Magazine - Year 1966 - Version 2
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Language: HINDI
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मृत्यु से केवल कायर ही डरते हैं?
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मृत्यु मनुष्य जीवन की एक अवश्यम्भावी घटना है। संसार में कुछ और सत्य अथवा अटल हो या न हो, किन्तु मृत्यु एक अटल एवं अतर्क्य सत्य है। मनुष्य जीवन का उदय और अस्त प्रकृति का एक अनिवार्य नियम है। जो संसार में उत्पन्न हुआ है उसे एक दिन जाना अवश्य है। मृत्यु के सम्बन्ध में इस अखण्ड अनिवार्यता को जानते हुये भी लोग न जाने मृत्यु से डरते क्यों हैं?
मृत्यु का विचार आते ही लोग अजीब तरह से हताश तथा उदास हो जाते हैं। मृत्यु का नाम हृदय पर एक ऐसा धक्का मारता है, जिससे, जब तक उसका प्रभाव दूर नहीं हो जाता, हृदय एक भयपूर्ण विरक्ति से भरा रहता है। मृत्यु का भय उन्हें यहाँ तक कायर तथा मिथ्या पूर्ण बना देता है कि नित्यप्रति अनेक लोगों को मरते देखकर भी अपने मरने की कल्पना में संदिग्धता का समावेश कर लिया करते हैं। भय के कारण वे अपने हृदय में इस सत्य को पूरी तरह स्थान नहीं दे पाते कि एक दिन उन्हें इस संसार को छोड़ ही देना है।
इसमें सन्देह नहीं कि जो मनीषी व्यक्ति मृत्यु के अनिवार्य सत्य को साहस के साथ हृदयंगम कर लेते हैं वे न केवल उसके भय से ही मुक्त रहते हैं, प्रत्युत जीवन का पूरा-पूरा लाभ भी उठाते हैं। जिन्हें यह विश्वास रहता है कि न जाने मृत्यु किस समय अपनी गोद में उठा ले, वे जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग कर लेने में बड़ी तत्परता तथा सतर्कता से लगे रहते हैं। वे बहुत कुछ, मृत्यु की बेला से पूर्व कर डालने के लिये प्रयत्नों में कमी नहीं रखते। मृत्यु का वास्तविक विश्वास उन्हें अधिकाधिक सक्रिय बना देता है।
इसके विपरीत जो मिथ्या विश्वासी मृत्यु से डर-डर कर जीवन में रेंगते हैं वे बेचारे कुछ दूर भी ठीक से नहीं चल पाते और मृत्यु आकर उन्हें पकड़ ले जाती है। मृत्यु जब अटल है अनिवार्य है, तब उससे डरना क्या? मृत्यु से न डरने वाले ही उसे वरण करके चिरंजीवी बनते हैं।
मृत्यु से अभय रहने वाला व्यक्ति उसे एक चुनौती मानकर साहस तथा उत्साहपूर्वक जीता हुआ यह कोशिश करता है कि वह जीवन के राजकुमार की तरह मृत्यु का मेहमान बने। जीवन की तरह मृत्यु भी उसे पाकर कृतार्थ हो जाये।
मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियों में भय की गणना भी की गई है। किन्तु वह भय कायरता का नहीं सतर्कता का लक्षण है। यों तो कोई भी मरना नहीं चाहता। मृत्यु से बचने का हर सम्भव उपाय किया करता है। सड़क पर चलते मोटर से बचना, नदी में नहाते डूबने से सावधान रहना, मृत्यु भय नहीं है। हिंस्र जन्तुओं, रोगों तथा शत्रुओं से जीवन रक्षा करने में यथासम्भव उपायों का करना स्वाभाविक है। निरर्थक एवं निरुद्देश्य मर जाना कोई वीरता नहीं मूर्खता है। ‘हाय मैं मर जाऊँगा’ की भावना ही मृत्यु का वह भय है जो कायरता की कोटि में आता है। मनुष्य को “हाय मर जाऊँगा” की हीन भावना के वशीभूत होकर कायरता का परिचय नहीं देना चाहिये।
‘हाय मर जाऊँगा’ की भावना में रो तड़प कर मृत्यु से बचा तो जा ही नहीं सकता। उल्टे यह भावना जीवन को बोझिल एवं भयावह बना देती है, मृत्यु से निरपेक्ष रह कर जीवन रक्षा का हर सम्भव उपाय करते हुये, मृत्यु आ जाने पर साहसपूर्वक उसका सहर्ष आलिंगन करने में ही पुरुषार्थ की शोभा है। महान मृत्यु के अवसर पर जीवन का मोह एक अश्रेयस्कर दुर्बलता है।
मृत्यु का भय उत्पन्न करने में परलोक की चिन्ता का बहुत बड़ा हाथ है। लोगों का यह सोचते रहना कि मर जाने के बाद न जाने हमारा क्या होगा, हम कहाँ किस लोक अथवा योनि में भ्रमण करेंगे, न जाने हमारी सद्गति होगी अथवा अगति, मृत्यु भय को एक बड़ी सीमा तक बढ़ा देता है? परलोक की चिन्ता ठीक है। वह करनी भी चाहिये। किन्तु इस शुभ चिन्ता से मृत्यु के अशुभ भय का पैदा होना बड़ी ही असंगत तथा अस्वाभाविक बात है। फिर भी परलोक की चिन्ता से लोगों में मृत्यु का भय उत्पन्न होता है। इसका एक मात्र कारण लोक को बिगाड़ कर चलना है। परलोक