Magazine - Year 1972 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
फ्राइड का काम स्वेच्छाचार एक अनैतिक प्रतिवादन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मनोविज्ञान शास्त्री फ्राइड का यह बहुचर्चित प्रतिपादन सर्वविदित है कि- काम वासना की अतृप्त इच्छाएं ही मनोविकारों को उत्पन्न करती हैं और उस अवरोध से प्रतिभा कुण्ठित होती है। मानसिक ही नहीं शारीरिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है और व्यक्तित्व दब जाता है। वे कहते रहे हैं मनुष्य इंजन है और कामवासना उसमें बनती-बढ़ती भाप। यदि इस भाप को निकलने का अवसर न मिले तो विस्फोट होगा और व्यक्तित्व बिखर जायेगा। उनने उन्मुक्त काम सेवन की वकालत की है और उस पर लगे प्रतिबन्धों को हानिकारक बताया है।
उस प्रतिपादन ने यौन सदाचार पर बुरा प्रभाव डाला है और लोगों को जितना विश्वास फ्राइड के प्रतिपादन पर जमा है उतना ही असंयम और व्यभिचार को प्रोत्साहन मिला है। सुशिक्षित वर्ग में इस तथाकथित मनोविज्ञान के आधार पर यह मान्यता जड़ जमाती जा रही है कि कामेच्छा की पूर्ति आवश्यक है। उसे स्वच्छन्द उपभोग का अवसर मिलना चाहिए। संयम से शारीरिक और मानसिक हानि होती है। इस प्रतिपादन का कुप्रभाव नर-नारी के बीच पावन सम्बन्धों की समाज व्यवस्था परक सुव्यवस्था एवं पवित्रता पर पड़ रहा है। दाम्पत्य जीवन में यदि कुछ अतृप्ति रह जाती है, तो उसे बाहर पूरा करने में भय, लज्जा, संकोच अनुभव नहीं करता वरन् उस उक्त आचरण को शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक मानता है। यह व्यभिचार का खुला समर्थन है। दाम्पत्य मर्यादाओं को फिर कैसे स्थिर रखा जा सकेगा। अविवाहित या विधुर यदि व्यभिचार पथ पर प्रवृत्त होते हैं तो उन्हें किस तर्क से समझाया जा सकेगा। फिर जो छेड़छाड़ और गुण्डागर्दी की अश्लील शर्मनाक घटनाएं आये दिन होती रहती हैं उन्हें अवाँछनीय या अनावश्यक कैसे ठहराया जा सकेगा। फ्राइड का शास्त्र दूसरे शब्दों में व्यभिचार शास्त्र ही है जिसे मनोविज्ञान में दार्शनिक मान्यता देकर समाज व्यवस्था पर कुठाराघात ही किया जा रहा है। एक तो वैसे ही पशु प्रवृत्तियाँ यौन उच्छृंखलता की ओर प्रोत्साहन करती थीं- सामाजिक परिस्थितियाँ भी उसी ओर आकर्षण बढ़ाती थीं, इस पर उस प्रवृत्ति को वैज्ञानिक समर्थन मिलने लगे और संयम को हानिकारक बताया जाने लगे तब तो ब्रह्मचर्य और दाम्पत्य जीवन की पवित्रता का ईश्वर ही रक्षक है।
फ्राइड कहते हैं ‘मनुष्य बचपन से ही’ ईडिफुस कम्प्लेक्स’ में यौन आकाँक्षा अथवा यौन ईर्ष्या से ग्रसित रहता है। लड़का माँ के प्रति यौन आकाँक्षा अथवा यौन ईर्ष्या से ग्रसित रहता है। लड़का माँ के प्रति यौनाकाँक्षा से प्रेरित होता है और लड़की बाप के प्रति आकर्षित होती है। तीन वर्ष की आयु से ही बच्चा अपनी माँ के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करने के लिए व्याकुल रहता है। एकाध साल बाद जब उसे पता चलता है कि उसकी माँ के साथ तो बाप का वैसा सम्बन्ध पहले से ही है तो उसके मन में बाप के प्रति ईर्ष्या और घृणा जग पड़ती है। यह विद्वेष उसकी अवचेतना में आजीवन बना रहता है। इसी प्रकार लड़की अपने बाप के प्रति सोचती है और माँ से ईर्ष्या करती है। इस मानसिक अवरोध के कारण मनुष्य की मानसिक प्रगति रुक जाती है और ‘ईडिफस कम्प्लेक्स’ उसके सामने तरह तरह के अवरोध खड़े करता है। यह स्थिति अपवाद नहीं वरन् साधारणतया प्रायः यही होता है।’
