Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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उपवास-शरीर शोधन की महत्त्वपूर्ण प्रणाली
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संसार में अनेकों प्रकार की चिकित्सा पद्धतियाँ हैं। दो सौ वर्ष पूर्व हमारे देशवासी वैद्यक और हकीमी-दो चिकित्सा प्रणालियों का ही नाम सुनते थे। अंग्रेजी का शासन स्थापित हो जाने पर डाक्टरी (एलोपैथी) का नाम भी प्रसिद्ध हो गया। उसके पश्चात् होम्योपैथी, बायोकैमी, क्रोमोपैथी (रंग चिकित्सा), विद्युत चिकित्सा, जल चिकित्सा, मूत्र चिकित्सा आदि एक के बाद एक नई चिकित्सा पद्धतियाँ सामने आने लगीं। यद्यपि अभी तक उल्लेखनीय सफलता आरम्भिक तीन को छोड़कर और किसी को मिली हो ऐसा नहीं जान पड़ता।
पर इन पचासों पद्धतियों के निकल आने और विज्ञान की सहायता से शल्य-चिकित्सा (सर्जरी) और इञ्जेक्शन (सूची चिकित्सा) में क्रान्ति हो जाने पर भी रोगों की वृद्धि नहीं रुक रही है। सम्भवतः पिछले पचास-साठ वर्षों में डाक्टरों की संख्या दस गुनी बढ़ चुकी है और औषधियों की बिक्री सौगुनी हो गई है तो भी डाक्टरों की दुकानें और सार्वजनिक अस्पताल रोगियों से भरे रहते हैं और उनकी संख्या दिन पर दिन बढ़ती ही जाती है। अन्त में किसी कवि की यही उक्ति याद आती है कि ‘मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की।’
इस परिस्थिति पर विचार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि वर्तमान प्रणाली में ही कोई दोष है। आज-कल के डाक्टरों का उद्देश्य यह नहीं होता कि जनता को बीमार होने से बचाया जाय और उनको स्वयं अपने स्वास्थ्य की रक्षा करते हुए निरोग-जीवन व्यतीत करने की शिक्षा और प्रेरणा दी जाय। वरन् वे तो अपना कौशल इस बात में समझते हैं कि लोग नई-नई और कठिन बीमारियाँ लेकर उनके पास आवें और वे उनको सुई गढ़ा कर काट-छाँट करके, तरह-तरह के यन्त्र लगाकर फिर से काम चलाऊ बना दें। वे अपनी इस कला पर गर्व कर सकते हैं, पर हमको तो यह स्थिति मानवता की प्रगति की दृष्टि से दयनीय ही जान पड़ती है।
इसलिये कुछ मानवता-हितैषी सज्जनों ने गत सौ वर्षों से लोगों को यह शिक्षा देनी आरम्भ की है कि आरोग्यता की कुँजी कहीं बाहर नहीं हैं, वह बोतलों और शीशियों में बन्द नहीं मिल सकती हैं, वरन् हमारे शरीर के भीतर ही है। प्रकृति ने हमारे शरीर की रचना करते समय ही उसमें वह ज्ञान और शक्ति समाविष्ट कर दी है, जिससे वह सौ वर्ष तक पूर्ण स्वस्थ और कार्यक्षम बना रह सके। यह आदमी का अज्ञान अथवा लोलुपता ही है कि अनुचित आहार-विहार और रहन-सहन को अपनाकर अपने स्वास्थ्य को निर्बल बना लेता है और फिर इसके परिणामस्वरूप जरा-सी प्रतिकूल परिस्थिति आते ही बीमारी का शिकार बन जाता है।
