Magazine - Year 1972 - Version 2
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जीवन का द्वार तो सीधा है किन्तु मार्ग अत्यन्त संकीर्ण है। -संत मैथ्यू
को अस्वीकार किया जाय। काया-कल्प में पुराना शरीर छोड़ना पड़ता है और नया ग्रहण करना पड़ता है। विवाह होने पर वधू पितृ-गृह छोड़ती है साथ ही अब तक का स्वभाव अभ्यास भी। उस नवविवाहिता को पति के घर में जाकर नये स्वजनों से घनिष्ठता बढ़ानी पड़ती है और ससुराल की विधि-व्यवस्था में अपने को ढालना होता है। ठीक ऐसा ही परिवर्तन आन्तरिक काया-कल्प के अवसर पर करना पड़ता है। आत्मबोध एक प्रकार के अन्धकार का परित्याग कर प्रकाश को वरण करना है। इसके लिए क्रान्तिकारी कदम उठा सकने वालो साहस की जरूरत पड़ती है। ढर्रे में राई-रत्ती अन्तर करने से काम नहीं चलता। यह पढ़ने और सुनने की नहीं सर्वतोमुखी परिवर्तन की प्रक्रिया है। एक लोक को छोड़कर दूसरे लोक में जाने-एक शरीर त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश करने जैसी इस प्रक्रिया को जो कोई सम्पन्न कर सके उसे ही आत्मा ज्ञानी कहा जायगा। आत्म-बोध और आत्म-साक्षात्कार इसी स्थिति का नाम है। ब्रह्म संबंध, आत्म-दर्शन, दीक्षा-लाभ, चक्षु, उन्मीलन, दिव्य जागरण इसी को कहते हैं। यह छलाँग जो लगा सके उसे इस दुस्साहस का परिणाम दूसरे ही क्षण परिलक्षित होगा। अपने को तत्काल नरक में से निकल कर स्वर्ग में अवस्थित अनुभव करेगा। मैं क्या हूँ? इस प्रश्न का समाधान, इतना बड़ा लाभ है कि उस पर समस्त संसार की समग्र सम्पदाओं को निछावर किया जा सकता है।
व्यक्ति जब अपने को ईश्वर का परम-पवित्र अविनाशी अंश समझता है; आत्मा को रूप में अनुभव करता है और शरीर को एक उपकरण भर स्वीकार करता है तो उसे अपनी पिछली मान्यताओं, आकाँक्षाओं योजनाओं और गतिविधियों में आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता अनुभव होती है। संबंधित वस्तुयें संग्रह करके निरर्थक मोह बढ़ाने के लिए नहीं, वरन् सदुपयोग भर के लिए अपने पास एकत्रित हुई हैं यह निष्ठा जब जमती है तो फिर लोभ और मोह में परले सिर की मूर्खता ही दिखाई देती है। सम्पदा प्रकृति का ही एक रूप है। यह अनादि काल से चली आ रही है। और अनन्तकाल तक चली जायगी। जो सोना अपने पास आज है वह सृष्टि के जन्मकाल से ही इस संसार में विद्यमान था। उस पर लाखों व्यक्ति कुछ-कुछ देर के लिए अपना अधिकार बनाते चले आ रहे हैं। प्रलय काल तक वह सोना बना रहेगा और उस पर करोड़ों व्यक्ति अपना अधिकार जमाते चले जायेंगे। जमीन, जायदाद, वस्तुयें आदि सृष्टि के साथ जन्मी और उसके रहने तक इस दुनिया में बनी रहेंगी, कुछ समय के लिए वे अपने साथ संयोगवश जुड़ गईं तो उन्हें अपनी मान बैठना, उनके संग्रह का लोभ करना, कैसे उचित ठहराया जा सकता है? पदार्थों का मोह जिस शरीर के साथ जुड़ा हुआ है वह शरीर ही कल परसों जाने की तैयारी में बैठा है, फिर पदार्थों का-सम्पदा साधनों का लोभ किसलिए?