यह कितना घृणित और हास्यास्पद प्रतिपादन है। छोटा बच्चा यौन आकाँक्षाओं से पीड़ित होगा सो भी अपनी माँ के साथ, यह बात समझ में नहीं आती। पशु-पक्षियों के शरीरों में भी वासना तब उठती है, जब उनके शरीर प्रजनन के योग्य सुदृढ़ हो जाते हैं। पर मनुष्य बालक को वह वृत्ति इतनी छोटी आयु में ही कैसे पैदा हो जाती है और फिर माँ के साथ वैसी तृप्ति करने की उसकी शारीरिक मानसिक स्थिति भी तो नहीं होती। फिर तीन वर्ष के बालक को काम प्रयोग और उनमें माँ बाप के संलग्न होने की जानकारी कहाँ से हो जाती है। फिर वह यह कैसे समझ लेता है कि उसे बाप से ईर्ष्या करनी चाहिए। यह ऐसे बेतुके प्रतिपादन हैं जिसके लिए भर्त्सना ही की जानी चाहिए पर दुर्भाग्य यह है कि उन्हीं विचारों को मनोविज्ञान शास्त्र का आधार मान लिया गया है और उन्हें ही पढ़ने पढ़ाने की बात शिक्षा क्षेत्र में बिना किसी ननुनच के स्वीकार करली गई है।
फ्राइड ने अपनी तराजू पर सारी दुनिया को तोलने की गलती की है। उनका निज का जीवन क्रम अवश्य कुछ ऐसे ही बेतुके क्रम से विकसित हुआ। फ्राइड की माता अमेलिया असाधारण सुन्दरी थी। उसने योकोव के साथ अपना दूसरा विवाह किया था। जब फ्राइड जन्मा तब वह इक्कीस वर्ष की थी। बच्चे को वह बहुत प्यार करती थी। सम्भव है कुछ समझ आने पर फ्राइड की उसके रूप में यौनाकाँक्षा भड़की हो और उसने माँ के प्यार को ‘प्रणय’ माना हो। वह जन्म से ही उद्दण्ड और ईर्ष्यालु था। एक दिन वह माता-पिता के सोने के कमरे में घुस गया ओर उन दोनों को विचित्र परिस्थिति में डालकर हड़बड़ा दिया। हो सकता है उसे इस स्थिति में ईर्ष्या उत्पन्न हुई हो। सात साल का था तो एक दिन बाप की ओर मुँह बनाकर चिढ़ाने लगा। बाप ने उसे डाँटा और कहा यह छोकरा जिद्दी और निकम्मा बनता जाता है।
यह घटनाएं फ्राइड ने स्वयं लिखी हैं। उस पर, सम्भव है अपने माँ बाप के सम्बन्ध में वैसी ही छाप पड़ी हो, जैसी कि उसने प्रतिपादित की है पर यह एक विशेष मनःस्थिति के विशेष लड़के की ही बात कही जा सकती है। इसे सर्वसाधारण पर घटित नहीं किया जा सकता है। साधारणतया बालक अपने माता-पिता के प्रति भाव भरे रहते हैं। उसके प्रति श्रद्धा, ममता और आदर का भाव रखते हैं। उनके साथ रहने के लिए प्रसन्नता अनुभव करते हैं। बाप को देखकर ईर्ष्या की आग में जल मरने वाले और माता से यौन सम्बन्ध स्थापित करने के इच्छुक तो कोई विरले ही होते होंगे। यदि सभी ऐसे होते तो लड़कियाँ अपनी माँ को और लड़के बाप को मार डालने का प्रयत्न करते और बड़े होने पर वह अचेतन वृत्ति बाप बेटी और माँ बेटे से ही शादी करा देती। तब विवाह सम्बन्ध ढूँढ़ने का झंझट ही दूर हो जाता।
