Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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अपना परिवार बढ़ता ही चले
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जिस प्रकार सिर, धड़ और पैरों के तीन भागों में हमारा शरीर बँटा हुआ है उसी प्रकार जीवन भी वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक इन तीन भागों में विभाजित है। हम व्यक्तिगत रूप से अच्छे हों, परिवार भी सभ्य हो पर चारों ओर रहने वाले वे लोग जिनसे निरन्तर अपना काम पड़ता है यदि असभ्य, असंस्कृत और अनैतिक प्रकृति के हों तो प्रगति का पथ ही नहीं रुका रहेगा वरन् पग−पग पर कठिनाइयों का सामना पड़ेगा। जिस प्रकार जलवायु के अच्छे होने से घटिया आहार मिलने पर भी मनुष्य स्वस्थ रह सकता है उसी प्रकार चारों ओर का वातावरण प्रसन्नता और प्रफुल्लता से भरा हो तो असुविधाओं से भरा हुआ अभावग्रस्त जीवन भी हँसी−खुशी से कट जाता है। सिर, धड़ और अधोभाग इन तीनों में से एक भाग भी यदि रुग्ण या अशक्त रहे तो सारा शरीर ही विपन्न स्थिति में पड़ा रहेगा उसी प्रकार व्यक्तिगत और पारिवारिक विकास के साधन जुटा लेने पर भी यदि सामाजिक जीवन अस्त−व्यस्त बना हुआ है तो उसके कारण चिन्ता और परेशानी की स्थिति बनी ही रहेगी।
समीपवर्ती वातावरण को बदलें
हमें अपने आस−पास का वातावरण अच्छा बनाने का प्रयत्न करना ही चाहिए इस ओर से उपेक्षा रखने और अपने मतलब से मतलब रखने की नीति अपनाने से लाभ नहीं घाटा ही रहता है। सारे समाज को बदल डालना अपने लिए सम्भव भले ही न हो पर इतना तो हर कोई कर सकता है कि सद्भावनाशील व्यक्तियों का एक संगठन बनावे। उत्तम प्रकृति के लोग यदि आपस में प्रेम−भाव, एकता, समीपता और सहयोग के आधार पर परस्पर सुसंबद्ध रहने लगें तो उनकी सम्मिलित शक्ति एक महत्वपूर्ण बात बन जाती है और उसके द्वारा चारों ओर फैले हुए अनैतिक वातावरण को उच्छृंखल होने से रोक रखने में भारी सहायता मिलती है। एक गुण्डा भी अकेला कुछ नहीं कर सकता वरन् आसानी से पिट जाता है। उसकी शक्ति तो तभी बढ़ती है जब संगठन का बल और प्रभाव उसके पीछे रहता है। गिरोह−बन्द होने पर ही गुण्डे अपनी उद्दंडताओं का प्रदर्शन करते हैं। संगठन अपने आप में एक महान शक्ति है। गुण्डों के लिए वह उपयोगी सिद्ध हो सकती है तो सज्जनों के लिए वह काम की वस्तु क्यों सिद्ध न होगी?