उपलब्ध सम्पत्ति का सदुपयोग ही सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है उसकी जमाखोरी में कोई समझदारी नहीं। उपार्जन को श्रेष्ठ प्रयोजनों में लगाना चाहिए। बेटे-पोतों के लिए उत्तराधिकार का ताना-बाना बुनना सदुपयोग नहीं है। अपने साथ मोह बन्धनों में बँधे हुए चन्द व्यक्तियों को अपने श्रम का सारा उपार्जन सौंप दिया जाय और वे उस हराम की कमाई पर गुलछर्रे उड़ायें इस विडम्बना में क्या औचित्य है? श्रम उपार्जन खाकर ही कोई व्यक्ति उसका लाभ लेता है, हराम की कमाई तो हर किसी को गलाती है। आत्मवादी की सुनिश्चित मान्यता यही हो सकती है। जिसकी समझ में यह तथ्य आ गया उसे नये सिरे से अपनी सम्पत्ति के बारे में चिन्तन करना पड़ेगा और आश्रित, असमर्थ परिजनों की उचित व्यवस्था के अतिरिक्त जो कुछ उसके पास बच जाता है उसे लोक-मंगल के लिए नियोजित करने का ही निर्णय करना पड़ता है। आत्म-बोध के साथ यदि इस स्तर का दुस्साहस जुड़ा हुआ न हो तो उसे बकवादियों का बाल-विनोद ही कहा जायगा। असंख्यों व्यक्ति स्वाध्याय सत्संग के नाम पर धर्म और अध्यात्म की लम्बी-चौड़ी बकवास करते और सुनते रहते हैं। जो चिन्तन-जीवन को प्रभावित न कर सके उसे मनोविनोद के अतिरिक्त और क्या कहा समझा जा सकता है।
परिवार के रूप में जुड़े हुए कुछ व्यक्ति ही अपने हैं? अपना प्यार उन्हीं तक सीमित रहना चाहिए? उन्हीं तक अपनी सारी महत्वाकाँक्षायें सीमित कर लेनी चाहिए यह रीति-नीति उससे बन ही नहीं पड़ेगी जो अपने को ‘आत्मा’ मानेगा। आत्म-ज्ञान का प्रकाश आते ही दृष्टिकोण में उस विशालता का समावेश होता है जिसके अनुसार ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ मानने से कम में किसी भी प्रकार संतोष नहीं हो सकता।
भगवान् के उद्यान के रूप में-संबंधित परिवार को कर्तव्य-निष्ठ माली की तरह सींचना-सँजोना बिल्कुल अलग बात है और बेटे-पोतों के लिए मरते खपते रहना अलग बात, बाहर से देखने में यह अन्तर भले ही दिखाई न पड़े पर दृष्टिकोण की कसौटी पर रखने पर जमीन आसमान जितना अन्तर मिलेगा। मोहग्रस्त मनुष्य अपने कुटुम्बियों की सुविधा, सम्पदा और बढ़ाने और इच्छा पूरी करने की धुन में उचित अनुचित-आवश्यक अनावश्यक का भेद भूल जाता है और घरवालों की इच्छा तथा खुशी के लिए वह व्यवस्था भी जुटाता है जो न आवश्यक है न उपयुक्त। मोहग्रस्त के पास विवेक रह ही नहीं सकता।
परिष्कृत दृष्टि से कुटुम्बियों को समुन्नत, सुसंस्कारी, सुविकसित बनाने के कर्तव्य को ही ध्यान में रखकर पारिवारिक विधि-व्यवस्था निर्धारित की जाती है। उसने यह नहीं सोचा कि कौन राजी रहा कौन नाराज हुआ। चतुर माली अपनी दृष्टि से पौधों को काटता छाँटता-निराता गोड़ता है, पौधों की मर्जी से नहीं। विवेकवान गृहपति केवल एक ही दृष्टि रखता है कि परिवार को सुसंस्कारी और सुविकसित बनाने के लिए जो कठोर कर्तव्य पालने चाहिए उसका पालन अपनी ओर से किया जा रहा है या नहीं। परिजनों की इच्छाओं का नहीं उनके हित साधन का ही उसे ध्यान रहता है। आत्म-बोध के साथ परिवार के प्रति इसी दृष्टिकोण के अनुरूप आवश्यक हेर-फेर करना पड़ता है। तब वह मोह छोड़ता है और प्यार करता है। प्यार के आधार पर की गई परिवार सेवा उसके स्वयं के लिए और समस्त परिवार के लिए परम-मंगलमय सिद्ध होती है।
अपने शरीर के बारे में भी आत्म-बोध के प्रकाश में नई रीति-नीति ही अपनानी पड़ती है। उसे वाहन उपकरण मात्र मानना पड़ता है। आत्मा की भूख के लिए शरीर से काम लेने और शरीर की लिप्सा के लिए आत्मा को पतन के गर्त में डालने की दृष्टि में जमीन आसमान जितना अन्तर है। शरीर और मन को मैं मान बैठने पर इन्द्रियों की वासनाएँ और मन की तृष्णायें ही जीवनोद्देश्य बन जाती हैं और उन्हीं की पूर्ति में निरन्तर लगा रहना पड़ता है। पर जब वह मान्यता हट जाती और अपने को आत्मा स्वीकार कर लिया जाता है तो मन को बलात् उस चिन्तन में नियोजित किया जाता है जिससे आत्मकल्याण हो और शरीर से वह कार्य कराये जाते हैं जो आत्मा का गौरव बढ़ाते हों उसका भविष्य उज्ज्वल बनाते हों।
आत्म-बोध, एक श्रद्धा है। आत्म-साक्षात्कार एक दर्शन है, जिसे यदि सचाई के साथ हृदयंगम किया जाय तो दृष्टिकोण ही नहीं बदलता वरन् क्रिया-कलाप भी बदल जाता है। इस परिवर्तन को ही आत्मिक कायाकल्प कहते हैं। यह जिस क्षण भी सम्भव हो जाय उसी दिन अपने में भारी शान्ति, संतोष, उल्लास और उत्साह दृष्टिगोचर होता है और लगता है मानो नरक से निकल कर स्वर्ग में आ गये।