इस प्रकार के प्रतिपादन का उत्साह सम्भवतः फ्राइड को पाश्चात्य धर्म मान्यताओं से भी मिला होगा। क्योंकि उनका तत्वदर्शन कुछ ऐसा ही झटापटा है।
यहूदी और ईसाई धर्म मान्यताओं के अनुसार मनुष्य जन्मजात पापी है। वह पाप वृत्तियाँ लेकर अवतरित हुआ है। उसकी प्रकृति पापमूलक है। इस ‘ओरीजिनल सिन’- को ही सम्भवतः फ्राइड ने मनुष्य की मूलभूत प्रवृत्ति माना है। जो कुछ वह सोचता है, करता है उसमें पाप ही प्रधान होना चाहिए। पापों में से प्रधानता किसे दी जाये। फ्रायड को इसके लिए सबसे सरल और आकर्षक सेक्स ही जँचा और उसने यह मान्यता गढ़ डाली कि मनुष्य की स्थिरता एवं प्रगति सेक्स पर अवलम्बित है। उसकी निरन्तर इच्छानुरूप- स्वच्छन्द पूर्ति न हो सकेगी तो मन में कांप्लेक्स-ग्रन्थियाँ बनेंगी। मनोविकार उत्पन्न करेंगी, बीमारी लायेंगी और न जाने क्या-क्या करेंगी। इसलिए उन समस्त उपद्रवों और हानियों से बचने का एक ही आकर्षक तरीका है कि स्वच्छन्द काम सेवन की सुविधा प्राप्त की जाय। इस दिशा में लगे हुए प्रतिबन्धों और मर्यादाओं को अमान्य किया जाय। स्वेच्छाचार और स्वच्छन्दतावाद सम्भवतः इसलिए उन्हें उचित प्रतीत हुआ क्योंकि वह उस दर्शन में- जिसमें फ्रायड पले यह माना जाता है कि मनुष्य जन्मजात पापी है। पाप उसकी प्रकृति है। जब ऐसा ही है तो उस मूल प्रवृत्ति को क्यों रोका जाय ? यही है फ्राइड का अधूरा और बेतुका चिन्तन जिसे न जाने क्यों विचारशील लोगों ने आँखें बन्द करके स्वीकार कर लिया है।
मनुष्य की प्रकृति में कामुकता का भी एक स्थान है, पर वह है सीमित, उसे मान्यता मिली है, उसे हर्षोल्लास के विकास की दृष्टि से प्रयुक्त भी होने दिया जाता है, पर उसकी दिशा ऊँची रखी जाती है और यह प्रयत्न किया जाता है कि वह ऊर्ध्वगामी होकर विकसित हो। विवाह के समय पत्नी प्रियतमा व प्रेयसी होती है, रस रंग में सहायक होती है, पर उसकी इस स्थिति की अवधि बहुत स्वल्प है। जल्दी ही वह माँ बन जाती है और फिर पति भी-पत्नी भी अपने उत्तरदायित्वों और गृहस्थ के कर्तव्यों को देखते हुए-बालकों पर पड़ने वाले प्रभाव का ध्यान रखते हुए उस प्रणय प्रवृत्ति को जल्दी ही शालीनता में परिणत करने लगते हैं। आरम्भिक दिनों में चन्द्र वदनी, मृगनयनी आदि कहा जाता था पर थोड़े ही दिनों बाद वह मुन्नी की मम्मी, श्याम की माँ कहकर पुकारी जाती है। फिर परस्पर सम्बोधन बच्चों के नाम पर उनकी माता जी या उनके पिताजी कहकर किये जाते हैं। वासनात्मक दृष्टिकोण बदलकर अभिभावकों का- बुजुर्गों का- बन जाता है। यह स्वस्थ दृष्टिकोण है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की चार उपलब्धियों में एक गणना काम की भी है, पर उसकी प्रधानता नहीं तीसरा नम्बर है। पहले धर्म कर्त्तव्य- इसके बाद अर्थ पुरुषार्थ- तब कहीं काम- सो भी तुरन्त छुटकारे से- मोक्ष से- तनिक ही पूर्व सूर्य चन्द्र पर ग्रहण लगता तो पर उसका मोक्ष काल भी जल्दी ही आ जाता है। यही है तथ्यपूर्ण काम मर्यादा।
