Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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हृदय−परिवर्तन
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शालिवाहन मृगया के लिये निकलते तो वनचरों में प्रलय मच जाती। लाशों के ढेर बिछ जाते उस दिन। शेर चीते जैसे हिंसक जंतु ही नहीं, हिरन, साँभर, नीलगाय जैसे कोमल प्रकृति के जीव−जंतु भी शालिवाहन की कोप−दृष्टि से न बचते। शालिवाहन की पशु निर्दयता दूर−दूर तक विख्यात हो गई।
महारानी वसुप्रिया! मृगया से क्लान्त महाराज शालिवाहन की सेवा तो करतीं पर उस दिन वह जीव दया पर उपदेश देना भी न भूलतीं। वे कहतीं—“जीव−जंतु विराट्−विश्वात्मा के ही परिजन हैं। किसी को मारने, जीवन देने का अधिकार परमात्मा को है। हम मनुष्यों पर उनके उपकार पहले ही कम नहीं है, अपनी क्षणिक तृष्णा और दम्भ के लिये उन बेचारों का वध क्यों करें? महाराज जिस तरह हम मनुष्य दूसरों के द्वारा सताया जाना बुरा मानते हैं, उसी तरह जीवों का जी दुःखाना भी पाप है। आप आत्मा के कोप भोजन न बनें। जीवों को न सताया करें, उससे दुर्गति होती है।
शालिवाहन हँसते क्या—विद्रूप अट्टहास करते और कहते—“बावरी! हर शक्तिशाली अशक्त को मारकर खा जाता है, यह तो प्रकृति का नियम है, इसमें पाप क्या हो गया?” महारानी उत्तर देतीं—“नहीं महाराज! हर महान् व्यक्ति, महान् आत्मा छोटों को प्रश्रय देती, सहयोग और सहानुभूति देती है। जब समुद्र, वारिद बनकर बरसता है, तब तो नदी−नद भरे रहते हैं, सूर्य तपता है, तभी तो सृष्टि चक्र चलता है। संसार दया और दान पर टिका है। हम यदि वह न कर सकें तो कम से कम अपने से गये−गुजरों को सतायें भी नहीं।”
शालिवाहन उपदेश सुनने के आदी नहीं थे। वह उन अहंकारी व्यक्तियों में से थे, जो स्वयं को भगवान् मानने जैसा दम्भ दिखाते रहते हैं पर इस संसार में अहंकार टिका किसका? कौन व्यक्ति क्रूरता करके महान् बन सका?
शालिवाहन दूसरे दिन ही मृगया के लिये निकल पड़े। असंख्य पशु−पक्षियों का वध किया उनने। जीवों के विलाप के कारण वन−शोकसागर में बदल गया। किसी पशु का वंशनाश ही हो गया तो किसी मृगी के छौने मारे गये। प्रलयकाल जैसा जीव संहार कर रहे शालिवाहन ने एक हिरणी के देखते−देखते उसके दो सुकुमार बच्चों का वध कर दिया। हिरणी भी वहाँ से हटी नहीं, उसकी आँखें कह रही थीं—निर्दयी और एक तीर निकाल और बेध मेरा वक्षस्थल तुझे यह तो पता चले कि जीवों के भी ममता होती है, उन्हें भी अपने बच्चे तुम मनुष्यों के समान ही प्यारे लगते हैं।
हाथ तूणीर पर गया तो वह बिलकुल रिक्त हो चुका था। एक भी तीर न बचा था तरकस में। शंख ध्वनि की गई और महाराज शालिवाहन विजयी की भाँति दल−बल के साथ राजवानी की ओर लौट पड़े।
उस दिन से नवरात्र प्रारम्भ होते थे। महारानी वसुप्रिया! भगवती दुर्गा के अभिषेक के लिये, राजमहल से निकलकर पर्वतीय उपत्यिका पर बने मन्दिर में जाया करती थीं। उस दिन उनके साथ राजकुमारी उत्पल भी थी। उत्पल की आयु तब कुल पाँच वर्ष की ही थी।
अभी वे पर्वत के समीप पहुँच ही पाई थीं कि झाड़ियों के एक ओर से नर−भक्षी बाघ झपटा और राजकुमारी को झपटकर उठा ले गया। अंगरक्षक सैनिक देखते ही रहे, बाघ क्षण भर में ही घने जंगल में धँस गया। शालिवाहन के भय से भयभीत सैनिक बाघ का पीछा करते ही गये। बाघ सैनिकों की आँख बचाकर एक झाड़ी में छुपना चाहता था पर उसका वहाँ रुकना भारी पड़ गया। शाम हो चली थी। हिरणी जिसके दो बच्चे आज ही महाराज शालिवाहन द्वारा मृत्यु के घाट उतार दिये गये थे, ने राजकुमारी उत्पल की ओर कातर दृष्टि से देखा। एक बार अपने बच्चों की ममता फिर उमड़ पड़ी हिरणी के हृदय में। वह बाघ पर टूट पड़ी। थका हुआ बाघ उसका सामना न कर सका। सैनिकों का भय भी था उसे। उत्पल को वहीं छोड़कर वह भाग निकला। हिरणी ने उत्पल को झाड़ी के अन्दर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। रात हो गई, सैनिक भी निराश होकर घर लौट गये।
