Magazine - Year 1967 - Version 2
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Language: HINDI
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आधुनिक युग में विश्व-धर्म का विस्तार
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सत्य के खोजियों ने मनुष्य-मनुष्य के बीच पाये जाने वाले तरह-तरह के भेदभावों को- जो पुराने जमाने में प्रत्यक्ष जानकारी और अनुभव की कमी के कारण उत्पन्न हो गये थे- मिटाकर एक विश्व-धर्म, विश्व-राज्य आदि का महत्व और आवश्यकता प्रतिपादित की है। यद्यपि ये विचार प्राचीन काल में भी, विशेष रूप से भारतवर्ष में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ के रूप में प्रकट किये गये थे, पर उस समय थोड़े से मनीषी और सज्जन प्रकृति के व्यक्ति ही इसका महत्व समझते थे और वैसा आचरण करने का प्रयत्न करते थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार तो उस जमाने में अनेक व्यक्तियों मनुष्यों के लिये ही नहीं पशु-पक्षियों तक के लिये प्राणों का बलिदान कर दिया था। इसका कारण उन महानुभावों की विश्व-व्यापी आत्म-तत्व में दृढ़ निष्ठा होना ही था। पर उस समय सर्वसाधारण तक इन विचारों के पहुँचने का कोई साधन न था। इतना ही नहीं जो सामान्य धर्म-प्रचारक जन साधारण के संपर्क में आते भी थे और कथा आदि के रूप में उनको धर्म की बातें बतलाते थे, वे अपने लाभ की दृष्टि से राजाओं और श्रीमान लोगों का ही गुणगान करते थे। अठारहवीं शताब्दी में योरोप में रूसो, कान्ट, सेण्ट साइमन आदि विचारकों ने मानवीय अधिकारों का प्रतिपादन किया और एक तन्त्र के स्थान पर जनतन्त्र की स्थापना पर जोर दिया, पर उनके लेखों में विश्व-राष्ट्र और विश्व-धर्म जैसी कल्पना नहीं है।
हाँ मार्क्स ने सन् 1864 के आस पास च्ंखशह्द्मद्गह्ह्य शद्ध ह्लद्धद्ग ख्शह्द्यस्र ह्वठ्ठद्बह्लद्गज् (संसार के श्रमजीवियों मिलकर एक हो जाओ।) का नारा दिया और कहा कि संसार के सभी मजदूर एक ‘वर्ग’ के हैं और उनका हित इसी में है कि वे अपने विरोधी पूँजीपति वर्ग (कैपिटैलिस्ट्स) का संघबद्ध रूप में मुकाबला करें और संसार में एक वर्ग विहीन समाज की स्थापना करें। मार्क्स का सिद्धान्त आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, पर वर्तमान समाज का अस्तित्व केवल अर्थ पर ही नहीं है। चाहे साम्यवादी कुछ भी कहें, पर अब भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो धर्म सम्बन्धी विषय को आर्थिक और राजनीतिक विषयों से अलग मानते हैं और उसके लिये बहुत कुछ हानि सहन कर सकते हैं। इसलिये मार्क्स का कम्यूनिज्म का सिद्धान्त महत्वपूर्ण होते हुये भी समस्त सामाजिक दोषों के निराकरण का उपाय नहीं हो सकता।
विश्व-धर्म के आधुनिक प्रचारक -
इस दृष्टि से विचार करने पर विश्वधर्म, विश्वराज्य और विश्वभाषा के आधुनिक प्रचारकों में सबसे पहले बहाई-समाज के संस्थापक महात्मा बहा की गिनती की जा सकती है। यद्यपि उनका जन्म ईरान के एक उच्च वंश में हुआ था और उनके पूर्वज बलपूर्वक पारसी धर्म को छोड़कर इस्लाम धर्म में दीक्षित किये जा चुके थे, पर उन्होंने जिन सिद्धान्तों और आदर्शों का प्रचार किया वे मुस्लिम धर्माधिकारियों को इतने इस्लाम विरोधी जान पड़े कि उन्होंने महात्मा बहा और उनके अनुयाइयों पर कहर बरसा दिया और हजारों निर्दोष पुरुष, स्त्री और छोटे-छोटे बच्चों तक को इतनी बेरहमी से मारा कि दुनिया त्राहि-त्राहि करने लगी।