शक्ति का प्रदर्शन होने से भी विरोधियों के हौसले परास्त हो जाते हैं। अनैतिक तत्व उच्छृंखल तो अवश्य होते हैं पर उनके पीछे नैतिक बल न रहने से दुर्बलता ही भरी रहती है, जिसका शमन थोड़े से ही शक्ति प्रदर्शन से सरलतापूर्वक हो जाता है। चोर तभी सेंध लगाते हैं जब घर के लोग सोये पड़े हों, उल्लू चमगादड़ तभी तक सक्रिय रहते हैं जब तक प्रकाश नहीं होता। अनैतिक तत्व भी वहीं पनपते हैं जहाँ उन्हें आलोचना या विरोध की आशंका नहीं होती। पुलिस चौकी के आस−पास आमतौर से चोरियाँ नहीं होतीं क्योंकि चोर जानते हैं कि यहाँ प्रतिरोध का सामना करना पड़ सकता है इसलिए जोखिम के इस स्थान को छोड़ कर वहाँ मोर्चा लगाना चाहिए जहाँ कमजोरी ज्यादा हो। जिसके पीछे कोई नहीं होता आमतौर से उसे ही सताया जाता है। सज्जन लोग आमतौर से इसीलिए परेशान किये जाते हैं क्योंकि वे गुण्डों की तरह संगठित नहीं होते। यदि उनमें भी आवश्यक संगठन की व्यवस्था बन जाय तो उसकी क्षमता अनैतिक तत्वों की अपेक्षा सैकड़ों गुनी अधिक रहेगी और इस संगठन मात्र से बुराइयों के सुधार में भारी योगदान मिलने लगेगा।
संगठन की महान शक्ति
कहते हैं कि निर्जीव चीजें एक और एक दो होती हैं किन्तु जीवित मनुष्य यदि सच्चेपन से एक दूसरे को प्रेम करें और एकता की सुदृढ़ भावना में संबद्ध हों तो वे एक और एक मिलकर ग्यारह बन जाते हैं। उनकी शक्ति का परिमाण अनेक गुना अधिक बन जाता है। हमें इस प्रक्रिया को अपनाना ही होगा इसके बिना और कोई मार्ग नहीं। सज्जनों का संगठन हुए बिना दुर्जनता का पलायन और किसी उपाय से नहीं हो सकता।
इतिहास साक्षी है कि अनैतिकता के प्रतिरोध के लिए नैतिक तत्वों को संगठित होना पड़ा है और उस संगठन के बल बूते पर ही दुष्टता को परास्त कर सकना संभव हुआ है। अवतारी और युग−पुरुषों ने भी धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश केवल अपने एकाकी बल बूते पर नहीं कर लिया है वरन् उन्हें भी संगठन की रचना करनी पड़ी है और उसी का सहारा लेकर यह लोक−शिक्षण करना पड़ा है कि सज्जनता की रक्षा केवल संगठित शक्ति द्वारा ही संभव होगी। भगवान राम को रीछ, बन्दरों की सेना इकट्ठी पड़ी थी, भगवान कृष्ण के साथ गोप और पशु पालकों का एक बड़ा संगठन था। राणा प्रताप को सेना इकट्ठी करने के लिए भामाशाह ने आर्थिक साधन जुटाये थे। सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज बनाई थी। महात्मा गान्धी ने स्वराज्य आन्दोलन के लिए कितना विशाल संगठन खड़ा किया था।
असुरों से संत्रस्त देवता जब अपनी करुण पुकार लेकर ब्रह्माजी के पास गये तब उन्होंने सब देवताओं की थोड़ी−थोड़ी शक्ति इकट्ठी करके दुर्गा देवी की रचना कर दी तब उसके द्वारा असुरों का हनन हुआ। रावण के त्रास से संत्रस्त ऋषियों ने अपना थोड़ा−थोड़ा खून एक घड़े में जमा करके जमीन में गाड़ा था तब उसमें से सीता जन्मी और उन्हीं के निमित्त से असुर कुल का सर्वनाश हो सका। बुद्ध भगवान को एक बड़ा शिष्य मण्डल तात्कालिक पाप−वृत्तियों से लोहा लेने के लिए संगठित करना पड़ा था। विभिन्न मत−मतान्तरों और सम्प्रदायों, और पंथों की रचनाऐं भी तत्कालिक किसी सुधार की आवश्यकता के कारण ही हुई थीं। सिक्ख पंथ मुसलमानों के अन्यायों से बचाव की दृष्टि से बना और बढ़ा था, सामाजिक