बाघ के पंजों के घाव जहाँ−जहाँ लगे थे, हिरणी उन−उन स्थानों को रात भर चाटती रही। बार−बार उसके हृदय में अपने बच्चों की ममता और करुणा उमड़ती, वह उतनी ही ममता से उत्पल को चाटती रही मानो उसे अब उत्पल में ही अपने बच्चों की आत्मा झाँकती दिखाई दे रही थी।
रात भर की सुश्रूषा से उत्पल चंगी हो गई। प्रहर रात रह गई थी, तब उत्पल की अचेतावस्था वापिस लौटी। हिरणी के ममत्व में वह राज−परिवार का स्नेह और ममत्व भूल गई। सूर्योदय तक वह हिरणों से ऐसी हिल−मिल गई जैसे वह उसके ही परिवार की एक सदस्या हो।
प्रातःकाल शालिवाहन स्वयं राजकुमारी की खोज में निकल पड़े। खोजते−खोजते वह उसी स्थान पर पहुँचे जहाँ उत्पल हिरणी से खेल रही थी। चुपचाप बैठी हिरणी को कुछ ध्यान ही नहीं था, कौन आया, कौन गया। क्रोधावेश में आकर शालिवाहन ने तीर निकालकर प्रत्यंचा चढ़ाई। उसे कान तक खींचकर बाण को छोड़ना ही चाहते थे कि उत्पल ने देख लिया। वह हिरणी की ओट करके दोनों हाथ फैलाकर तीर अपनी छाती में चुभा लेने के लिये खड़ी हो गई। महाराज ने डाँटा—हट जा उत्पल एक ही तीर में दुष्ट हिरणी का वध कर देता हूँ।
उत्पल तब मूर्तिवत् खड़ी थी। बोली तो नहीं पर उसकी आंखें कह रही थीं—निर्दयी ! चला तीर। तुझे पता तो चले, किसी जीव के प्राण लेने का फल क्या होता है। तू ही पिता नहीं, इन जीवों के भी माता पिता हैं। इन्हें भी मालूम होने दे कि जो मनुष्य आज निर्दयतापूर्वक पशुओं को मार सकता है, वह कल मनुष्य को भी मार सकता है।
चढ़ी हुई प्रत्यंचा ढीली पड़ गई। धनुष हाथ से छुट गया। शालिवाहन की आँखों से आँसू झरने लगे। वह खाली हाथ हिरणी के पास तक चले गये। हिरणी की आंखें झर-झर झर रही थीं। शालिवाहन ने निर्झर से जल लिया और प्रतिज्ञा की अब वे कभी किसी पशु-पक्षी का वध नहीं करेंगे।
उसी दिन से सारे राज्य में घोषणा कर दी गई, कोई भी किसी जीव को कष्ट नहीं देगा। यह विजय महारानी वसुप्रिया की विजय थी। उस दिन उन्होंने सारे नगर की गायों को भोजन भी कराया।
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चिन्ताओं और कठिनाईयों पर विजय पाने वाला ही उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है। जीवन बहुत सुन्दर है, बहुत शानदार है। लेकिन वह इससे भी सुन्दर और शानदार बन सकता है। जो लोग इस समय सबसे अधिक सुखी हैं, हमारा उद्देश्य उनसे अधिक सुखी बनना है। हम दासता और भय को दूर कर दें, तो सुख, समृद्धि और सफलता हमारे पाँव चूमेगी।
कोई बड़ा संकट चाहे कितना ही शीघ्र आने वाला हो, परवाह मत करो, उस समय तक यथासम्भव प्रसन्न रहो, जीवन का यह नियम बना लो तो जब तक सचमुच पुल पार न करना पड़े, यह मत सोचो कि वह कैसे पार होगा। जो आदमी कल से डरता है, वह जीवन से डरता है और बुज़दिल है। उसे भगवान में और अपने में विश्वास नहीं, वह कभी कोई महत्त्व प्राप्त नहीं करेगा।
शेक्सपियर ने लिखा है—“हमारे सन्देह गद्दार हैं। हम जो सफलता प्राप्त कर सकते हैं, वह नहीं कर पाते, क्योंकि संशय में पड़कर प्रयत्न ही नहीं करते।
—श्री प्रताप कोठारी
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