Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रस्तुत विकृतियाँ और उनके निराकरण का एकमात्र आधार
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युग परिवर्तन की महती आवश्यकता की पूर्ति के लिए भावनाशील व्यक्तियों के प्रबल पुरुषार्थ के साथ उठ खड़े होने का ठीक यही समय है। बढ़ती हुई दुष्प्रवृत्तियों का प्रवाह क्रम इतना प्रचण्ड है कि यथा-स्थिति बनाये रहना किसी भी दृष्टि से वाँछनीय नहीं। जन-मानस में विकृतियाँ इस कदर बढ़ती जा रही हैं कि उनके विद्रूप विस्फोट कभी भी विपत्ति खड़ी करके रख देंगे।
अपराधों की दुष्प्रवृत्तियाँ प्रत्यक्ष और परोक्ष स्तर पर इतनी बढ़ती जा रही हैं कि अब किसी घोषित सदाचारी के भी छद्म दुराचारी होने की आशंका रहती है। लगता है चरित्र निष्ठा कोई तथ्य न रहकर वाक-विलास को-परस्पर उपदेश करने में काम आने वाली चर्चा चर्या- बनकर रह गई है।
एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति अविश्वास चरम सीमा तक बढ़ता जा रहा है। किसी को किसी का भरोसा नहीं-न जाने कौन आज मित्र बनकर कल शत्रु जैसा अप्रत्याशित आक्रमण कर बैठे, इससे हर किसी का दिल दहलता रहता है। पति और पत्नी के बीच की गई पवित्र प्रतिज्ञाएँ एक मखौल जैसी बन गई हैं। छोटे-छोटे कारणों को लेकर कितनी ही परित्यक्ता बनादी जाती हैं और कितनों का प्राण हरण कर लिया जाता है। ऐसे पैशाचिक-कृत्य अब अपवाद नहीं रहे। विवाह के समय देखे गये सुखद स्वप्नों को रौरव नरक में परिणत होते हुए अगणित सधवाएँ देखती हैं और खून के आँसू बहाती हुई विवशता भरी दुर्दशा के बीच मौत के दिन गिनती हैं। सुखद और सन्तुष्ट दाम्पत्य जीवन का आनन्द किन्हीं विरले ही सौभाग्यवानों को मिलता है अन्यथा कामुक दृष्टि की प्रधानता के कारण पवित्र विवाह-संस्था का लगभग दम ही घुट चला है।
पिता पुत्र के सम्बन्ध अब नाम मात्र के रह गये हैं। जब तक वयस्क नहीं होते तभी तक बेटे रहते हैं। जैसे ही पर उगे-विवाह हुआ-आजीविका से लगे, वहीं माता-पिता और भाई-बहिनों का रिश्ता प्रायः समाप्त ही हो जाता है। परिवार संस्था जब समस्त संसार में टूट गई तो अकेले भारत में ही वह कब तक चलती? पशु पक्षियों के बालक भी कहाँ अपने माता-पिता को सँभालते हैं-और पिता माता भी सन्तान के कब कुछ आशा करते हैं, ऐसी दशा में मनुष्य ही उस बन्धन में क्यों बँधे? उपेक्षा का आरम्भ सन्तान की ओर से भले ही हुआ हो पर उसकी प्रतिक्रिया तो माँ-बाप पर भी होती ही है। पाश्चात्य देशों में पति-पत्नी के बीच- बाप-बेटे के बीच ऐसा कोई आधार नहीं कि कोई किसी से आड़े समय में भी सहायता की आशा कर सके। जब पशु जीवन में ही प्रवेश करना लक्ष्य बन गया तो फिर परिवार संस्था के बीच उच्च आदर्श कब तक जीवित रह सकते थे? कहना न होगा कि घर-परिवार अब एक होटल, कम्यून-केन्टीन जैसे बनते इस छोटी प्रयोगशाला में प्रस्तुत रहने और स्वर्गीय अनुभूतियों का प्रत्यक्ष आनन्द प्रस्फुटित होते रहने वाली स्थिति अब कहाँ किस परिवार की है?