का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। परलोक इस लोक की ही परिणति है। जिस प्रकार का हमारा लोक होगा हमारे लिये उसी प्रकार के परलोक की रचना होगी। यदि हमने अपने आलस्य, अकर्म, अकर्त्तव्य अथवा अनीति अत्याचार से अपने लोक को दग्ध कर लिया है और ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, काम क्रोध, मोह आदि विकारों तथा वासनाओं से विषैला बना लिया है तो निश्चय ही उसी के अनुसार हमें जलते हुये लोकों को साकार करने पर विवश होना ही होगा। यदि हम जानते हुए भी अपने कर्मों से पतित परलोकों की रचना के लिये लोक में नींव रख रहे हैं तो मृत्यु का भय हमें सतायेगा ही। क्योंकि हम जानते हैं कि जो कुछ हम कर रहे हैं मृत्यु के उपरान्त उसका दण्ड भोगना ही है और इसीलिये मृत्यु की कल्पना आते ही भय से सिहर उठते हैं।
इसके विपरीत यदि हम लोक को परलोक का आधार मान कर उसे सजाने, सँवारने और सुन्दर बनाने के शुभ प्रयत्नों को ईमानदारी से करते रहें तो मृत्यु की कल्पना हमें विभोर करती रहे। क्योंकि हम जानते हैं हम जो कुछ शिव तथा सुन्दर कर रहे हैं वह हमारे लिये मंगलमय परलोक की रचना कर रहा है जिनको हम मृत्यु के उपरान्त पुरस्कार के रूप में पायेंगे।
मनुष्य का विचार सानिध्य भी मृत्यु के विषय में भय अभय का कारण होता है। जिसकी चिन्तन-धारा जितनी अधिक जीवन के समीप रहेगी वह उतना ही कम मृत्यु से डरेगा और जिसके विचार जितना अधिक मृत्यु का चिन्तन करेंगे वह उतना ही उससे भयभीत रहेगा। मृत्यु का चिंतन क्या करना। वह अपने समय पर आयेगी, आती रहेगी। उसका विचार छोड़कर मनुष्य को जीवन की आराधना में लगा रहना चाहिये। चिन्तन का विषय जीवन है मृत्यु नहीं। मृत्यु का चिन्तन करने से जीवनी-शक्ति का ह्रास होता है जिससे मृत्यु का भय स्थायी रूप से सूक्ष्म में बस जाया करता है। ऐसी भय पूर्ण स्थिति में कर्त्तव्यों का पालन यथाविधि नहीं हो पाता जो स्वयं एक बड़ा दुःख प्रसंग होता है। मनुष्य जब ठीक प्रकार से अपने कर्त्तव्यों में लगा रहता है मृत्यु का भय उसके पास नहीं फटकने पाता।
कर्त्तव्यों की आपूर्ति इस विचार के साथ मृत्यु का भय लाती है कि यह नहीं कर पाया वह करने को रह गया है। सारा जीवन बेकार जा रहा है। यों ही दिन गुजर जायेंगे और एक दिन मृत्यु के मुख में चला जाना होगा। मनुष्य अपनी स्थिति के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन तत्परता से करता रहे तो भी मृत्यु का भय उसे नहीं सताने पावे। फिर वह कर्तव्य छोटे हों अथवा बड़े, साधारण हों अथवा असाधारण, कर्तव्यहीन, अकर्मण्यता तो साक्षात् मृत्यु ही कही गई है।
बहुत से लोग अपने बाद की स्थिति पर विचार करते-करते मृत्यु से भयभीत होने लगते हैं। मेरे बाद न जाने क्या होगा मेरे मर जाने पर बीवी बच्चे क्या करेंगे? कहाँ किसका आश्रय लेंगे। पता नहीं उन्हें क्या-क्या कष्ट उठाने पड़ेंगे। इस प्रकार की कल्पनायें निरर्थक जल्पनाएं ही हैं। ऐसे लोग अपने को ही बीबी बच्चों का विधाता समझते हैं। वे समझते हैं कि जब तक वे जिन्दा हैं बीबी बच्चों के लिये स्वर्ग संचय कर रहे हैं उनके न रहने के बाद वे सब यातना पूर्ण नरक में गिर जायेंगे। मानो उन सब की जीवन गाड़ी उनकी जिन्दगी से ही चल रही है जिसके खत्म होते ही सब का खेल खत्म हो जायेगा। दूसरों के लिये अपने को सब कुछ समझना दम्भ है जब हम नहीं थे संसार का सारा काम चल रहा था और जब नहीं रहेंगे तब भी सब काम चलता रहेगा। संसार का कोई काम किसी के न रहने से रुकता नहीं। यह बात सही है कि हमारा जीवन आश्रितों के लिये आवश्यक है। किन्तु इस आवश्यकता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम अपने न रहने की कल्पना के साथ उनका जीवन जोड़कर कायरों की तरह मृत्यु भय से रोते कलपते रहें। अपने बाद की कल्पना के भयावह चित्र बनाने के बदले हमारी बुद्धिमानी इसी में है कि हम मरने से पूर्व ईमानदारी के साथ अपने आश्रितों की बहवूदी के लिये जो कुछ कर सकें करें। ऐसा करने से ही अपने बाद की चिन्ता की सार्थकता है, केवल कल्पना करते रहना मूर्खता ही होगी। मृत्यु को भय का कारण बनाने की अपेक्षा उसे अपने कर्मों का सजग प्रहरी बनाकर चलने वाले सदाशयी व्यक्ति यशस्वी जीवन के अधिकारी बनते हैं।