अस्तु, वर्तमान सभ्यता के वातावरण को देखते हुए अब यह आशा तो नहीं की जा सकती कि मनुष्य शीघ्र ही हर तरह की कृत्रिमता को त्यागकर पूर्णरूप से प्राकृतिक जीवन बिता सकेगा। परिस्थितियों और जन्म से ही पड़ी हुई आदतों के कारण उससे न्यूनाधिक असंयम होगा ही और मौजूदा सामाजिक परिस्थिति में रहते हुए खान-पान में कुछ हानिकारक पदार्थ काम में आते ही रहेंगे। उदाहरण के लिये आजकल जो बिजली की चक्कियों का पिसा हुआ आटा और मैदा आदि काम में लाई जाती है, वह काफी हानिकारक होती हैं, पर अब शहरों में रहने वाले हजार में से एक व्यक्ति के लिये भी यह सम्भव नहीं हैं कि अपना अनाज हाथ की चक्की से पीस कर बिना छने चोकर-युक्त आटे की रोटी बनाकर खा सके। देखने में तो यह बिल्कुल सीधी-सादी सी बात है, पर जब इस पर अमल करने को तैयार हुआ जाय तो बीसों कठिनाइयाँ सामने आती है। यही हाल पैदल यात्रा करने तथा और भी रहन-सहन सम्बन्धी बातों का है।
इसलिये शरीर-रचना पर ध्यान देकर उसकी बनावट को ध्यान में रखकर उपरोक्त विद्वानों ने यह निर्णय किया है कि गलत रहन-सहन के कारण मनुष्य के शरीर में जो दूषित पदार्थ जमा होते हैं, उनको किसी प्राकृतिक विधि से ही निकाल दिया जाय। इनमें सबसे पहला नम्बर पेट का है, क्योंकि अनुचित स्वाद-वश या उपयुक्त पदार्थ न मिलने की अवस्था में लोग जो गलती करते हैं उसका प्रत्यक्ष फल उन्हीं को सहन करना पड़ता है। जब भोजन की अधिकता या खाद्य पदार्थों की दुष्पच्यिता के कारण आहार का परिपाक ठीक-ठीक नहीं होता और वह छोटी और बड़ी आँतों में सड़ने लगता है तो उसी का विषाक्त प्रभाव शरीर के सब अंगों पर पड़ता है और वे रोगी होने लगते है। इस सम्बन्ध में एक प्राकृतिक चिकित्सक डा. ह्यूम ने लिखा है-
“आप जो भोजन नित्य खाते हैं, उसके पाचन अथवा अर्धपाचन से पैदा होने वाला सारा ही कचरा प्रतिदिन शौच, मूत्र या पसीना आदि बनकर साफ नहीं हो पाता। उसका कुछ न कुछ भाग भीतर रह ही जाता है और शरीर की मशीनरी में अवरोध पैदा करता हैं, जिससे शरीर में ‘टाक्सिन’ उत्पन्न होकर उनसे भारीपन, सुस्ती, स्नायविक रोग, प्रक्रिया की गड़बड़ी होकर नाना तरह के रोग और वे समय का बुढ़ापा पैदा होता है। मतलब यह है कि पाचन-क्रिया की कमी से शरीर में कचरे की निरन्तर वृद्धि होती रहती है। इसी प्रकार जीवन रूपी मशीन के निरन्तर चलते रहने से भी शरीर में सूक्ष्म कचरा पैदा होता है। क्या दवायें इस सूक्ष्म कचरे की सफाई कर सकती है?”
