Magazine - Year 1967 - Version 2
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Language: HINDI
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हमारी आध्यात्मिक क्राँति और प्रबुद्ध व्यक्ति
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स्वाधीनता प्राप्ति के बाद से ही भारतवर्ष में भी समाज-परिवर्तन की चर्चा तेजी से होने लगी है। बुद्धि-विनियोग से लेकर शिक्षा-पद्धति, रहन-सहन, आचार-विचार आज सभी अपभ्रंश दिखाई दे रहे हैं। कानूनी ढाँचा , आर्थिक स्तर, औद्योगिक उन्नति के सभी क्षेत्र विश्रृंखलित दिखाई दे रहे हैं, वैसे ही हमारी नैतिक प्रवृत्तियों में भी निरन्तर ह्रास हो रहा है। जहाँ व्यक्तिगत चरित्र दूषित हुये हैं वहाँ राष्ट्रीय आचरण भी पिछले बीस वर्षों में गिरा ही है ।
समाज की सभ्य और सुसंस्कृत रचना प्रबुद्धवर्ग के व्यक्तियों के हाथों ही सम्पन्न होती है , होनी है , पिछले लेख में यह स्पष्ट हो चुका है। ऐसी जन-क्राँतियाँ भारतवर्ष में पहले भी हो चुकी हैं। यह कोई अनहोनी बात नहीं होने जा रही। बुद्ध, राम, कृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द के काल में ऐसी क्राँतियाँ हुई और सामाजिक स्वरूप परिवर्तित हुआ। इतिहास उसकी पुनरावृत्ति करना चाहता है।
शिक्षित और विचारशील व्यक्तियों के संगठित प्रयत्नों के फलस्वरूप सोवियत-संघ, अमेरिका, क्यूबा, चीन, जापान में आर्थिक, औद्योगिक, वैज्ञानिक, शैक्षणिक, साँस्कृतिक क्राँति के मुख्य उद्देश्य पर काम करना सम्भव हो सका तो भारतवर्ष में भी वैसी क्राँति लाई जा सकती है। योजनाबद्ध क्रियाशीलता समाज के प्रबुद्ध व्यक्तियों के हाथ सौंप कर, उन्हें उद्देश्यपूर्णता का बल देकर समाज के रुग्ण रोग का उपचार किया जा सकता है, उसके लिए जन-मानस बन भी रहा है।
स्वाधीनता संग्राम भी इन्हीं परिस्थितियों में लड़ा गया था। काँग्रेस आज देश की सर्वोच्च शक्तिशाली पार्टी के रूप में देश भर में कार्य कर रही है, वह भी थोड़े से प्रबुद्ध व्यक्तियों के संगठन पर इतना विशाल आकार ग्रहण कर सकी। इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि इटावा के कलक्टर सर ह्यूम ने जब काँग्रेस की नींव रखी थी तो उसके सदस्यों की जनसंख्या उँगलियों पर गिने जाने से भी कम थी, पर वह सभी विचारशील व्यक्ति थे, विचारों की आग फैलाकर ही इन थोड़े से लोगों ने एक विशाल संगठन पैदा कर लिया और राष्ट्र के राजनैतिक ढाँचे को बदल डाला।
अब जो परिस्थितियाँ अवशेष हैं उनमें आर्थिक और औद्योगिक युद्ध राजनैतिक स्तर पर लड़ा जा रहा है, प्रबुद्ध व्यक्तियों का एक बड़ा वर्ग उधर खिंच गया है। थोड़े से ऐसे कर्मठ व्यक्ति चाहिये जो राजनैतिक दिशा से मुख मोड़ कर अपनी नेतृत्व शक्ति का उपयोग जौन गार्डनर, बौव वुड, चार्ली हौर, कोन्सतान्तित-त्सियोल्कोव्स्को, इवान पावलोव, सनयात सेन और कागावा की तरह नैतिक, साँस्कृतिक और सामाजिक क्राँतियों में कर सकें। प्रभावशील जन नेतृत्व और प्रबुद्ध व्यक्तियों के संगठित प्रयास राष्ट्र के वर्तमान ढाँचे को बदल डालने के लिए काफी हैं।
किन्तु इस घोषणा से पूर्व हमें भारत की विशिष्ट परम्पराओं, संस्कारों एवं मनोवृत्तियों का विस्तृत अध्ययन करना आवश्यक है। काँग्रेस ने राष्ट्र की उन्नति के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किये हैं किन्तु उसकी प्रतिष्ठा गिर रही है, इसका एक कारण है। वह यह कि- उसने देशवासियों के संस्कार और उनकी मनोवृत्ति को नहीं समझा या समझने की चेष्टा नहीं की। जो पार्टियाँ विजयी हो रही हैं उनमें जिनका भविष्य उज्ज्वल है वे ऐसी ही होंगी जिन्होंने यहाँ की आत्मा का गहन अध्ययन किया होगा।
धर्म और अध्यात्म भारत की आत्मा है, प्राण है, सर्वस्व है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-”मैं तुम्हारी बात जानता हूँ, नास्तिकों जैसी बात कर के भी तुम धर्म को नहीं ठुकरा सकते क्योंकि वह तुम्हारे संस्कारों में बस गया है।”
