Magazine - Year 1972 - Version 2
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Language: HINDI
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मृत्यु को न जाने हम क्यों भूल बैठे हैं?
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जीवन के बहुमूल्य क्षण एक के बाद एक तेजी से बीतते चले जा रहे हैं। दिन और रात की उभय पक्षीय खेंच कर रही आरी इस वृक्ष को काटती चली जा रही है। उसका गिरना निश्चित है। आज नहीं कल। कह नहीं सकते कच्चे धागे पर टँगी हुई मौत की तलवार कब टूट पड़े और इस सरस लगने वाले जीवन का अन्त कर दे।
अनेक कठिनाईयों हमें याद रहती हैं और उनके हल निकालते हैं। आपत्तियों की संभावना को पहले से ही देख लेते हैं और समय रहते उनके बचाव का रास्ता खोज लेते हैं। कम से कम सचेष्ट और प्रयत्नशील तो रहते ही हैं। संभावित आपत्तियों को सर्वथा विस्मृत तो नहीं ही करते।
पर कैसा घोर आश्चर्य है कि मृत्यु जैसे सर्वोपरि संकट की बात कभी सूझती ही नहीं। संकट भी ऐसा वैसा नहीं- इतना भयानक कि दीखने वाले सारे खेल को एक ही फूँक में उड़ा कर रख दे। सो भी इतना अनिश्चित कि कभी भी कल ही सामने आकर खड़ा हो जाय और जो कुछ हाथ में है सब कुछ छीन कर ले जाय। ऐसे संकट की कभी याद भी न आये। इससे बढ़कर मनुष्य की अचरज भरी भूल और क्या हो सकती है?
गोदी के बच्चे काल उठा ले जाता है। हँसते-खेलते बालक, उछलते-कूदते किशोर, इठलाते मरदाने युवक आँखों के सामने रोज ही मरघट में जाते रहते हैं। समय पूरा करके शतायु भोगने वाले भाग्यशाली उँगलियों पर गिनाये जितने होते हैं। अधिकाँश तो आधी अधूरी उम्र में ही विदाई ले लेते हैं। हम यही मान कर बैठे हैं कि अपने मरण का कोई प्रश्न नहीं। अजर अमर की तरह हम लाख करोड़ वर्ष जियेंगे। मरना तो औरों को है। हमारी मृत्यु क्यों आयेगी?
कदाचित मृत्यु को देखा और समझा जा सकता होता बिल्ली जिस चूहे पर घात लगाये बैठी रहती है उस विभीषिका को समझा होता। काल के मुख में जाने वाले गोदी में भरे हुए चने चवैने के रूप में अपने को देखा होता तो अपनी वस्तु स्थिति निरीक्षण कर सकने वाली दूरदर्शिता सार्थक हो जाती।
दूसरों की काया को चिता में जलते हुए देख कर यदि अपनी काया की वैसी ही दुर्गति कल नहीं तो परसों होने की यथार्थता को यदि अनुभव किया होता तो मूर्छा जगती जो आज घोर अज्ञान के अन्धकार में डाले हुए बालू के किले खड़े करने की बालक्रीड़ा में लगी मोद मना रही है।
देवोपम विभूतियों से सम्पन्न यह मनुष्य शरीर उच्च उद्देश्यों के लिये मिला है। अनुकरणीय आदर्शवादी जीवन, विश्वकल्याण में योगदान आत्मा का परमात्मा से विवाह जैसे अति महत्वपूर्ण कार्य इसी मनुष्य जीवन की शुभ घड़ी में सम्पन्न होने थे। पर हाय रे दुर्भाग्य यह पुण्य वेला पशुओं से भी गई गुजरी बीत रही है। पशु मर्यादाएं नहीं तोड़ते, पाप नहीं बटोरते पर अपनी गतिविधियां तो उलटी हो चलीं। मनुष्य से देवता बनना लक्ष्य था पर पशु भी न रह सके पिशाच बन कर यह पाप की इतनी भारी गठरी सिर पर जमा करली जिसे न जाने कब तक ढोते रहना पड़ेगा।
यह सब क्यों हुआ? कर्म से च्युत होकर अकर्म में भटकना-इतनी तीव्र बुद्धि के रहते कैसे संभव हो सका कारण एक ही है माया के आवरण में छिपी मृत्यु को भुला देना।
मृत्यु को याद रखें, उसे इर्द-गिर्द मँडराती हुई देखें। काया के चिता का खाद्य बनने से जो क्षण बच रहे हैं उनका महत्व समझे तो विवेक की आँख खुलें। यदि यथार्थ सूझे तो उस ओर बढ़ने के लिये भी कदम बढ़े। अभी तो मेढ़क पतंगे खाने में रस ले रहा है यह भूल ही रहा है कि उसके आधा धड़ अजगर के मुँह में जा चुका। तृष्णा के पतंगे खाने का मनोरथ पूरा होने से पहले ही मौत अपना अस्तित्व समाप्त कर देगी। मृत्यु का प्रत्यक्ष लक्ष्य न जाने क्यों हमारी आँख से ओझल रहता है। इस अन्धता को क्या कहें?