इस बलिदान का परिणाम यह हुआ कि दुनिया के अनेक देशों के लोगों का ध्यान धीरे-धीरे बहाई सिद्धान्तों की तरफ हो गया। मैंने स्वयं इस सम्बन्ध में एक बड़ा लेख मेरठ से प्रकाशित होने वाली ‘ललिता’ मासिक पत्रिका में सितम्बर 1918 में छपाया था, जिसमें इसकी उपयोगी शिक्षाओं का वर्णन था। महात्मा बहा ने आरम्भ में ही सब धर्मों की महत्ता स्वीकार करते हुये कहा है-
“कोई एक सच्चाई दूसरी सच्चाई का खण्डन नहीं करती है। प्रकाश चाहे किसी भी दीप में हो रहा हो, प्रकाशमय है। गुलाब का फूल सदा सुन्दर होता है, चाहे वह किसी भी बाग में खिले। तारों में वही उज्ज्वलता होती है चाहे वे पूर्व दिशा में चमकें या पश्चिम में। पक्षपात को छोड़ दो ताकि सत्य के सूर्य से प्रेम कर सको, चाहे वह क्षितिज के किसी भी भाग से उदय हो।”
जब तक धर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार की भावना का आश्रय नहीं लिया जायगा। तब तक विश्व-धर्म की बात मुँह से निकालना ही व्यर्थ है। भारतीय धर्म के मूल ग्रन्थों का यह मत तो हम पहले ही बतला चुके हैं कि उनके अनुसार ईश्वर प्राप्ति के सभी विभिन्न मार्ग ठीक हैं और देर था सबेर सब एक ही लक्ष्य पर पहुँच जायेंगे। महात्मा गाँधी ने भी उसी तथ्य का समर्थन करते हुये कहा था कि ‘सभी धर्म सच्चे हैं पर साथ ही उनमें अपूर्णता भी है’ इसलिये हमको सहानुभूतिपूर्वक उनमें संशोधन और समन्वय करने का प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा करने से ही मनुष्य जाति का वर्तमान नाशकारी संघर्ष से परित्राण हो सकता है। यही बात ‘बहाई नियम’ की पुस्तक में भी कहीं गई है- “इस नवीन प्रकाशमान युग में ईश्वर ने जो ज्ञान संसार को प्रदान किया है, वही मनुष्यों का एकीकरण तथा धर्म की मूल एकता है। इसके फलस्वरूप राष्ट्रों के मध्य युद्ध का अन्त हो जायगा तथा ईश्वर के दिव्य प्रकाश से एक अखण्ड शान्ति का प्रसार होगा”
इस समाज के जो उद्देश्य 70 वर्षों पूर्व संसार में प्रचारित किये गये थे वे सब ऐसे हैं कि किसी भी मजहब का कोई भी व्यक्ति उनका विरोध या खण्डन नहीं कर सकता। जिस प्रकार भारतीय शास्त्रों में वर्णित धृति, क्षमा, निरहंकार आदि धर्म के लक्षण शाश्वत है उसी प्रकार ये नियम भी वर्तमान स्थिति में अनिवार्य हैं-
(1) मनुष्य मात्र की एकता, (2) सत्य का स्वतन्त्र अनुसंधान, (3) समस्त धर्मों की नींव एक है, (4) धर्म को अनिवार्य रूप से एकता का साधन होना चाहिये, (5) धर्म को विज्ञान तथा तर्क के अनुकूल होना चाहिये, (6) पुरुषों तथा स्त्रियों की समानता, (7) सब प्रकार के पक्षपातों का पूर्णरूप से त्याग, (8) विश्व-व्यापी शाँति, (9) विश्व -व्यापी शिक्षा, (10) अर्थ-समस्या का आध्यात्मिकता के आधार पर समाधान, (11) एक विश्व-व्यापी भाषा, (12) एक अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय।”
ईसाइयों का ‘क्वेकर’ सम्प्रदाय -
ईसाई धर्म के मुख्य सिद्धान्त क्षमा और प्रेम है। महात्मा ईसा ने इन सिद्धान्तों को केवल मुख से ही नहीं कहा वरन् इन पर पूर्ण रूप से आचरण किया और अपने को बलिदान कर दिया। इस महान आत्म-त्याग के प्रभाव से ईसाइयों में सदैव ऐसी आत्मायें प्रकट होती रहती हैं जो त्याग और तपस्या के मार्ग को अपना कर प्राणियों की सेवा और परोपकार के मार्ग पर चलकर उज्ज्वल उदाहरण उपस्थित करती हैं। ऐसे लोगों ने ही कुछ सौ वर्ष पहले ‘क्वेकर’ सम्प्रदाय की स्थापना की थी जिसके अनुयायी बहुत सादा और कठोर जीवन अपना कर धर्मकार्यों में अपने साधन और शक्ति का उपयोग करते थे। ये लोग मानव-जाति की एकता तथा विश्व-शाँति में भी विश्वास रखते थे और इन्होंने सन् 1640 इंग्लैण्ड के बादशाह चार्ल्स द्वितीय के सम्मुख अपने सिद्धान्तों का घोषणा-पत्र उपस्थित करते हुये कहा था-
