Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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क्या हम जीवित है? क्या हम जीवितों जैसे काम करते है?
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तत्व वेत्ता सेन्टपाल ने कहा था- हम जीवित है। जीवितों जैसे कार्य करते हैं। हमारा जीवन ईश्वर के लिए है। सचमुच वैसा ही है भी। मात्र हलचल करने वाली वस्तुओं से हम भिन्न नदी, पर्वत, बादल, वृक्ष, वनस्पति आदि हलचल भर करते हैं। उन्हें अपनेपन का ज्ञान नहीं आत्म बोध के अभाव में वे जड़ कहलाते हैं। यो जड़ कोई भी वस्तु इस धरती पर नहीं है, जीवन का न्यूनतम अंश कण-कण में विद्यमान् है। यदि ऐसा न हो तो उसे व्यवस्थित रूप से अपनी गतिविधियों को चला सकना कठिन हो जाता।
हम जिन्दा है वे जानते हैं। मनुष्य अपने आपको जीवित अनुभव करता है। अपनी सत्ता से परिचित है। स्वयं के लिए बहुत कुछ सोचता और बहुत कुछ करता है। जो विचार पूर्वक कार्य करता है उसी को कार्यकर्ता कहा जा सकता है। अन्यथा प्रकृति स्वयं गतिशील है और प्रभाव क्षेत्र में हर किसी को गतिशील रखती है। न वह चैन से बैठती है न किसी को बैठने देती है। यहाँ किसी को विश्राम नहीं, किसी को चैन नहीं हरकत किये बिना कोई अपने अस्तित्व का परिचय दे ही नहीं सकता, अपने स्वरूप को बनाये भी नहीं रह सकता। पूर्ण स्थिरता और प्रलय एक ही बात है। जिस क्षण हृदय का, कोशिकाओं का, ज्ञानतन्तुओं का कार्य रुकेगा, उसी क्षण हम मृत्यु की गोदी में शयन कर रहे होगे।
कार्य करने से मतलब है विचार पूर्वक कार्य। किसी प्रयोजन के लिए- किसी आकांक्षा की पूर्ति के लिए काम करना स्वचालित रक्त संचार श्वास- प्रश्वास आकुंचन, प्रकुञ्चन, जैसी शरीर की अन्तरंग क्रिया- प्रक्रिया के अतिरिक्त और सब कुछ विचार पूर्वक ही किया जाता है। इस लिये उसे कर्म कहा जाता है। कर्म यह है जिसका फल भोगने के लिए विवश होना पड़े
हम अपने आपको जानते है- अपने अस्तित्व से परिचित है इसीलिए जीवित है। विचार, इच्छा और बुद्धि का उपयोग करके- परिणाम को ध्यान में रखते हुए काम करते हैं इसलिए ‘कर्म रत’ भी है। कार्य भी करते हैं। भले ही तात्कालिक और दूरगामी परिणामों का विभेद करने वाली विवेक बुद्धि का जागरण न हुआ हो तो भी जो कुछ किया जाता है उसमें समझ- बूझ की भली बुरी मात्रा रहती है। यह कर्त्तव्य का चिह्न है। इसमें कर्म परायणता छिपी हुई है। निस्संदेह हम जीवित ही नहीं कर्मरत भी है। काम भी करते हैं।
सेन्टपाल की उक्ति का तीसरा चरण है जीवन ईश्वर के लिए है। थोड़ी गहराई से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि हम अपनी अलग अहंता और अलग स्वार्थ परता में मानसिक दृष्टि से उलझे भर भले ही रहे पर वस्तुतः सृष्टि क्रम सुसंचालित शृंखला का अविच्छिन्न अंग मात्र बनकर रहना पड़ रहा है। स्वार्थ की चिन्तनात्मक शृंखला हम ईश्वर की इच्छानुसार चलने के लिए उसकी सृष्टि संचालन प्रक्रिया का एक घटक भर रहने के लिए बलात् बाध्य है।
अन्न का उत्पादन, उसका उपयोग और उसकी पुनः खाद के रूप में परिणति सृष्टि की क्रम शृंखला है। हम उस ईश्वर इच्छा में व्यवधान उत्पन्न कर ही नहीं सकते। अन्न अथवा अन्य जीवनोपयोगी उत्पादन स्वयं करने अथवा उस कार्य में लगे लोगों के सहायक बनने के लिए हम विवश है हमारी आजीविका उपार्जन इसके अतिरिक्त और किस काम के लिए है? अन्न- वस्त्र आदि जीवनोपयोगी सुविधाएँ कमाने के लिए और उनकी सहायता सुविधा जुटाने में ही प्रकारान्तर से हमारी कमाई खर्च हो जाती है। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उत्पादन बुद्धि में संलग्न रहना ही पड़ेगा आजीविका कमानी ही होगी और जो भी उपार्जन क्रम होगा वह उत्पादन की धुरी पर घूम रहा होगा और उस उत्पादन का प्रयोग अन्ततः जीवधारियों की जीवन यात्रा में ही हो रहा होगा। क्या कोई उम्र ईश्वरेच्छा का उल्लंघन करने में समर्थ है? घोर स्वार्थी और समाज विरोधी को भी इस प्रकृति शृंखला का उल्लंघन कर सकने की छूट नहीं है।