कुरीतियों के समाधान के लिए आर्य समाज का अस्तित्व सामने आया। धर्म और सत्य के आदर्श सब सम्प्रदायों में एक ही हैं कोई मौलिक मतभेद किसी में नहीं है फिर भी समय−समय पर अनेक संगठन बनते रहते हैं इनका उद्देश्य तात्कालिक परिस्थितियाँ ही होती हैं। संगठन का सहारा लिये बिना समाज सुधार एवं युग−निर्माण जैसे महान कार्य तो और किसी प्रकार संभव ही नहीं हो सकते, इसलिए हम को भी अपने व्यक्तिगत जीवन को सुविकसित बनाने के लिए अपने साथ सज्जनों का एक संगठन रखना ही पड़ेगा। युग−निर्माण की जनमानस विकास योजना के लिए भी इस की अनिवार्य आवश्यकता है।
सहृदय सज्जनों की खोजबीन
हमें अपने परिवार में, रिश्तेदारों में, स्वजन सम्बन्धियों में, ग्राहकों में, साथी−मित्रों में, परिचित अपरिचितों में यह दृष्टि डालनी होगी कि उन में से कौन−कौन ऐसे हैं जिनमें सज्जनता एवं विचारशीलता के बीजांकुर मौजूद हैं। ऐसे लोगों के नाम अपनी डायरी में नोट कर लेने चाहिए और बीमा कम्पनी के एजेण्ट जैसे अपने काम के लोगों के पीछे बराबर लगे ही रहते हैं, अनेक तर्क, दलील और उदाहरणों से बीमे की उपयोगिता समझाकर अपने व्यक्तित्व का प्रभाव डालकर एक न एक दिन उसका बीमा करा ही लेते हैं उसी प्रकार अपना प्रयत्न भी यदि सद्विचारों से उनका मस्तिष्क भर देने में लगा रहे तो उनमें से कइयों की जीवन दिशा बदल सकती है और वे अपनी विचारधारा से अवश्य ही प्रभावित हो सकते हैं। विचारों की एकता होने पर और परस्पर मिलते−जुलते रहने पर प्रेम और आत्म−भाव का विकास होता है इसी आधार पर आमतौर से लोग संगठित हुआ भी करते हैं।
जब तक विचारों में एकता न होगी, आकाँक्षाओं और भावनाओं को प्रवाह एक दिशा में न होगा तब तक संगठन में मजबूती न आवेगी। सज्जनों में भी अनेक मान्यताओं और अनेक विचारधाराओं के लोग होते हैं पर उनमें विचारों की एक दिशा न होने से प्रेम और एकता का अभाव ही रहता है। असुरों को मारने के उद्देश्य से ही रीछ, बानरों की सेना राम के साथ हुई थी। यदि सब रीछ, बन्दरों के उद्देश्य, आदर्श, विचारभाव भिन्न−भिन्न प्रकार के होते तो उनकी सेना थोड़े ही दिनों में बिखर जाती। जो लड़ाई का उद्देश्य न लेकर और किसी कामना से सेना में आये होते तो वे झंझट का समय सामने आते ही भाग खड़े होते। किसी भी संगठन का प्राण उसके आदर्शों में अटूट निष्ठा ही होती है। हमें अपने आस−पास के लोगों में से जिनमें सत्प्रवृत्ति के लक्षण दिखाई पड़ें उनमें युग−निर्माण के आदर्शों के प्रति स्वस्थ शरीर और स्वच्छ मन और सभ्य समाज की रचना के प्रति आत्म−निर्माण, परिवार−निर्माण और समाज−निर्माण के प्रति भावना एवं आस्था उत्पन्न करनी चाहिए, ऐसे आस्थावान् व्यक्ति ही अपने संगठन की रीढ़ हो सकते हैं।
विचारधारा का विस्तार
एक दिन की चर्चा से युग−निर्माण की विचारधारा किसी को समझाई नहीं जा सकती। फिर हर किसी का समझने का ढंग एवं व्यक्तित्व भी इतना प्रभावपूर्ण नहीं होता कि उससे प्रभावित होकर इस सुविस्तृत विचारधारा को हर कोई भली प्रकार समझ ले और तुरन्त ही हृदयंगम कर लें। किसी बात को कहा तो थोड़ी ही देर में जा सकता है पर उसे किसी के गले उतार देना बड़ा समयसाध्य और श्रमसाध्य कर्म है। यदि ऐसा न हुआ होता तो सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, दया, दान, संयम, सेवा