‘हम सभी प्रकार के युद्ध तथा कलह और किसी भी उद्देश्य या बहाने को आधार बना कर संघर्ष उत्पन्न करने के विरुद्ध हैं और समस्त संसार के सम्मुख हमारी यही प्रतिज्ञा है। ईसा की जो आत्मा हमारा पथ-प्रदर्शन करती है वह बदलने वाली नहीं है। वह ऐसी नहीं है कि एक बार हमें बुराई से दूर रहने का आदेश देकर फिर बुराई की ओर ले जाय। हम निस्सन्देह रूप से जानते हैं और विश्व के समक्ष निष्ठापूर्वक घोषणा करते हैं कि सत्य की ओर ले जाने वाली ईसा की आत्मा कभी भी इहलोक अथवा परलोक के प्रभुत्व के लिये किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध हमें अस्त्र-युद्ध की ओर न ले जायगी।”
ये क्वेवर लोग कैसे पक्के मानवतावादी होते थे इसका एक नमूना डेलवेयर (अमरीका) के निवासी टामस गैरेट की घटना से मिलता है। पाठक जानते होंगे कि अमरीका में हब्शियों को दास बना कर उन पर अमानुषिक अत्याचार करने की कलंकपूर्ण प्रथा बहुत अधिक फैली हुई थी। इसने वहाँ के कई प्रदेशों में इतनी गहरी जड़ जमाली है कि इसका उच्छेद करने के परिणाम स्वरूप दो महामानवों- लिंकन और कैनेडी को अपना बलिदान कर देना पड़ा है। टामस गैरेट सामान्य नागरिक होते हुये भी इस पापपूर्ण प्रथा के विरुद्ध थे और वे गोरे होते हुये भी काले हब्शी गुलामों की, जो किसी प्रकार राक्षस रूपी मालिकों से जान बचाकर भाग जाते थे हर तरह से सहायता किया करते थे। दास प्रथा के पक्षपातियों ने उनको इसी ‘अपराध’ के लिये गिरफ्तार कर लिया और कारावास तथा जुर्माने की सजा दी गई। जुर्माना इतना भारी था कि उसने गैरेट को आर्थिक दृष्टि से बिल्कुल कंगाल बना दिया। फिर भी उन्होंने भरी अदालत में सिर ऊँचा करके जोरदार शब्दों में कहा-
“जज। तूने मेरे पास एक डालर (रुपया) भी नहीं रहने दिया। लेकिन मैं तुझसे और इस अदालत में उपस्थित सभी लोगों से कहना चाहता हूँ कि यदि किसी को ऐसे भगोड़े की जानकारी हो, जिसे रहने के स्थान और सहायता देने वाले की दरकार हो, तो उसे टामस गैरेट के पास भेज दिया जाय। टामस गैरेट मित्र की तरह उसकी मदद करेगा।”
इस प्रकार के सच्चे मानवतावादियों के उदाहरण चाहे संसार भर में दस-बीस ही हों तो भी वे इस सत्य पर हमारी आस्था को दृढ़ करने के लिये पर्याप्त हैं कि यह संसार वास्तव में एक ही ‘स्रोत’ से प्रकट हुआ है और वर्तमान समय के घोर संघर्षों और कलह के होते हुये भी अन्त में एक होकर रहेगा। इस विश्वास को अभी कुछ समय पहले ईसाई धर्म के एक बहुत बड़े नेता सर फ्राँसिस यंगहस्वैण्ड ने एक घोषणा पत्र में दुहराया था-
“संसार का पुनर्संगठन सूक्ष्म जगत में आरम्भ हो गया है। इसके पहले एक श्रेष्ठ संसार की रचना के लिये इतना अधिक उत्साह और तत्परता कभी दिखलाई नहीं पड़ी। संसार में नवीन युग की स्थापना के लिये हमको सब धर्मों के अनुयाइयों की आध्यात्मिक प्रेरणा पर सबसे अधिक भरोसा रखना चाहिये। जिस प्रकार यह नवयुग किसी एक देश के रहने वालों की कोशिश से नहीं आयेगा, वरन् उसके लिये सभी देशों के निवासियों को परिश्रम करना पड़ेगा, उसी प्रकार यदि संसार के सभी धर्मों के अनुयायी विश्व कल्याण के लिये आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न करना चाहते हैं तो उनको भी मिलकर एक होना पड़ेगा।” (कामनवील, मेलबोर्न)
