंगे। यह छोटे−छोटे विशेषाँक वैसे ही महत्वपूर्ण होंगे जैसे गत अक्टूबर एवं जनवरी के साधनाँक एवं युग−निर्माण अंक निकल चुके हैं। इस वर्ष के प्रत्येक अंक को हमें दो बार ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए और इस विचारधारा को 5 पढ़े लोगों को पढ़ाकर एवं 5 बिना पढ़ों को सुनाकर आगे बढ़ाना चाहिए। यह दस व्यक्तियों का अपना विचार−परिवार अखण्ड−ज्योति का प्रत्येक सदस्य बनाने लगे तो उन सब का सम्मिलित एक विशाल विश्व−विद्यालय सरीखा शिक्षण सत्र व्यापक पैमाने पर चलता रह सकता है और जनवरी अंक में प्रस्तुत कार्यक्रम बहुत ही सरलतापूर्वक कार्यान्वित हो सकता है। थोड़ी इच्छा शक्ति, थोड़ी सेवा और थोड़ी परमार्थ बुद्धि हम जगा लें तो बड़ी आसानी से उस अभाव की पूर्ति हो सकती है जिसके लिए आज चारों ओर से पुकार उठ रही है। युग वाणी की उपेक्षा करना हम प्रबुद्ध अध्यात्म प्रेमी व्यक्तियों के लिए न तो उचित ही होगा और न शोभनीय। हमें इच्छा और अनिच्छा से युग−निर्माण के महान उत्तरदायित्व को अपने कन्धों पर लेना ही पड़ेगा और उसे पूरा भी करना ही होगा।