जैसे दस पाँच गुणों की धारणा कराने के लिए ऋषियों को इतने शास्त्र, पुराण क्यों रचने पड़ते और सारे जीवन उसी का प्रसार विविध प्रकार से करने में क्यों संलग्न रहना पड़ता। मनुष्यों का मन आमतौर से जंग लगे ताले की तरह होता है जिसे खोलने के लिए अपने व्यक्तिगत प्रेम और सद्भाव का तेल डालना पड़ता है और आवश्यक तर्कों एवं तथ्यों से भरी विचारधारा की सही ताली लगानी पड़ती है तब कहीं उसके खुलने का उपक्रम बनता है।
अखण्ड ज्योति को जन−मानस को खोलने वाली ताली के रूप में प्रस्तुत करने के लिए हम एक निष्ठावान लुहार की तरह कृतकार्य हो रहे हैं। आपका काम है कि अपने समीपवर्ती क्षेत्र के हर सज्जन प्रकृति व्यक्ति के मन में अपने स्नेह, सौजन्य का तेल लगाकर चिकनाई पैदा करें और इस ताली को जिसे हमने अपनी सारी अन्तःचेतना उड़ेल कर एक कारगर वस्तु बना दिया है प्रवेश करा देने का यत्न करें। अपने मुँह से अपनी बात बढ़ी−चढ़ी कहना अच्छा नहीं लगता पर अनुभव यह बताता है कि जिन लोगों को अखण्ड ज्योति पढ़ने और सुनने का अवसर मिल रहा है वे निश्चित रूप से बदल रहे हैं, ढल रहे हैं, उठ रहे हैं, बढ़ रहे हैं, चल रहे हैं। प्रेरणा का प्रवाह यदि किसी कारणवश टूट ही न गया तो यह प्रवाह जिनके मनःक्षेत्र तक निरन्तर पहुँचेगा वे कुछ बन कर ही रहेंगे, कुछ होकर ही रहेंगे।
धर्म और सदाचार की शान्ति सेना
जिस प्रकार वेतन और शस्त्र की व्यवस्था हुए बिना सेना का संगठन नहीं हो सकता उसी प्रकार सज्जनों की युग−निर्माण सेवा का संगठन भी पाठकों के प्रयत्न और अखण्ड ज्योति की विचारधारा का समन्वय हुए बिना संभव नहीं हो सकता। हम में से प्रत्येक को इस महत्वपूर्ण कार्य में संलग्न होकर युग−निर्माण के क्षेत्र का विस्तार करना चाहिए। अपना परिवार बढ़ाने का यही तरीका है। अपनी अखण्ड ज्योति पत्रिका हम उन सब लोगों तक पहुँचावें—उसके लेखों की प्रशंसा करके पढ़ने का आकर्षण पैदा करें और समय−समय पर प्रस्तुत प्रसंगों पर चर्चा करते हुए उनकी अभिरुचि का परिष्कार करते रहें। आप इतना प्रयत्न करेंगे और पत्रिका के छपे पत्रों में लिपटी हुई हमारी भावना भी कुछ काम करेगी तो दोनों के समन्वय का एक बड़ा सुखद रूप सामने आवेगा और लोगों को तेजी से बदलते हुए हम प्रत्यक्ष देख सकेंगे। किसी मित्र, कुटुम्बी या सम्बन्धी के साथ इससे बड़ा उपकार और कुछ नहीं हो सकता कि उसके अन्तःकरण में उच्चकोटि की भावना और विचार−धारा भर दी जाय इसी आधार पर तो किसी का लोक−परलोक सुख−शान्तिमय बन सकता है। ब्रह्मदान से, ज्ञान−दान से, बढ़कर इस पृथ्वी पर और कोई दान नहीं है यदि हम अपने क्षेत्र के कुछ लोगों को अखण्ड ज्योति का नियमित पाठक बनाने में सफल हो जाते हैं तो निश्चय ही यह प्रयत्न युग−निर्माण की सेना के सैनिक भर्ती करने के समान ही महत्वपूर्ण है। जब इन सैनिकों का एक सुसज्जित संगठन बनकर तैयार होगा तब हम देखेंगे कि अनैतिकता की वे विभीषिकाऐं जो आज काली घटाओं की तरह हमारे सिर पर घुमड़ रही हैं सहज ही तिरोहित होने लगेंगी।
परिवार रचना की दो परम्पराऐं