केवल धर्म-प्रचारक ही नहीं योरोप के दार्शनिक और अन्य विद्वान भी इस सत्य को बहुत समय से अनुभव करने लग गये थे कि संसार का अन्तिम लक्ष्य एक विश्वव्यापी मानव-समाज की स्थापना करना ही है और वह एक दिन अवश्य प्राप्त होगा। फ्रान्स के महान् दार्शनिक हेनरी बर्गर्सा ने एक स्थान में लिखा था-
“हमको समझ लेना चाहिये कि तमाम मनुष्यों का ईश्वर एक ही है। उसकी एक ही झलक द्वारा, जो सब मनुष्यों को प्राप्त हो सकनी सम्भव है। पारस्परिक कलह का अन्त हो जायगा।”
इंग्लैंड के महान् इतिहासकार ‘कार्लाइल’ ने अपने च्स्द्बद्दद्धठ्ठह्य शद्ध ञ्जद्बद्वद्गह्यज् (साइन्ज आफ टाइम्स), ग्रन्थ में कहा है-
च्च्ञ्जद्धद्ग श्चद्यड्डद्बठ्ठ ह्लह्ह्वह्लद्ध, क्द्गह्ब् श्चद्यड्डद्बठ्ठ, ख्द्ग ह्लद्धद्बठ्ठद्म, द्बह्य ह्लद्धड्डह्लंक्तशठ्ठद्ग द्धड्डह्य ड्ड द्धद्बद्दद्धद्गह् खद्बह्यस्रशद्व, ड्ड द्धद्बह्लद्धद्गह्ह्लश ह्वठ्ठद्मठ्ठशख्ठ्ठ ह्यश्चद्बह्द्बह्लह्वड्डद्य ह्लह्ह्वह्लद्ध द्बठ्ठ द्धद्बद्व, द्बह्य ह्यह्लह्शठ्ठद्दद्गह्, ठ्ठशह्ल ह्लद्धड्डठ्ठ ह्लद्गठ्ठ द्वड्डठ्ठ ह्लद्धड्डह्ल द्धड्डक्द्ग द्बह्ल ठ्ठशह्ल, ठ्ठशह् ह्लद्धड्डठ्ठ ह्लद्गठ्ठ ह्लद्धशह्वह्यड्डठ्ठस्र, ड्ढह्वह्ल ह्लद्धड्डठ्ठ ड्डद्यद्य द्वद्गठ्ठ ह्लद्धड्डह्ल द्धड्डक्द्ग द्बह्ल ठ्ठशह्ल, ड्डठ्ठस्र ह्यह्लड्डठ्ठस्र ड्डद्वशठ्ठद्द ह्लद्धद्गद्व ख्द्बह्लद्ध ड्ड ह्नह्वद्बह्लद्ग द्गह्लद्धद्गह्द्गड्डद्य ड्डठ्ठद्दद्गद्यद्बष् श्चशख्द्गह्, ड्डह्य द्बद्ध ख्द्बह्लद्ध ड्ड ह्यशख्ह्स्र शह्वह्ल शद्ध ॥द्गड्डक्द्गठ्ठज्ह्य शख्ठ्ठ ड्डह्द्वशह्वह्ब्, ख्द्धद्बष्द्ध ठ्ठश ड्ढह्वष्द्मद्यद्गह् ड्डठ्ठस्र ठ्ठश ह्लशख्द्गह् शद्ध ड्ढह्ड्डह्यह्य ख्द्बद्यद्य द्धद्बठ्ठड्डद्यद्यब् ख्द्बह्लद्धह्यह्लड्डठ्ठस्र.ज्ज्
अर्थात्- “यह एक सरल, स्पष्ट और परम सत्य बात कि जिस महापुरुष में दैवी प्रज्ञा और अभी तक सर्वसाधारण से अज्ञात आध्यात्मिक शक्ति विद्यमान है, वह दस, बीस या हजार-दस हजार व्यक्तियों की अपेक्षा ही नहीं वरन् संसार के उन सभी मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली है, जिनमें ये गुण नहीं पाये जाते। वह महात्मा एक सूक्ष्म शक्ति के प्रभाव से संसार भर में इस प्रकार दृढ़ रहता है, मानो उसके हाथ में ईश्वरीय शस्त्रागार का एक ऐसा विशेष खड्ग हो जिसके मुकाबले में संसार की समस्त सैनिक सज्जा प्रभावहीन सिद्ध हो जाय।”
इस सब का आशय यही है कि यद्यपि पश्चिमी जगत में गत सौ-डेढ़ सौ वर्षों से वैज्ञानिक सिद्धान्तों का अधिक जोर रहा है, जिसने धर्म और ईश्वर सम्बन्धी विचारों की जड़ हिला दी थी, तो भी वहाँ के जन-मानस में एक चैतन्य सत्ता के आधिपत्य और तदनुसार आचरण की भावना विद्यमान थी और वह बराबर वहाँ के विचारशील विद्वानों द्वारा प्रकट होती रहती थी। परिणाम यह हुआ कि बड़े-बड़े पदवीधारी भी उससे प्रभावित हुये और टॉलस्टाय, क्रोपाटकिन, बरट्रैण्ड रसल जैसे राजवंशों से सम्बन्धित व्यक्ति उसमें सम्मिलित हो गये और मानव मात्र की एकता और समानता का प्रतिपादन करने लगे। बरटैण्ड रसल जैसे अनीश्वरवादी ने भी सन् 1954 में एक घोषणा में स्पष्ट कह दिया-