माना कि पशु प्रवृत्तियाँ भी मनुष्य के भीतर हैं पर इसका अर्थ यह तो नहीं है कि उन्हें खुलकर खेलने के लिए छुट्टल कर दिया जाय। उनका उदात्तीकरण ही तो ‘संस्कृति’ है। बालों को काट-छाँट कर साज-संभाल कर ही तो उन्हें सुन्दर बनाया जाता है। यदि उन्हें मूल रूप में ही बढ़ने दिया जाय तो फिर मनुष्य की शकल आदम मानव जैसी कुरूप बन जायेगी। बगीचे की कटाई, छंटाई, खुदाई-निराई न की जाय तो वह झाड़-झंखाड़ के रूप में कुरूप बना खड़ा होगा। पशु प्रवृत्तियों का उदात्तीकरण ही तो ‘कला’ है। कला रहित को सींग, पूँछ रहित पशु कहा गया है। ‘काम’ को भारतीय दर्शन में भी उसके मूल स्वरूप में स्वीकार किया गया है और उसका सम्मान भी किया गया है। उसे ‘पाप’ नहीं माना गया वरन् हर्षोल्लास, विनोद, कौतुक के भावान्दोलन का लाभ लेकर उसे श्रद्धा सिक्त अभ्यास की दिशा में उन्मुख कर दिया गया है। शिव लिंग की प्रतिमाएं देव मन्दिरों में पूजी जाती हैं यह नर नारी की जननेन्द्रियाँ ही हैं। उन्हें सृष्टि बीज-चेतना केन्द्र के रूप में श्रद्धासिक्त दृष्टि से देखा जाता है और अर्चना अभ्यर्थना के उच्च स्तर पर उन्हें बिठाकर वन्दन अभिनन्दन किया जाता है। उच्छृंखल उन्माद के लिए- कोमल भावनाओं के रूप में उन्हें मृदुल रस धारा बनाकर जीवन मरुभूमि में प्रवाहित करना ही ललित कलाओं का उद्देश्य है। शिव द्वारा काम दहन के पौराणिक कथानक ने स्थूल काम सेवन को विक्षोभकारी, असन्तुलन उत्पादन का अपराधी ठहरा कर विवेक के तृतीय नेत्र से उसे भस्म कराया है। साथ ही उसे अशरीरी बनकर अजर-अमर रहने का वरदान भी मिला है और उसे देवताओं की पंक्ति में बिठाया गया है। यही है काम सम्बन्धी परिष्कृत दृष्टिकोण।
पर सन्तोष इस बात का है कि आरम्भ में फ्रायड को जैसा समर्थन मिला था और नवीन सभ्यताभिमानियों ने हर स्तर पर जिस उत्साह से उसकी हाँ में हाँ मिलाई थी, अब वैसी बात नहीं रही। वह जोश ठण्डा पड़ता जा रहा है और संयम सदाचार को वैसा ही उपयोगी माना जाने लगा है जैसा कि प्राचीन काल से माना जाता आ रहा है। विज्ञानवेत्ताओं की नवीनतम शोधें फ्राइड का समर्थन नहीं करतीं वरन् उसे झुठलाती हैं।
लीसेस्टर विश्व विद्यालय के मनोविज्ञान प्राध्यापक डॉ. डेविड राइट ने अपने शोध पर्यवेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला है कि काम वासना मनुष्य की स्वाभाविक एवं जन्मजात प्रवृत्ति नहीं है, वरन् वह सामाजिक जीवन के प्रचलन द्वारा आरोपित है। उनने पशुओं पर किये गये अपने परीक्षणों से सिद्ध किया है कि काम सेवन के अभाव में कोई जन्तु हिंसक या समाज विरोधी नहीं बनता वरन् वह अपेक्षाकृत अधिक सौम्य हो जाता है। बंध्य बनाये गये, बैल, भैंसे, घोड़े, बकरे, गधे आदि उन्मुक्त काम सेवन करने वाले अपने सजातियों की तुलना में अधिक शान्त प्रकृति के होते हैं जबकि फ्राइड का कहना यह है कि यदि मनुष्य को काम सेवन की छूट न मिले तो वह समाज विरोधी बन जायेगा। यह बात उन्हीं लोगों के लिए सही हो सकती है जो उच्छृंखल वातावरण में रह रहे हैं। साधु प्रकृति के संयमी, सदाचारी और ब्रह्मचारी काम सेवन का अवसर न रहने पर भी न तो हिंस्र बनते हैं और न समाज विरोधी।