उत्पादन का उपयोग करने के लिए हम बाध्य है। भूमि अन्न खाद्य पदार्थ उगाती है। हम उसका उपभोग किए बिना रह ही नहीं सकते। वृक्षों से आक्सीजन उपजती है उसे साँस में ग्रहण किये बिना किसी प्रकार गुजारा नहीं यदि मनुष्य साँस से कार्बन डाई आक्साइड गैस न छोड़े तो पेड़ पौधों को खुराक न मिले। ईश्वर की सृष्टि को चलाने के लिए यह अनिवार्य है कि वे परस्पर पूरक स्तर की वायु छोड़े और ग्रहण करे। इनमें से कोई भी इस नियति का उल्लंघन नहीं कर सकता।
उत्पादन का हर प्राणी उतना ही उपभोग करे जितना कि उसके लिए नियत निर्धारित है यह सृष्टि क्रम है। मनुष्य चार रोटियाँ ही खा सकता है। कुछ छटाँक अन्न ही उसके हिस्से में आया है। कोई भी ऐसा नहीं कर सकता कि मानवी खुराक से सौ पचास गुना अधिक आहार कर सके। शरीर पर वस्त्र धारण की सीमित मर्यादा है। सौ गज कपड़े का कुर्ता कौन पहन सकेगा? धन तथा सुविधा सामग्री की कोई बर्बादी तो कर सकता है पर उपभोग के लिये एक नियत क्रम व्यवस्था की मर्यादाओं में बंधकर ही उसे रहना पड़ेगा
आहार करके धरती का जो स्वत्व उपयोग में लाया गया है उसे खाद रूप में पृथ्वी को वापिस करना जरूरी है। इसलिए मल त्याग किये बिना कोई चारा नहीं शरीर में प्रयुक्त पंचतत्व अपना कार्य पूरा करने पर पुनः अपने विशाल सागर में मिल जाते हैं। मृतकाया को सड़ गल कर नष्ट होना ही पड़ता है और प्रकृति को पंच तत्व व्यवस्था में अपने ढंग से काम करने देना होता है। कौन है जो ईश्वर के लिए बने शरीर और कर्म में व्यवधान उत्पन्न कर सके।
प्राणी बाध्य है सृष्टि क्रम से अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिए विवश रखा गया है। पेट की भूख, इन्द्रियलिप्सा, उन्नति की महत्त्वाकाँक्षा यौन आकर्षण, सन्तान के प्रति वात्सल्य की क्षुधाएँ ऐसी है जो मनुष्य को जंजीरों में बाँधकर उस दिशा में घसीटती चली जाती है जिसके लिए ईश्वर ने उसे नियत किया है। गंभीरता से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि हमारी शारीरिक और मानसिक परिस्थिति जिस स्तर की बनाई गई है उसी के अनुरूप जाने के लिए काम करने के लिए हमें विवश होना पड़ता है। अर्थात् ईश्वर के लिए उसकी सृष्टि व्यवस्था चलाने के लिए हम बाध्य है। वन प्रदेश को अत्यन्त सघन होने देने के लिए वन्य पशुओं का अस्तित्व, बन पशुओं की बाढ़ रोकने के लिए हिंस्र जन्तुओं का सृजन। हिंस्र जन्तुओं की स्वल्प प्रजनन शक्ति तथा परस्पर द्वेश विग्रह की प्रवृत्ति के कारण संख्या वृद्धि पर नियन्त्रण। यह क्रम शृंखला बताती है कि यहाँ जो कुछ हो रहा है ईश्वरीय इच्छा के अनुरूप ईश्वर की सृष्टि को संचालित रखने के लिए हो रहा है इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए तत्त्वदर्शी यह कहते रहे है कि जो कुछ हो रहा है ईश्वर की इच्छा से हो रहा है।
यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या मनुष्य कृत दुष्टता, स्वार्थपरता, भी ईश्वर की इच्छानुसार है? क्या मनुष्यों द्वारा बरती जाने वाली दुर्भावनाएँ और दुष्प्रवृत्तियाँ भी ईश्वरेच्छा की प्रतीक है?