च्च्ढ्ढ ड्डश्चश्चद्गड्डद्य ड्डह्य ड्ड द्धह्वद्वड्डठ्ठ ड्ढद्गद्बठ्ठद्द ह्लश द्धह्वद्वड्डठ्ठ ड्ढद्गद्बठ्ठद्दह्य; ह्द्गद्वद्गद्वड्ढद्गह् ब्शह्वह् द्धह्वद्वड्डठ्ठद्बह्लब् ड्डठ्ठस्र द्धशह्द्दद्गह्ल ह्लद्धद्ग ह्द्गह्यह्ल. ढ्ढद्ध ब्शह्व ष्ड्डठ्ठ स्रश ह्यश, ह्लद्धद्ग ख्ड्डब् द्यद्बद्गह्य शश्चद्गठ्ठ ह्लश ड्ड ठ्ठद्गख् श्चड्डह्ड्डस्रद्बह्यद्ग, द्बद्ध ब्शह्व ष्ड्डठ्ठ ठ्ठशह्ल, ठ्ठशह्लद्धद्बठ्ठद्द द्यद्बद्गह्य ड्ढद्गद्धशह्द्ग ब्शह्व ड्ढह्वह्ल ह्वठ्ठद्बक्द्गह्ह्यड्डद्य स्रद्गड्डह्लद्ध.ज्ज्
“मैं एक मानव की हैसियत से अन्य मानवों से आग्रह पूर्वक कहना चाहता हूँ कि- केवल यही स्मरण रखो कि तुम मनुष्य हो और शेष समस्त भेदभावों को भूल जाओ। अगर तुमने ऐसा किया तो तुम्हारे सामने एक नये स्वर्ग का द्वार खुल जायगा और यदि तुम ऐसा करने से विमुख रहे तो सिवाय ‘विश्व-व्यापी-मृत्यु’ के तुमको और कुछ नहीं मिल सकता।”
भारतीय विचारक :-
भारतीय विचारक अपने अध्यात्मवादी दृष्टिकोण के कारण सदा से विश्व मानवता के उपासक रहे हैं। इस युग में भी श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, ठा॰ रवीन्द्रनाथ, महर्षि रमण, महायोगी अरविन्द आदि ने जो कुछ कहा है वह किसी एक देश या किसी विशेष धर्म को लक्ष्य करके नहीं कहा है वरन् उनके उपदेश संसार के सभी मनुष्यों के लिये हैं और वे यही चाहते थे कि सब लोग उनसे लाभ उठावें। यही कारण है कि सब देशों के व्यक्ति उनके पास आते थे और आध्यात्मिकता का प्रसाद ग्रहण करते थे। इन शिक्षाओं का साराँश बंगाल के ठाकुर दयानन्द ने अब से पचास वर्ष पूर्व अपनी ‘विश्व शान्ति’ नामक बंगला पुस्तक में इस प्रकार दिया था-
“मानव जाति के जीवन-इतिहास में एक संधि काल आया हुआ है। विश्व-रंगमंच पर से एक तरफ होकर प्राचीन निकला जा रहा है और दूसरी तरफ से नवीन आकर उसका स्थान ग्रहण कर रहा है। आज पुराना संसार टूट रहा है और नये का निर्माण हो रहा है। किसी भी इमारत का निर्माता पहले उसको अपने मन में बना लेता है, तब वह स्थूल रूप में प्रकट होती है। विश्व रचना के पीछे भी एक ऐसा ही ‘प्लान’ ‘डिजाइन’ या ‘स्कीम’ है। वह ‘अतिमानव’ संसार की दृष्टि से अगोचर रह कर इस नये जगत की सृष्टि कर रहा है। संसार के नर नारियों की जीवन धारा इसी योजना के प्रभाव से परिवर्तित हो रही है। पर वे अधिकाँश में अज्ञान, अनिच्छा, ताड़ना से बाध्य होकर बदल रहे हैं। इन लोगों का व्यवहार नदी की धारा के विरुद्ध तैरने के समान है, इसी से सर्वत्र इतनी अशान्ति, दुःख, कष्ट दिखाई पड़ रहे हैं। यदि वे भगवान की योजना को समझ कर परिपूर्ण इच्छा से धारा के साथ तैरने लगें तो संसार के सब दुःख मिट सकते हैं और विश्व-मानवता का प्राकट्य होकर सर्वत्र सुख -शान्ति दिखाई पड़ने लगेगा।”
थियोसॉफी की आध्यात्मिक विचार-धारा-
भारतीय धर्म को विश्व-व्यापी रूप देने में ‘थियोसोफिकल सोसाइटी’ ने बड़ा काम किया है। यद्यपि यह प्रचार-कार्य मैडम ब्लेवटस्की, कर्नल अल्काट, एनी बेसेन्ट जैसे विदेशी महानुभावों ने चलाया, पर इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने भारतीय धार्मिक आदर्शों को बहुत परिष्कृत रूप देकर सभ्य-संसार के सभी देशों में सुपरिचित बना दिया। थियोसॉफी का आधार भारतीय अध्यात्म ही है और इसलिये इस समाज का नाम हिन्दी में ‘ब्रह्मविद्या समाज’ ही लिखा जाता है। आध्यात्मिकता के आधार पर यह भी एक ही मानव-जाति और विश्व-मानव की अनुयायी है। इसका समर्थन करते हुये इसके वर्तमान अध्यक्ष श्री जिनराजदास ने एक पुस्तिका में लिखा है-