“एक उदाहरण लीजिये। घरों, गाँवों और नगरों में कूड़ा डालने के डब्बे रखे जाते है। डब्बे में से यदि कचरा साफ न किया जाय, तो उसमें मच्छर, कीड़े वगैरह पैदा होने लगते है। अब बताइये यदि डब्बे में कचरा पूरी तरह न निकाला जाय और एक ओर तो उस पर डी. डी. टी. वगैरह का स्प्रे मारा जाय और दूसरी ओर प्रतिदिन नया-नया कचरा भी डाला जाये, तो क्या मच्छर-कीड़े नष्ट हो जायेंगे? हरगिज नहीं। मच्छरों और कीड़ों से छुटकारा पाने का सही उपाय तो यही है कि कचरे को निकालकर डब्बे की सफाई की जाय। बस यही हाल शरीर का है। शरीर की सफाई के लिये उसके भीतर का सब मल बाहर फेंकना ही पड़ेगा और उस मल को बाहर निकाल देने का एक ही तरीका है और वह है-उपवास
उपवास द्वारा शरीर की सफाई करने में एक विशेषता यह है कि यह शरीर के उन गूढ़ और अत्यन्त सूक्ष्म अंग-प्रत्यंगों का मल भी बाहर निकाल देता है, जहाँ तक दवा का असर कभी नहीं पहुँच सकता। किसी भी बीमारी के कीटाणु अगर शरीर में उत्पन्न हो गये हो तो उपवास उनको भी खत्म कर देता है। साथ ही उन सब मुर्दा वस्तुओं को बाहर भी निकाल देता है। उपवास मानव शरीर पर किस प्रकार प्रभाव डालकर रोग को नष्ट करता है इस सम्बन्ध में उक्त चिकित्सक ने बतलाया है-
(1) भोजन को हजम करना, उसमें से फीक को बाहर फेंकना, काम की वस्तुओं को खून के प्रवाह में पहुँचाना और फिर ‘सेलों’ (कोशिकाओं) द्वारा उनका आत्मसात् किया जाना, यह सब एक बड़ी पेचीदी, मुश्किल और भारी अक्रिया है। शरीर जितनी शक्ति पैदा करता है, उसमें से आधी शक्ति भोजन को सम्हालने में ही व्यय हो जाती है। जब भोजन लेना बन्द कर दिया जाता है तो यह शक्ति भीतरी सफाई के काम में लग जाती है। बीमार होने पर मनुष्य की भूख जो कम पड़ जाती है या ‘मर जाती’ है, उसमें भी प्रकृति का यही उद्देश्य रहता है कि पाचन क्रिया से बची हुई शक्ति रोग का प्रतिकार करने के काम में लग सके।
(2) फिर ‘पाचन के अंगों’ को भी कुछ न कुछ काम करने को चाहिये ही। उपवास की हालत में ये अंग मल को बाहर निकालने में सहायता पहुँचाने लगते हैं, इससे सफाई का काम तेजी से होने लगता है।
(3) उपवास करने से शरीर के पाचक अंगों को विश्राम मिलता है और इससे उनमें ताजगी, फुर्ती आ जाती है।
उपवास शारीरिक स्वास्थ्य को किस प्रकार सुधारता है और नव-जीवन प्रदान करता है, इसका वैज्ञानिक कारण रूस के प्रसिद्ध जीव-विज्ञान वेत्ता ‘ब्लाडिमिर निमितिन’ ने प्रकट किया है। उनका कहना है कि मनुष्य के शरीर में दो प्रकार के ‘हार्मोन’ स्वास्थ्य-रक्षा में सहायता होते हैं। पक्वाशय एक प्रकार के ‘हार्मोन’ पैदा करता है, जो पोषक-तत्त्वों से सम्बन्धित ‘टिशुओं’ (तंतुओं) की सहायता करते हैं। उम्र बढ़ने पर इनके उत्पादन में कमी होने लगती है। पर ‘अधिवृक्क ग्रन्थियाँ’ जो ‘हार्मोन’ पैदा करती हैं, उन पर उम्र की वृद्धि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। पर स्वास्थ्य-रक्षा की दृष्टि से दोनों प्रकार के ‘हार्मोन’ का संतुलन इस प्रकार बिगड़ना बहुत हानिकारक है। इस संतुलन को फिर से ठीक करने का सबसे सरल और स्वाभाविक उपाय उपवास है। जब शरीर में भोजन नहीं पहुँचता तो अधिवृक्क ग्रन्थियों द्वारा उत्पन्न किये गये ‘हार्मोन’ भोजन न होने के कारण खपने लग जाते हैं। इस प्रकार दोनों में संतुलन होकर स्वास्थ्य-रक्षा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। प्राचीन मनीषी अपने अनुभव से उपवास की उपयोगिता को समझते थे और आज से ढाई-तीन हजार वर्ष पूर्व रोमन सम्राट् ‘वेस्वासियन’ ने प्रत्येक महीने में दो दिन उपवास करने का नियम बना दिया था।