परिवारों का गठन दो प्रकार का होता है, एक रक्त परिवार दूसरा विचार परिवार। माता−पिता के खून से बनकर जो परिवार बनता है वह घर, कुटुम्ब कहलाता है। भावनाओं और आकाँक्षाओं की एकता वाले लोग भी एक कुटुम्बी ही बन जाते हैं। चोर, डाकू, जुआरी, नशेबाज जब एक स्वभाव और एक कार्यक्रम के कारण अत्यन्त घनिष्ठ बन जाते हैं तो आध्यात्मिक भावनाओं, प्रेरणाओं और योजनाओं से प्रभावित व्यक्ति आपस में घनिष्ठ क्यों कर न होंगे? रक्त के आधार पर बना हुआ वंश परिवार कहलाता है और भावनाओं के आधार पर बना संगठन ज्ञान−परिवार या गुरु−परिवार कहलाता है। प्राचीन काल में गोत्रों की रचना दोनों ही प्रकार से हुई है वंश परम्परा से भी और गुरु परम्परा से भी। कश्यप, भारद्वाज, गर्ग, वशिष्ठ, आदि गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चारों ही वर्णों में मिलते हैं। इससे यह भ्रम होता है कि उन ऋषियों के वंशज चारों वर्णों में कैसे हुए? बात यह है कि यह गोत्र पुत्र परम्परा से ही नहीं, शिष्य परम्परा से भी चले हैं। इसी से सब वर्णों में ऋषियों के गोत्र मिलते हैं। हमें अपने वंश परिवार के विकास का ही नहीं, गुरु परिवार के, ज्ञान परिवार के, निर्माण का भी ध्यान रखना होगा और उसके विस्तार का भी।
संगठन तो पहले भी हमने किया था पर हमारे विचारों को नियमित रूप से पढ़ने−सुनने की शर्त न रहने से उनकी न तो जीवन दिशा बन सकी और न आस्था दृढ़ रह सकी। जिनके पास हम निरन्तर अपनी भावनाऐं और प्रेरणाऐं नहीं पहुँचा पाते उनका हमारे साथ देर तक संबद्ध रह सकना सम्भव भी नहीं था। अब उस भूल को सुधार लिया गया है और केवल उन्हीं को परिवार का सदस्य माना गया है जो हमारी भावनाओं को कम से कम सुनने को तो तैयार हों। अखण्ड ज्योति को नियमित रूप से पढ़ते रहना अब अपने परिवार की प्रारम्भिक शर्त बना दी गई है। नया संगठन इसी आधार पर किया जा रहा है। सज्जनों का कर्तव्य है कि इस आधार पर अपने परिवार का निर्माण और विस्तार करने के लिए उसी प्रकार लगें जिस प्रकार हम प्रति ग्राहक के पीछे तेरह आना वार्षिक का घाटा देते हुए प्राणप्रण से अखण्ड ज्योति के पन्ने−पन्ने में भावना और प्रेरणा लपेटने में लगे हुए हैं।
निर्माण का महत्वपूर्ण साधन
अपना परिवार जब बढ़ेगा तो उससे हम में से हर एक को व्यक्तिगत जीवन के विकास में भारी सहायता मिलेगी। एक से विचारों के लोगों में स्वभावतः प्रेम−भाव पैदा होता है। एक दूसरे को प्रेरणा और प्रोत्साहन देते हैं और लौकिक जीवन में भी एक दूसरे की सहायता किसी न किसी प्रकार करते हैं। दूसरे लोग इस संघबद्धता से प्रभावित होते हैं। विरोधियों और दुरात्माओं को भय रहता है और सज्जन सदाचारियों की हिम्मत बँधी रहती है। अनेकों अरुचिकर प्रसंग तो सज्जनों के संगठन के भय से अपने आप ही टल जाते हैं। इस प्रकार हम में से प्रत्येक को अपने वैयक्तिक जीवन का सर्वांगपूर्ण विकास करने के लिए अपने समीपवर्ती क्षेत्र में से जितनों को भी अपने प्रभाव क्षेत्र में ला सकना सम्भव हो उसके लिए शिथिल मन से नहीं पूरे उत्साह से प्रयत्न करना चाहिए।
युग−परिवर्तन कार्यक्रम का आधार ही यह संगठन होगा। व्यापक अनैतिकता का अन्त सत्पुरुषों की संगठित शक्ति के बिना और किसी उपाय से सम्भव नहीं। जितना−जितना यह संगठन व्यापक और प्रबल होता जायेगा उसी अनुपात से अपने कार्यक्रम बनते चलेंगे और एक−एक कदम उठाते हुए उस लक्ष की पूर्णता तक पहुँच सकेंगे जिसके ऊपर समस्त विश्व की—समस्त मानव जाति की—सुख शान्ति निर्भर है।