असंयमी मनुष्य अहिर्निशि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी बजाता रहता है। नशेबाजी से अब कोई बिरला ही बचा होगा। तमाखू और चाय अब मात्र-जल जैसी आवश्यकता बन गई है। चटोरेपन ने आहार को लगभग विष स्तर का बना दिया है जिसे खाकर जीवन धारण का प्रयोजन पूरा नहीं होता वरन् वह उलटा जीवन को खाता है। कामुकता किशोरावस्था आरम्भ होने से पहले ही पनप उठती है और बहुमूल्य जीवन रस का क्षरण उस अबोध एवं अपरिपक्व स्थिति में ही आरम्भ हो जाता है। ऐसी दशा में जवानी और बुढ़ापा गांठ जोड़ करके साथ-साथ आने लगे हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। यौवन आने से पूर्व ही शरीर का दीन दुर्बल रोग ग्रसित स्थिति में देखी जा सकती है। अब दवा और डाक्टर दैनिक आवश्यकताओं में जुड़ गये हैं, इनकी सहायता के बिना किन्हीं बिरलों की ही काया का छकड़ा आगे धकेला जाता है।
मनोविकारों की तो हद ही हो गई है। शरीर टूट रहे हैं ये तो प्रत्यक्ष है ही। मनों के भीतर कितनी विषाक्त विकृतियाँ धँस पड़ी हैं, इसे थोड़ी गहराई में उलट-उलट कर देखा जाय तो लगेगा कि मनुष्य जैसी गुण, कर्म स्वभाव वाली- विचारणा, अभिरुचि और आकाँक्षा वाले- व्यक्तियों को उँगलियों पर गिन सकने जितनी संख्या में भी ढूंढ़ निकालना कठिन है। सब की अपनी अपनी सनकें हैं-अपनी-अपनी उद्दण्ड आदतें। मर्यादाओं के बाँध तोड़कर उच्छृंखलता का पानी भयावह बाढ़ों को पीछे छोड़ रहा है। क्रोध,आवेश उत्तेजना से ग्रसित मनःस्थिति तनिक सी बात पर खून खराबी के लिए बाहों चढ़ाकर फिरती देखी जा सकती हैं। खीज,ईर्ष्या, प्रतिशोध और विद्रोह का असुर अपने आदिम अस्त्रों से सुसज्जित होकर कहीं पर भी श्रोणित-तर्पण प्रस्तुत करता देखा जा सकता है। हत्याओं और आत्म हत्याओं का सिलसिला इतनी द्रुत गति से आगे बढ़ रहा है मानो यह भी साधारण, स्वाभाविक जीवन का एक अंग ही बनने जा रहा हो। सभ्यता का आवरण ओढ़े हुए मानत-प्राणी आदिमकालीन हिंस्र पशुओं की स्थिति में लौटने के लिए कितना आकुल-व्याकुल हो रहा है यह देखत हुये अवाक् रह जाना पड़ता है और सोचना पड़ रहा है कि प्रगति के कदम आगे की ओर बढ़ रहे हैं या पीछे की ओर।
चिन्ता, निराशा, आशंका असुरक्षा एवं अविश्वास से बचा हुआ स्वच्छ मन अब किसी विरले को ही दृष्टिगोचर होगा। सन्तुलित दृष्टिकोण लेकर वस्तुस्थिति समझ सकने वाले और यथार्थता का मूल्यांकन कर सकने वाले लोग अब ढूंढ़े नहीं मिलेंगे। जिसे देखो अहंकार भरे आक्रोश और आवेश-पक्षपात और पूर्वाग्रह में ग्रस्त मिलेगा। ऐसी दशा में विवेक की-न्याय की-औचित्य की दुहाई देना अरण्य रोदन जैसा निरर्थक बनकर रह जाता है। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाले जंगली कानून का जहाँ बोलबाला हो वहाँ आतंकवादी, गुण्डागर्दी ही मनमानी करेगी, यही सब कुछ हो रहा है। थोड़े से आतंकवादी अपने क्षेत्र पर इस तरह छाये मिलेंगे मानो विरोध प्रतिरोध की उन्हें कोई आशंका, सम्भावना ही न रह गई हो। हर भले आदमी के लिए इज्जत बचाकर जिन्दा रह सकना कठिन बन गया है। न्याय की चर्चा तो बड़ी सुन्दर है पर इसे प्राप्त कर सकना-ईश्वर को प्राप्त कर सकने से भी अधिक दुर्लभ है। सर्व साधारण को न्याय मिल सके ऐसी आज की स्थिति नहीं है और न सरकारी मशीनरी ही उस प्रयोजन को पूरा करा सकने में समर्थ है। ऐसी दशा में सदुद्देश्यों पर से-आदर्शों पर से मनुष्य की निष्ठा प्रायः उठती सी चली जा रही है। लोग अनास्थावान बनते चले जा रहे हैं।