हमें एक स्वर से कहना चाहिए--- नहीं - नहीं प्रत्येक मनुष्य के अन्तः करण में एक धीमी आवाज उठती रहती है जो उसे मानवी गरिमा के अनुरूप सद्भाव अपनाने, एवं सत्कर्म करने के लिए निरन्तर प्रेरणा देती रहती है। दुष्कर्म करते ही आत्मग्लानि की इतनी प्रबल प्रतिक्रिया होती है कि उसे सहन करना असह्य हो जाता है। उस आत्म प्रताड़ना से बचने के लिए ही आमतौर से कुमार्ग गामी लोग प्रताड़ना से बचने के लिए ही “गम गलत” करने की दुहरी विडम्बना करते रहते हैं। सत्कर्म करने पर एक दिव्य संतोष भीतर ही भीतर अनुभव होता है। इसी लाभ को प्राप्त करने के लिए सन्त, तपस्वी, योगी, ज्ञानी, परोपकारी, महामानव इतना कष्ट उठाते और आदर्शवादी अनुकरणीय गतिविधियों की कष्ट साध्य प्रक्रिया अपनाते हैं।
ईश्वर ने मनुष्य को सोचने और करने की स्वतंत्रता दी है। इसलिए कि उसे उत्तरदायित्व समझने वाला माना गया है। इस अपेक्षा की हमें रक्षा करनी ही चाहिए। यदि नहीं करते तो उस दुर्गति के भागी बनते हैं जो नियति क्रम में अवरोध उत्पन्न करने की होती रहती है। भोजन तो किया जाय पर मल त्याग को रोक दिया जाय, साँस ली तो जाय पर छोड़ी न जाय तो इस अवरोध का दुस्साहस कर्ता बेतरह मारा जाएगा ठीक इसी प्रकार मनुष्य का जीवन ईश्वर के लिए है- उसके प्रयोजनों के लिए है- के तथ्य से विमुख होकर कोई व्यक्तिगत संकीर्णता स्वार्थपरता के अवरोध उत्पन्न करेगा तो वह बेहिसाब पिटेगा। बुरी तरह घायल होगा रुदन करेगा और वे मौत करेगा आज यही हो रहा है। ईश्वरीय विशेष प्रयोजन के लिए मानव जीवन है, उसे इतना अधिक समुन्नत और सुविधा सम्पन्न अकारण ही नहीं बनाया गया है। इस संरचना के पीछे सृष्टि को अधिक समुन्नत सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने की ईश्वरीय आकांक्षा जुड़ी हुई है। जो इस प्रयोजन की उपेक्षा करेगा वह दुहरे घाटे में रहेगा। न तो स्वार्थ साधन से सुख प्राप्ति का मनोरथ पूरा कर सकेगा और न ईश्वर के निमित्त जीने के राज मार्ग पर चलते हुए जो आनन्द उठाया जा सकता था उसे उठाया जो सकेगा। इसलिए दूरदर्शिता इसी में है कि हम जीवन को ईश्वर के लिये जिये।
तत्व वेत्ता सेन्टपाल की दिव्य दृष्टि ने व्यक्ति और विश्व के पारस्परिक सम्बन्धों पर गहराई से विचार विवेचन करते हुए यह निष्कर्ष सहज ही निकाला है कि हम जीवित है, जीवितों जैसे कार्य करते हैं। हमारा जीवन ईश्वर के लिए है। प्रकृति हमसे यह सारा क्रिया-कलाप बहिरंग जीवन में अनिवार्य रूप से करा रही है। प्रश्न केवल अन्तरंग जीवन का है। अपनी स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र कर्तव्य की क्षमता को भी यदि हम इस दिशा में नियोजित करते तो सच्चे अर्थों में यह कहा जा सकेगा कि हम जीवित है। जीवितों जैसे काम करते हैं और जीवन ईश्वर के लिये जीते हैं।