“मनुष्य जाति जीवन की एकता को भूल कर सुख और शान्ति की खोज में, नाना प्रकार के स्वार्थ साधन में निरन्तर लगी रहने पर भी सुख और शान्ति के निकट नहीं पहुँच पा रही है, उल्टे ईश्वर की सर्वव्यापकता के सत्य-सिद्धान्त को भूल कर अकेले अलग-अलग सुखी बनने के लिये जितना ही अधिक हाथ पैर मार रही है, वह उतना ही जीवन की समस्याओं को जटिल बना कर उसके जाल में फँस कर अपना नाश कर रही है। जीवन की समस्याएँ आज ऐसी उलझन में पड़ गयी हैं कि मनुष्य-मनुष्य में, जाति-जाति में, सम्प्रदाय-सम्प्रदाय में, राष्ट्र-राष्ट्र में, सम्पूर्ण मनुष्य जाति परस्पर संघर्ष की ज्वाला में भस्म होने को दौड़ी जा रही है। यह ब्रह्म विद्या ही एक ऐसा मार्ग है जिसके अध्ययन और आचरण द्वारा इस समय सम्पूर्ण जीवन की एकता, और मनुष्य-मनुष्य में चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, हिन्दू हो या मुसलमान, बौद्ध हो या ईसाई, एशिया का रहने वाला हो या योरोप, अफ्रीका और अमेरिका का, बड़ा हो या छोटा, अमीर हो या गरीब सब में एकता और भ्रातृभाव की स्थापना हो सकती है।”
सत्य-समाज का बुद्धिवाद और तर्कवाद-
वर्तमान समय में सत्य-समाज के संस्थापक ने विश्व धर्म, विश्व-राष्ट्र और विश्वभाषा की चर्चा उठाई है और उनके सिद्धान्त भी बहाई-समाज के समान मनुष्यों के भाई चारे और शान्ति की शिक्षा देने वाले हैं। यद्यपि अभी देश में उनका प्रचार अधिक नहीं हो सका और सत्य-समाज का संगठन कुछ सौ या हजार लोगों तक ही सीमित है, पर तो भी उनके विचार ध्यान देने योग्य और महत्वपूर्ण हैं। उनकी पहली विशेषता तो यह है कि वे भारतीय परिस्थिति को ध्यान में रख कर निश्चित किये जाते हैं और दूसरी यह कि किसी खास धर्म से सम्बन्ध न जोड़ कर सर्व-धर्म-समभाव की भावना से प्रकट किये गये हैं। उनका यह भी कहना है कि “कोई शास्त्र मेरे लिये प्रमाण नहीं, मैं इस दुनिया को ही महा शास्त्र मानता हूँ”-
भाई पढ़ले यह संसार।
खुला हुआ है महा शास्त्र यह शास्त्रों का आधार।
“विकासवाद के आधार पर जब धर्मों का अध्ययन किया जाता है तो विदित होता है कि जिस युग में मनुष्य का जितना विकास हुआ उस युग में पैदा होने वाला धर्म भी उतना ही विकसित था। जंगली-युग का धर्म भी जंगली ढंग का होगा वैज्ञानिक युग का वैज्ञानिक ढंग का। इसलिये मेरी दृष्टि में न तो कोई ‘धर्म’ पूर्ण सत्य होता है न सदा-सर्वदा के लिये उपयोगी। वह अपने देश काल की माँग पूरी करता है। जिस प्रकार मानव जाति का क्रमशः विकास हुआ उसी प्रकार धर्म का भी विकास धीरे-धीरे हुआ है। इसलिये मैं प्राचीनता के कारण किसी धर्म को महत्व नहीं देता वरन् कोई अन्य कारण न हो तो प्राचीनता से उसके अविकसित होने की ही कल्पना करता हूँ।
“इतना होने पर भी मैं राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जरथुस्त्र, ईसा, मुहम्मद, कार्लमार्क्स आदि का सम्मान करता हूँ, उनकी पूजा करता हूँ, उनकी मूर्ति बना कर रख लेता हूँ। इसका कारण यह है कि उनको अपने युग का प्रवर्तक मानता हूँ। एक बात यह भी है कि संयम आदि के क्षेत्र में आज का मनुष्य इतना विकसित नहीं हो गया है कि इन महात्माओं के जीवन से प्रेरणा न ले सके।”