राजनीति हो अथवा शिक्षा-नीति हमारी मनोवृत्ति दार्शनिक है। हम धर्म और अध्यात्म को जीवन का पूर्ण उद्देश्य मानते हैं अन्य किसी भी लक्ष्य के लिये उसे ठुकरा नहीं सकते। कोई भी सामाजिक क्राँति लाने के लिये इस मनोवृत्ति का ज्ञान होना परम आवश्यक है। राजनीतिक क्राँति भी महात्मा गाँधी के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के साथ-साथ चल सकी थी। उसे हरगिज नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि हमारी हर साँस धर्म है, हम धर्म खाते हैं, धर्म कमाते हैं, सोने, उठने, बैठने, बोलने पढ़ने का सारा विकास क्रम धार्मिक मनोभूमि पर टिका है। तो फिर उसे छोड़ा नहीं जा सकता । हमारा अस्तित्व ही धर्म है यों मानना चाहिये ।
इसलिये भावी सामाजिक क्राँति में जिन लोगों को भाग लेना है भारतवर्ष में उनकी विशिष्टता प्रबुद्ध होना ही काफी नहीं आध्यात्मिक होना भी आवश्यक है। उनका ज्ञान सामान्य स्थिति से आत्म-दर्शन, जीवन-कला, जीव-विज्ञान और ब्रह्म-विद्या से जुड़ा हुआ हो तो समाज उनकी बात सुनने और मानने को तैयार होगा। प्रवर्त्तकों को इस विचारधारा के अनुरूप योजनायें और प्रशिक्षण देकर प्रबुद्ध व्यक्तियों को क्रान्तिकारी तैयार करना चाहिये। समाज के भावी निर्माण का कार्य केवल ऐसे ही व्यक्तियों द्वारा सम्भव होगा। भारतवर्ष की यह विशिष्टता उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए बनी भी रहनी चाहिये । इसे भविष्यवाणी भी कह सकते हैं और देश पर परमात्मा की कृपा भी कह सकते हैं मूल बात एक ही है कि देह, मन और आत्माओं में बसे आध्यात्मिक संस्कारों को न तो राजनीति की ब्लीचिंग साफ कर सकती है और न अभारतीय शिक्षा और समाजवाद।
आज बड़े-बड़े कार्यकर्त्ताओं के सामने यह असमंजस उपस्थित है । तब यह सोचना आवश्यक है कि समाज के अभिनव निर्माण का स्वरूप किस तरह निर्मित किया जाय, उसे कौन सा विनियोग प्रदान किया जाये ।
अन्य राष्ट्रों के सामाजिक परिवर्तनों का संक्षिप्त इतिहास भी यों प्रस्तुत है और भारतीय परिस्थितियों का विश्लेषण भी। उसे देख कर यह भविष्य वाणी की जा सकती है कि हम परिवर्तन को ला सकते हैं यदि सूत्र संचालन के लिए थोड़े से प्रबुद्ध व्यक्ति उठ खड़े हों, जो आध्यात्मिक ज्ञान के साथ आध्यात्मिक उद्देश्य भी लिये हों। उनमें इतना गौरव रहना चाहिये कि वे देश के भावी निर्माण के लिए उच्चतम त्याग, अधिकतम परिश्रम, लगन और कर्मठता तथा आदर्श और सिद्धाँतों की शिला पर उद्देश्य प्राप्ति तक निष्ठापूर्वक सुदृढ़ बने रह सकते हैं।
सारा देश आज अपने आपको बदल डालने के लिये अकुला रहा है। वातावरण बदल रहा है, परिस्थितियां बदल रही हैं, दृष्टिकोण बदल रहे हैं। यह राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य का प्रतीक है पर यह भी नहीं भूलना चाहिये कि आदर्श, दिशा और विश्वासों से विभ्रमित समाज रास्ते से कुरास्ते में भी चल पड़ सकता है। वर्तमान झुकाव है उसी ओर। उसे रोकने के लिये आध्यात्मिक क्राँति ही अब विकल्प रह गया है।
भारतीय संस्कृति के आध्यात्म स्तम्भों वाला दुर्ग लगभग ढह चुका है। आस्तिकता और कर्तव्यपरायणता की नींव हिल चुकी है। नीति और सदाचरण की चौपाल फूट रही है। आदर्श और सिद्धान्तों के द्वार अस्त-व्यस्त हो चुके। स्वास्थ्य, मनोबल, सुदृढ़ गृहस्थ, जातीय संगठन का मसाला लगभग समाप्त-सा है। उस दुर्ग पर दखल देने के लिये बाह्य संस्कृतियाँ अवसर ढूँढ़ रही हैं। ऐसे समय प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति का यह कर्तव्य हो गया है कि वह देश की आध्यात्मिक क्राँति की भूमिका निभाने में हिस्सा ले। यह अन्तिम समय, अन्तिम चेतावनी है। अभी भी राष्ट्र सजग न हुआ तो भारतीय संस्कृति का सूर्य अस्त ही हुआ मानना चाहिये। उसके साथ-साथ हिन्दू जाति का अस्तित्व भी समाप्त हुआ समझना चाहिये।