यह दयनीय स्थिति हमें अपने चारों ओर बिखरी दिखाई पड़ेगी और थोड़ा ध्यान देने पर प्रतीत होगा कि मनुष्य जाति कितनी दयनीय दुर्दशा में फँस गई है। यो सज्जनों का-सत्प्रवृत्तियों का-सद्भावनाओं का सर्वथा अभाव नहीं है। सुविस्तृत मरुस्थल में जहाँ तहाँ हरियाली उगी हुई और छोटी शीतल सरोवर भी देखी जा सकती है पर इन दृश्यों को अपवाद ही कहा जा सकेगा। सामान्य स्थिति जो बन चुकी है और उसमें बिगाड़ के तत्व जिस क्रम से बढ़ रहे हैं उसे देखते हुए दुखदायी निराशा भरी अंधियारी आसमान से उतरती चली आ रही है ऐसा ही मान जायगा।
सुधारवादी तत्वों की स्थिति और भी उपहासास्पद है। धर्म, अध्यात्म, समाज एवं राजनीति के क्षेत्रों में सुधार एवं उत्थान के नारे जोर शोर से लगाये जाते हैं पर उन क्षेत्रों में जो हो रहा है-जो लोग कर रहे हैं उसमें कथनी और करनी के बीच जमीन आसमान जैसा अन्तर देखा जा सकता है, ऐसी दशा में उज्ज्वल भविष्य की आशा धूमिल ही होती चली जा रही है। विज्ञान के द्वारा साहित्य और कला के द्वारा-मूर्धन्य व्यक्तित्वों द्वारा जो भूमिका प्रस्तुत की जा रही हैं उनसे सत्परिणामों की आशा नहीं बँधती- वरन् निराशाजन्य दुष्परिणामों की ही आशंका बढ़ती है। देश-देश की राजनीति में जो शतरंज बिछी हुई है उसमें एक-दूसरे को मात देने के लिए पुरी दुरभि-संधियाँ संजोये हुए प्रवीण शकुनि अपनी-अपनी जगह मजबूती से जमे बैठे हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्थिति विस्फोटक होती जा रही है। कब किसी दिन विश्व-युद्ध फट पड़े और कब अणु आयुधों के प्रहार से संचित-सभ्यता का सर्वनाश प्रस्तुत हो जाय कुछ कहा नहीं जा सकता। यह विभीषिका कल-परसों ही अपने सर्वभक्षी विकराल रूप में सामने खड़ी दृष्टिगोचर हो सकती है और ब्रह्माँड के इस अनुपम सौंदर्य वाले पृथ्वी-पिण्ड को महाप्रलय ग्रस सकती है।
हम आज ऐसे ही विपत्ति भरे क्षणों में जीवन-यापन कर रहे हैं। प्रश्न फिर बही सामने आते हैं कि क्या यथास्थिति बनी रहने दी जाय? क्या हम सब ऐसे ही समय की प्रतीक्षा में ऐसे ही हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहें? अपने को असहाय, असमर्थ अनुभव करते रहें? और स्थिति बदलने के लिए किसी दूसरे पर आशा लगाये बैठे रहें? मानवी पुरुषार्थ कहता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए। बदलाव के लिए बड़े लोग आगे न आएं तो भी निराश नहीं होना चाहिए वरन् हम छोटे लोगों को ही मिल-जुलकर कुछ करना चाहिए। दिवाली की काली अमावस्या को जब मृत्तिका के तनिक-तनिक से दीपक दीपपर्व का उत्साहवर्धक आभा में बदल सकते हैं तो हम भावनाशील और कर्मनिष्ठ व्यक्ति क्या कुछ नहीं कर सकते?