इस प्रकार सत्य-समाज के संस्थापक प्राचीन अथवा अपने पराये धर्म का आग्रह दूर करके विज्ञान, तर्क, उपयोगिता, मानव मात्र का कल्याण आदि के आधार पर ही विश्व-धर्म की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। वर्तमान में प्रचलित विशेष समुदाय के लिये पृथक धर्म को आप बिल्कुल स्वीकार नहीं करते-
“हाँ, मैं ऐसे युग की कल्पना करता हूँ जिसमें मनुष्य को ‘धर्म’ की जरूरत न रहेगी मनुष्य मात्र एक सुसंस्कृत कुटुम्ब के समान बन जायगा। इसी प्रकार यह भी कल्पना की जा सकती है कि एक युग ऐसा आयेगा जब मनुष्य संयम आदि के कारण बीमार न होगा, जिसके लिए अस्पताल, डॉक्टर, वैद्य आदि की जरूरत होती है। ये सब अच्छी कल्पनाएँ हैं, इनको आदर्श मानकर आगे बढ़ने में प्रगति ही होती है। फिर भी जब तक मनुष्य का उतना विकास नहीं हो पाया है तब तक शरीर-चिकित्सा की व्यवस्था रहेगी ही। उसी तरह अभी धर्म-संस्था का रहना भी अनिवार्य है।”
तो भी सत्य समाज संसार में एक ही धर्म, समाज, राज्य, अर्थनीति, भाषा आदि का एक होना अनिवार्य बनता है। उसकी कितनी ही पुस्तकों में नये विश्व-धर्म का आदर्श स्पष्ट कर दिया गया है। ‘नई दुनिया का नया समाज’ शीर्षक कविता में वे कहते हैं-
जगत में आया सत्य-समाज,
इकट्ठे करने सब सुख साज।
दिखाता मानवता का राज,
नई दुनिया का नया समाज।
अंध श्रद्धाओं से अति दूर किये,
निष्पक्ष विवेक विचार।
समन्वय नय से जो भरपूर,
भरा है न्याय भरा है प्यार।
यहाँ पूजित होता विज्ञान।
रूढ़ि का यहाँ न अत्याचार।
साँप्रदायिकता यहाँ न पुष्ट,
जगत्कल्याण धर्म का सार।
न मेरे-तेरे का अभिमान,
न्याय की विजय सत्य का राज।
दिखाता मानवता का साज,
नई दुनिया का नया समाज॥
यहाँ सब एक, यहाँ सब नेक,
समन्वय से सब का सम्मान।
सकल शास्त्रों का शास्त्र विवेक,
देव का देव सत्य भगवान्॥
पुरुष नारी का दर्जा एक,
लिंगमद का न किसी को ध्यान।
एक ही जाति एक ही राष्ट्र,
एक सब मानव की संतान॥
बुलायें यहीं स्वर्ग-अपवर्ग,
यहीं मिल जायें जब सुखसाज।
दिखाता मानवता का राज,
नई दुनिया का नया समाज॥
इसमें जो एक मानव-जाति और एक-सी सभ्यता संस्कृति, नैतिकता आदि का आदर्श उपस्थित किया है वह सराहनीय है, और प्रत्येक विश्व-भावना का प्रेमी उसका अभिवादन ही करेगा। फिर भी कार्य रूप में इसका परिणाम अत्यन्त अल्प निकल रहा है। इसके कई कारण हो सकते हैं, जिनमें एक यह भी हो सकता है कि अपनी सच्चाई प्रतिपादित करने के लिये इनकी कई रचनाओं में दूसरों का खण्डन भी किया गया है। यह प्रवृत्ति विश्व-प्रेम और विश्व-मानवता की भावना के अनुकूल नहीं है और इससे विरोधी वातावरण की ही वृद्धि होती है। जिससे प्रगति रुक जाती है और कार्यकर्ता व्यर्थ के खंडन मडन में फँसकर अपने उद्देश्य से भटक जाता है। यह अवस्था केवल इसी समाज की नहीं है, वरन् भारतवर्ष में कई अवतार और ‘विश्वात्मा, नामधारियों की भी ऐसी ही हालत हो रही है। वे बार-बार भारतवर्ष ही नहीं समस्त संसार के उद्धार करने की घोषणा करते रहते हैं, पर वर्षों बीत जाने पर भी अभी कोई कहने लायक काम करके नहीं दिखा सके हैं। यह बड़े दुःख की बात है। जिन समाजों का जन्म ही खंडन-मंडन के लिये हुआ है और जो अपने जन्म से आज तक इसी को गौरव का विषय समझे हुये हैं उनके लिये तो कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है, पर जिन लोगों का उद्देश्य वर्तमान संकटकाल में मानव-जाति को सत्य मार्ग का दर्शन कराना, मानव-धर्म का सन्देश सुनाना है, वे भी यदि अन्य मानवतावादी धर्मोपदेष्टा की निन्दा या विरोध करें तो इसे अनुचित ही कहा जायेगा। ऐसे अनुचित और स्वार्थ भाव से दूषित वाद-विवाद का क्या परिणाम होता है इस सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास की एक उपमा हमको बहुत ठीक जान पड़ी-