हमारे देश के महापुरुषों ने तो बहुत पहले से प्रत्येक एकादशी की व्रत का नियम बनाकर और उसे धार्मिक रूप देकर शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य की रक्षा और प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। आयुर्वेद के ज्ञाताओं के अनुसार चन्द्रमा के आकर्षण का प्रभाव जिस प्रकार समुद्र के जल पर पड़ता है और उसमें ज्वार-भाटों के रूप में अधिक गतिशीलता आ जाती है, उसी प्रकार उसका प्रभाव मानव शरीर स्थित रसों पर भी पड़ता है। एकादशी से अमावस्या अथवा पूर्णिमा तक इसी कारण शारीरिक दोषों की उग्रता बढ़ जाती है और उपवास द्वारा उसके शमन होने में सहायता मिलती है।
इतना ही नहीं उन मनीषियों ने स्वानुभव द्वारा यह भी पता लगाया था कि प्रत्येक तिथि और बार का हमारे शारीरिक अंगों से विशेष सम्बन्ध होता है। इसलिये यदि अंग विशेष के रोग अथवा निर्बलता के दूर करने के लिये निर्दिष्ट दिन उपवास किया जाय तो उससे विशेष लाभ हो सकेगा। इस विधि को स्पष्ट करते हुए एक चिकित्सक ने लिखा है कि “हमारे शरीर में मुख्य 24 तत्व होते हैं और उनमें से प्रत्येक के तीन आश्रम होते हैं- (1) अध्यात्म, (2) अधिभूत, (3) अधिदेव। ये ही तीन आश्रम व्रत से भी सम्बन्धित होते हैं। मनुष्य में जिस ‘अधिभूत’ की कमी होती है, उसी ‘अधिदेव’ की प्रगति के लिये उसी अधिदेव के दिन या तिथि को उपवास करना चाहिये, जिससे उसे उसी ‘अध्यात्म’ की प्राप्ति हो सके।”
उदाहरण के लिये “मन अध्यात्म है, संकल्प विकल्प करना अधिभूत है और चन्द्रमा अधिदेव है। अतः सोमवार को उपवास करने से मानसिक शक्ति प्रबल होती है।” इसी प्रकार “घ्राण (नासिका) अध्यात्म है, सूँघना अधिभूत है और पृथ्वी अधिदेव है। अतः नासिका के रोगों में, सूँघने की शक्ति की कमी में पंचमी तिथि अथवा मंगलवार का उपवास विशेष लाभदायक होता है।”
इस सिद्धान्त के अनुसार त्वचा रोगों के लिये पूर्णिमा अथवा सोमवार को, नेत्र रोगों में रविवार को, जीभ के रोगों में तृतीया अथवा शनिवार को, हाथों की दुर्बलता में पंचमी, दशमी, पूर्णिमा तिथियों और शुक्रवार को, पैरों की त्रुटि के लिये एकादशी को, गुदा सम्बन्धी रोगों में द्वितीया अथवा गुरुवार को, बुद्धि के विकास के लिये प्रदोष के दिन उपवास विशेष हितकारी और प्रभाव डालने वाला होता है।
वैसे भोजन की अनियमितता के फलस्वरूप पेट में गड़बड़ी जान पड़ें अथवा ज्वर, जुकाम, सिर-दर्द आदि की शिकायत पैदा हो तो उपवास से तुरन्त लाभ होता है। वस्तुतः जो व्यक्ति शरीर की भीतरी स्वच्छता की दृष्टि से नियमित रूप से उपवास करते रहते हैं, उनको कोई बड़ी बीमारी हो ही नहीं सकती। उपवास रोग निवारण की अचूक विधि है।