इन परिस्थितियों में हमें निष्क्रिय पर्यवेक्षक के रूप में नहीं बैठा रहना चाहिए, बल्कि यह देखना चाहिए कि इतिहास में क्या कभी ऐसे प्रसंग पहले भी आये हैं और आये हैं तो उस स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए क्या उपाय बरते गये हैं। इस सम्बन्ध में सब उपयुक्त तुलनात्मक स्थिति त्रेता के अन्त में बढ़ी हुई असुरता से की जा स्थिति को बदलने के लिए दो राजकुमार जटा-जूट बाँधकर आगे आये और उनका साथ देने के लिए रीछ-बानरों की सेना अपने प्राण हथेली पर रखकर खड़ी हो गई। इतिहास साक्षी है कि असम्भव कही जा सकने वाली घटनाएँ सामने आई। समुद्र पर पुल बँधा और दुर्दांत दैत्यों का अन्त ईंट-पत्थरों द्वारा लड़ने वाली वानरी सेना द्वारा कर दिया गया। अब भी उसकी पुनरावृत्ति हो सकती है होनी चाहिए।
आज रीछ-बानरों की तरह प्राण-पण से असुरता से जूझने वाले भावनाशील और कर्मनिष्ठ व्यक्तित्वों की आवश्यकता है जो हलके-फुलके ढंग से, यश लिप्सा के लिए लोकसेवा का आडम्बर करने नहीं, वरन् उससे महान प्रयोजन के लिए अपने को गलाने-खपाने के व्रत संकल्प लेकर ही आगे आयें। ऐसे व्यक्तित्व यदि मिल सकें तो व्यक्ति, परिवार और समाज को- हर क्षेत्र को जकड़े हुए प्रस्तुत अन्धकार अपने समीपवर्ती अन्धकार का खा सकता है तो कोई कारण नहीं कि युग परिवर्तन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए अपने के खपा देने वाले परिष्कृत व्यक्तित्व समय पर छाई हुई विभीषिकाओं को उलटकर न रख सकें।
इस संदर्भ में भारत की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण परम्परा भी है- वानप्रस्थ। उस गौरव गरिमा के दिनों में प्रायः प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति अपने जीवन का उत्तरार्द्ध इसी प्रयोजन के लिए समर्पित करता था कि समय की विकृतियों पर उगते ही कुठाराघात किया जाय और सर्वतोमुखी उत्कर्ष की सत्प्रवृत्तियों को अभिसिंचित करने में अनवरत रूप से संलग्न रहा जाय। वानप्रस्थ जीवन का उद्देश्य यही था कि समाज को गिराने, मिटाने वाली विकृतियों को खुली छूट न दी जाय वरन् उन्हें निरस्त करने के लिए एक दल निरन्तर क्रियाशील बना रहे। टूट-फूट की मरम्मत करने वालों की व्यवस्था के बिना विशाल इमारतें यों देर तक सुरक्षित नहीं रह सकतीं इसी प्रकार उत्कृष्ट लोक सेवकों की आवश्यकता को झुठलाया नहीं जा सकता। प्राचीनकाल में उस आवश्यकता की पूर्ति वानप्रस्थ आश्रम करता था।
हमें वानप्रस्थ आश्रम को पुनर्जीवित करने में पूरी शक्ति लगानी चाहिए ताकि युग की अवाँछनीय स्थिति को बदलने में समर्थ कर्मठ एवं सुयोग्य व्यक्तियों की कमी न रहे। यह किया जा सका तो युग बदला जा सकेगा और प्रस्तुत अन्धकार को चीरकर रख देने वाला प्रकाश निश्चित रूप से उत्पन्न किया जा सकेगा।