Magazine - Year 1966 - Version 2
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Language: HINDI
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विक्षुब्ध जीवन, शान्तिमय कैसे बने?
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आज के संसार पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि मनुष्य परेशानियों का भंडार बना हुआ हैं। आज परेशानियों की जितनी बहुतायत है उतनी कदाचित पूर्वकाल में नहीं होगी। इसका मुख्य कारण यही समझ में आता है कि ज्यों-ज्यों संसार की जन-संख्या बढ़ती जाती है त्यों-त्यों नये विचारों, नई भावनाओं, नई इच्छाओं की वृद्धि होती जाती है। विभिन्न प्रकार के रहन-सहन, वेश-भूषा और आहार-विहार विकसित होकर संसार में फैल गये हैं।
किसी एक समुदाय के विचार किसी दूसरे समुदाय के विरुद्ध हो सकते हैं। किसी एक वर्ग का आहार -विहार दूसरे वर्ग के विपरीत पड़ सकता है। एक की भावनायें, मान्यतायें आदि दूसरे से टकरा सकती हैं। इसी विविधता, विभिन्नता और बहुलता के कारण कदम-कदम पर संर्घर्ष पैदा होने लगा है। एक विचार धारा के लोग दूसरे की विचारधारा की आलोचना करते हैं निन्दा करते हैं। हर मनुष्य अपने ही विचारों, विश्वासों एवं मान्यताओं के प्रति भावुक होता है। वह उनके विरोध में कुछ सुनना पसन्द नहीं करता। किन्तु उसे सुनना ही पड़ता है।
साथ ही जब मनुष्य का मन-मस्तिष्क किसी एक मान्यता में केन्द्रित रहता है तब उसे कोई विशेष परेशानी नहीं होती। उसकी मान्यता जैसी भी अच्छी-बुरी होती है वह उस पर विश्वास रखता हुआ संतुष्ट रहता है। उसके मस्तिष्क में कोई तर्क-वितर्क का आन्दोलन नहीं चलता। किन्तु आज के युग में बुद्धिवाद इतना बढ़ गया है कि किसी एक विश्वास को अखण्ड बनाये रखना कठिन हो गया है। संसार में हजारों प्रकार की विचारधारायें विकसित हो गई हैं, तर्क का इतना प्राधान्य हो गया है कि किसी भी मान्यता का आसन हिलते देर नहीं लगती। विश्वासों के बनने बिगड़ने की प्रक्रिया से भी कोई कम परेशानी नहीं होती।
विभिन्न सभ्यताओं का विकास भी संघर्ष एवं अशान्ति का कारण बना हुआ है। हर राष्ट्र हर मानव समुदाय संसार में अपनी सभ्यता का ही प्रसाद देखना चाहता और उसके प्रयत्न में अन्य सभ्यताओं को अपदस्थ तक करने की कोशिश करता है।
वस्तु एवं विषयों का बाहुल्य हो जाने के कारण मनुष्य की आवश्यकतायें एवं इच्छायें बहुत बढ़ गई हैं। समुपस्थित साधनों की अपेक्षा जन-संख्या की अपरिमित वृद्धि से मनुष्यों का स्वार्थ पराकाष्ठा पा कर गया है। वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण संसार की शक्तियों का सन्तुलन बिगड़ गया है, जिससे मनुष्यों के बीच पारस्परिक विश्वास समाप्त हो गया है। आधिक्य तथा अभाव की विषमता के कारण रोग, दोष, शोक, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि की प्रवृत्तियां बहुत बढ़ गई हैं। जीविका के लिये जीवन में अत्यधिक व्यस्तता बढ़ जाने के कारण मनुष्य एक निर्जीव यंत्र बन गया है, उसके जीवन की सारी प्रसन्नता, उल्लास, हर्ष एवं आशा आदि विशेषतायें समाप्त हो गई हैं। मनुष्य, निष्ठुर, नीरस, अनास्थावान एवं नास्तिक बन गया है। मन में कोई उत्साह न रहने के कारण धर्म उसके लिए ढोंग और संयमशीलता, रूढ़िवादिता के रूप में बदल गई है।
मनुष्य को परेशान करने वाली परिस्थितियों के विकटतम जाल चारों और फैल गये हैं। इन परेशानियों में फँसा-फँसा जब वह ऊब उठत है तो नवीनता तथा ताजगी लाने के लिये निकृष्ट मनोरंजनों तथा मद्यादिक व्यासनों की ओर भाग पड़ता है।
ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, स्वार्थ एवं संघर्ष आज के समय का वास्तविक जीवन बन गया है। इतनी दुष्ट प्रवृत्तियों एवं परिस्थितियों के रहते हुये मनुष्य परेशान न रहे यह कैसे हो सकता है? क्या अपढ़ और पढ़ा लिखा क्या धनवान और क्या निर्धन, क्या मालिक और क्या मजदूर, बच्चा-बूढ़ा, स्त्री-पुरुष सब समान रूप से अपनी-अपनी तरह परेशान देखे जाते हैं।