हरित भूमि तृण संकुलित, समुझि परै नहीं पंथ।
जिमि पाखण्ड विवाद ते, लुप्त होंय सद्ग्रंथ॥
निस्सन्देह धर्म और जीवन का सच्चा मर्म इस प्रकार के खंडन-मंडन में लुप्त हो जाता है। इसीलिये सच्चे धर्म सेवी अब भी अपना काम बिना किसी की निन्दा, कुत्सा के करते चले जाते हैं, और यह दुनिया इतनी बड़ी है कि उन सबको अपनी योग्यतानुसार पर्याप्त सेवा क्षेत्र प्राप्त हो रहा है। इसलिये हम एक ‘विश्व-धर्म’- ‘विश्वात्मा’ में विश्वास रखने वाले सब महानुभावों तथा संस्थाओं से यही अनुरोध करेंगे कि वे निन्दात्मक प्रवृत्ति, अनुचित प्रतिस्पर्धा को त्याग कर जहाँ तक सम्भव हो सहयोगपूर्वक विश्व-समाज की स्थापना के लिये प्रयत्न करते रहें।
आध्यात्मिक-धर्म ही स्थिर रहेगा :-
प्राचीन और नवीन व्याख्याकारों की बातों पर गम्भीरता से विचार करने पर यह तथ्य तो स्पष्ट ही है कि धर्म और अध्यात्म का सम्बन्ध अनिवार्य है। भविष्य में धर्म का रूप चाहे कितना भी बदल जाय और उसको विज्ञान तथा तर्क के अनुकूल बना दिया जाय, पर उसकी आधार शिला अध्यात्म ही रहेगी। शायद कुछ पाठक कहने लगें कि भारतवर्ष का धर्म तो पूर्णतया आध्यात्मिक रहा, पर जैसी दुर्गति इसकी हुई वैसी किसी की नहीं हुई। ऐसी शंका करने वालों से हम यही निवेदन करेंगे कि वे ‘अध्यात्म’ और ‘अन्धविश्वास’ को एक ही मानने न लग जायें। भारतवर्ष में जब तक अधिक या कम अध्यात्म रहा तब तक यह ‘जगतगुरु’ और ‘चक्रवर्ती’ माना जाता रहा पर जब अध्यात्म का स्थान ‘अन्धविश्वास, ढोंग, गुरुडम जातिवाद, ने ले लिया तो इसका पतन हो गया।
अब भी भारतवर्ष अध्यात्म से सूना नहीं है और व्यक्तिगत रूप में यहाँ अनेक महापुरुष ऐसे मिल सकते हैं जो स्वार्थ त्याग कर अपना समस्त जीवन विश्व हित के लिये अर्पण कर चुके हैं। इसलिये जब अवसर आयेगा तो भारतवर्ष ही धर्म के विषय में संसार का मार्ग-दर्शन करेगा। पर इससे पहले हमारा कर्तव्य है कि स्वयं अपने देश की अध्यात्म-धारा को परिष्कृत करें और लोगों को सच्चे अध्यात्म का सन्देश सुनायें। यह सच है कि यहाँ की साधारण जनता में भी अध्यात्म के कुछ बीजाँकुर मौजूद हैं, पर उसमें अन्धविश्वास और हानिकारक रूढ़ियां इतनी अधिक हैं कि वह बीज पनप नहीं पाता और व्यवहार में वे अन्य देश वालों से कहीं अधिक भौतिकतावादी सिद्ध होते हैं। इसलिये हमको पहले भारतीय जनता में और फिर अन्य देशों के निवासियों में आध्यात्मिक भावना जागृत करने का प्रयत्न करना चाहिये।
गायत्री-परिवार में जिस युग निर्माण योजना का प्रचार किया जा रहा है उसका उद्देश्य अपने देशवासियों को आध्यात्मिकता और विश्व-मानवता का प्रशिक्षण देना है। वैसे यह काम बहुत बड़ा और विशाल साधनों से ही पूरा हो सकने वाला है, पर यदि छोटी संस्थायें भी एक सीमित क्षेत्र में इन सिद्धान्तों का प्रचार और शिक्षा देने की व्यवस्था कर सकें तो एक बहुत बड़ा काम हो सकता है। इसलिये हम फिर यही कहेंगे यह विश्व-समाज की योजना तभी सफल होगी जब अनेक कार्यकर्ता और संस्थायें शुद्ध भाव से इस प्रयत्न में संलग्न होंगे और यह भावना रखते हुये कि ‘यह भगवान का काम है’ आपस में सच्चा सद्भाव और सहयोग रखते हुये संयम की ओर अग्रसर होंगे।