श्री राइट ने अनेकों उदाहरणों से यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि यदि कामुकतापूर्ण वातावरण एवं चिन्तन से दूर रहा जाये तो वह प्रवृत्ति स्वयमेव शिथिल या समाप्त हो जाती है। द्वितीय महायुद्ध में पकड़े गये बन्दी सैनिकों तथा साइबेरिया के श्रम शिविरों में बन्द लोगों का पर्यवेक्षण करने पर निष्कर्ष है कि उनकी न केवल रति क्षमता वरन् वह इच्छा भी घट गई अथवा समाप्त हो गई। इसी प्रकार उन्होंने किन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों में मनोयोगपूर्वक लगे हुए व्यक्तियों के उदाहरण देते हुए बताया है कि उन्हें अपने चिन्तन की व्यस्तता में काम सेवन की न तो इच्छा होती है और न आवश्यकता प्रतीत होती है। सेनानायक, नाविक, पर्वतारोही, वैज्ञानिक, शोधकर्ता, अध्ययन परायण व्यक्तियों की कामेच्छा बहुत स्वल्प होती है और वह भी तब तक जाग्रत नहीं होती जब तक कि वातावरण, संवाद अथवा स्वचिन्तन से ही उस तरह की अतिरिक्त उत्तेजना न मिले।
भारत के नैतिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य संगठन दिल्ली के एक शोध अध्ययन से पता चला है कि काम सेवन की न्यूनता से नहीं वरन् उसकी अति से पारिवारिक कलह उत्पन्न होते हैं। इस दिशा में अधिक आतुर, उत्सुक रहने वाले न केवल शारीरिक दुर्बलताग्रस्त होते हैं वरन् मानसिक सन्तुलन खोकर चिड़चिड़े भी हो जाते हैं और उस अति को अपने ऊपर अत्याचार मानकर विरोध विद्रोह भी करते हैं। पारिवारिक कलह एवं मनोमालिन्य की घटनाओं में इस विग्रह का बहुत बड़ा हाथ पाया गया है। जो लोग मर्यादाओं में रहते हैं उन्हें एक दूसरे से शिकायत होना तो दूर उलटे विश्वास, सम्मान, सन्तोष और सहयोग की मात्रा बढ़ी-चढ़ी रहती हैं।
कामुकता केवल क्रीड़ा कौतुक की तृप्ति तक सीमित नहीं रहती वरन् उसकी मर्यादायें तोड़ कर चलने से अनेक यौन रोग भी पैदा होते हैं। उपरोक्त संगठन ने दिल्ली की 232 वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाओं की जाँच कराई तो उनमें 212 को यौन रोग निकले और उनके संपर्क में आने वाले हजारों को वह गर्मी, सुजाक जैसी बीमारियाँ लगीं। एक ही विद्यालय में इस प्रकार की छूट से ग्रसित 37 छात्र पाये गये। इसी से मिलती जुलती रिपोर्ट अन्य नगरों की भी हैं। आवश्यक नहीं कि गन्दी सोहबत से ही यह संक्रामक रोग होते हैं। विशुद्ध रूप से पति पत्नी के बीच अमर्यादित काम सेवन चलने से भी इस प्रकार की बीमारियाँ स्वयं में उठ खड़ी होती हैं और फिर उनका दुख बुरी तरह भोगना पड़ता है।
आश्चर्य इस बात की नहीं कि फ्राइड ने ऐसा बेतुका- अविश्वस्त और अप्रमाणित प्रतिपादन कैसे किया। आदमी कुछ भी सोच और कुछ भी कर सकता है। तेज अकल किसी उलटी और औंधी बात को भी सही सिद्ध कर सकती है। अकल एक जादू है उसे जिधर भी जुटा दिया जाय उधर ही चमत्कार उत्पन्न करेगी। तरस उन लोगों की बुद्धि पर आता है जिनने इस बात को आँखें बन्द करके सही मान लिया और इससे भी आगे कदम यह बढ़ाया कि उसे शिक्षा पद्धति में स्थान देकर कच्ची बुद्धि के बालकों को वैसा ही कुछ सोचने के अनैतिक पथ पर धकेल दिया।