ऐसा नहीं कि मनुष्य अपनी इन परेशानियों का इतना अभ्यस्त हो गया हो कि इनकी ओर से उदासीन रह रहा हो, बल्कि वइ इन व्यग्रताओं से इतना दुःखी हो उठा है कि उसे जीवन से कोई विशेष दिलचस्पी नहीं रही, जिससे फलस्वरूप समाज में अपराधों विकृतियों एवं कुरूपताओं की बाढ़ सी आ गई है। मानव-जीवन के लक्ष्य “सत्यं शिवम् सुंदरम्” का पूर्ण रूपेण तिरोधाम हो गया है।
मनुष्य अपनी इन परेशानियों से छूटने का उपाय भी कर रहा है। वस्तुतः उसका सारा उद्योग, परिश्रम और पुरुषार्थ है ही केवल परेशानियां कम करने और कष्टों से छूटने के लिये। किन्तु उसके कष्टों में कमी के कोई लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होते। मनुष्य अन्धकार में हाथ-पाँव मारता हुआ सुख की दिशा के बजाय भ्रम की वीथियों में भटकता फिर रहा है। सुख के प्रयास में दुःख ही पाता चला जा रहा। निस्सन्देह मनुष्य की यह दुर्दशा दया की ही पात्र है।
संसार में अशक्त अथवा असाध्य कुछ भी नहीं है उसके लिये प्रबल पुरुषार्थ, दृढ़ निष्ठा, उपयुक्त दृष्टिकोण मानसिक सन्तुलन आत्म-विश्वास और सही दिशा की आवश्यकता है।
तृष्णा भयानक अजगर के समान है। जब यह किसी मनुष्य में अनियन्त्रित हो जाती है तो सम्पूर्ण संसार को निगल जाने की इच्छा किया करती है। अपनी इस अनुचित इच्छा से प्रेरित होकर जब वह अग्रसर होता है तब भयानक संघर्ष, विरोध एवं वैर में फँसकर चोट खाता और तड़पता है। स्वार्थ से ईर्ष्या, द्वेष, लोभ आदि मानसिक विकृतियों का जन्म होता है जो स्वयं ही किसी अन्य साधन के बिना मनुष्य को जलाकर भस्म कर डालने के लिये पर्याप्त होती हैं।
दृष्टिकोण की अव्यापकता भयानक बन्दीगृह है, जिसमें बन्दी बना मनुष्य एकाकीपन और सूनेपन से घिरकर तड़पता कलपता रहता है। संकीर्ण दृष्टिकोण वाला व्यक्ति अपनी मान्यताओं, विश्वासों अथवा भावनाओं से भिन्न किसी भावना, विश्वास अथवा मान्यता को सहन नहीं कर पाता। किसी दूसरी सभ्यता अथवा संस्कृति को फूटी आँख भी फलते-फूलते नहीं देख सकता। जो उससे सम्बन्धित है वही सत्य है शिव है और सुन्दर अन्य सब कुछ अमंगल एवं अशुभ है। इस विविधताओं, विभिन्नताओं एवं अन्यताओं से भरे संसार में भला इस प्रकार के संकुचित दृष्टिकोण वाला व्यक्ति किस प्रकार सुखी रह सकता है? उससे भिन्न मान्यताएं उठेंगी, विविधताएं व्यग्र करेंगी और भ्राँतियाँ उत्पन्न होंगी।
अनास्था, नास्तिकता एवं अविश्वास भी विषैले सर्पों से कम नहीं है जो अपने पालने वाले को डसे बिना नहीं रहते। जो नास्तिक है वह निरावलम्ब है, जो आस्थाहीन है वह नीरस एवं कडुआ है और अविश्वासी है वह बहिष्कृत है। संसार में सहज सम्भाव्य निराशाओं और असफलताओं के आने पर जब मनुष्य का विषाद अपनी सीमा पा कर जाता है तब मात्र आस्तिक भाव ही मनुष्य को सहारा देता है। जन-जन के साथ छोड़ देने, सम्बन्धियों के विमुख हो जाने, शत्रुओं से घिर जाने, आपत्ति के आने पर यदि किसी असहाय को कोई सहायता देता है तो वह उसका आस्तिक भाव ही है। रोग, निराशा अथवा विषाद की चरम सीमा जब मनुष्य के चारों ओर मृत्यु का जाल रचने लगती है तब एक आस्तिक भाव ही है जो उसे मृत्यु के भयानक अन्धकार में दीपक दिखाता है। मृत्यु के महत्वपूर्ण अवसर पर जहाँ नास्तिक असहाय अवस्था में छटपटाता, रोता और भयभीत होता है, निरुपाय बाँधवों की ओर कातर दृष्टि से देखता हुआ सहारे की याचना करता, वहाँ आस्तिक व्यक्ति एक अनन्त सहारे से संतुष्ट शान्तिपूर्वक प्रयाण करता है। आस्तिक हर क्षण एक सबल एवं सच्चे मित्र के समान कदम-कदम पर साथ देती है। आस्तिक सदा निर्भय और निश्चिन्त रहता है। आस्तिकता के अभाव में कोई भी मनुष्य कितना ही बलवान अथवा बुद्धिमान क्यों न हो सदैव ही निःसहाय एवं निरुपाय है। ठोकर लगने, चोट खाने पर वह चीत्कार करता उठता है उसे सहारा देने वाली कोई शक्ति उसके अन्दर नहीं होती।
इसी प्रकार जो आस्थाहीन और अविश्वासी है उसे न तो किसी से स्नेह होता न श्रद्धा स्वयं अविश्वासी होने से किसी का विश्वासपात्र नहीं बन पाता और एक रिक्त एवं बहिष्कृत जीवन बिताता है।
अस्तु, सुखी और सन्तुष्ट रहने का एक ही मूल-मन्त्र है- स्वल्प इच्छाएँ, कम आवश्यकताएँ, निःस्वार्थ जीवन और आस्थापूर्ण आस्तिक दृष्टिकोण का विकास मनुष्य को सर्वसुखी रखने में सदा सफल हो सकते हैं।