Magazine - Year 1975 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
आन्तरिक दरिद्रता से पीछा छुड़ायें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
मनुष्य दीन-हीन बना रहने के लिए उत्पन्न नहीं हुआ है। वह दिव्य है और उसे दिव्यता की ओर बढ़ना चाहिए। महानता उसका लक्ष्य है और महान विभूतियाँ उसके अन्दर विद्यमान है। भगवान ने दिव्य सम्पदाओं से विभूषित करके उसे इस पृथ्वी पर भेजा है। उसके पास दिव्य शक्तियों की बहुमूल्य सम्पदा है। यदि वह चाहे तो उसका उपयोग करके क्षुद्र से महान लघु से विराट बन सकता है; किन्तु फिर भी मनुष्य दुखी एवं दरिद्र बना रहता है यह स्थिति मानवीय गरिमा के विरुद्ध है।
लाचारी दरिद्रता एवं मूर्खता की दशा में पड़े रहना आत्म गौरव के विरुद्ध है। आत्म गौरव बनाये रखने के लिए व्यक्ति को सम्मान पूर्ण स्थिति में रहना चाहिए जिसमें उसका क्रमिक विकास सम्भव हो। जब व्यक्ति आन्तरिक दरिद्रता के शिकंजे से निकल कर आत्मिक समृद्धि की ओर बढ़ता है तब उसे एसो आभास होता है कि प्रगति के विशाल प्रवाह की ओर अग्रसर हो रहा है। उसका मार्ग निर्विघ्न होता है। इन परिस्थितियों में वह सुख-सन्तोष अनुभव करता है। ऐसे व्यक्ति ही अपनी विकासशील आन्तरिक अवस्था के सहारे कुछ कर दिखाते हैं।
जब व्यक्ति संकीर्णता छोड़कर व्यापक दृष्टि अपनाता है तो उसे पता चलता है कि जिस वस्तु को वह खोज रहा था वह तो स्वयं ही उसके पास है। हम अपने मन से स्वार्थ पूर्ण एवं कुत्सित विचारों को निकाल दें तो हमें परमात्मा के निकट अपने को पायेंगे। कुविचार और कुकृत्य ही हमारा रास्ता रोके हुए हैं। दुष्कर्म करने से ही मनुष्य की आँखों में अन्धकार का पर्दा पड़ जाता है जिसके कारण हम परमात्मा और उसकी श्रेष्ठता के दर्शन नहीं कर पाते हैं।
मन में दरिद्रता के भावों को स्थान देकर हम पवित्रता अथवा समृद्धि की आकाँक्षा करते हैं यह हमारी भूल है। हम यह क्यों नहीं सोचते कि कुत्सित विचारों के फेर में अभीष्ट वस्तु हमें मिल नहीं सकती है? ठीक वैसे ही जैसे प्रयत्न करें किसी वस्तु के लिए और आज लगायें दूसरी की तो यह कैसे सम्भव है। ध्यान देने योग्य बात है कि हम समृद्धि की चाहे कितनी ही तीव्र आकाँक्षा क्यों न करें दारिद्रय और दुर्दैव के विचार हमें निरुत्साहित ही करते रहेंगे?
परमात्मा ने मनुष्य के लिए जो ढाँचा बनाया है क्या उसमें कही दरिद्रता, गरीबी एवं न्यूनता के लिए कोई स्थान है? नहीं है। परमात्मा का भण्डार समृद्धि की विपुल सामग्री से भर हुआ हैं; पर आश्चर्य की बात है कि हम समृद्धि के भवन में रहते हुए भी दीन और दरिद्र हैं। यह हमारे विचारों की क्षुद्रता एवं संकीर्णता का ही कारण है। दरिद्र वह व्यक्ति नहीं है जिसके पास पैसा नहीं है, सुविधाएं नहीं है वरन् दरिद्र वह है- जिसके विचार दरिद्र है, जिसके अन्तःकरण में कुविचारों का डेरा है। व्यक्ति को अपने दिव्य विचारों की अलौकिक ज्योति से दरिद्रता, कंगाली, संकीर्णता आदि अन्धकार युक्त विचारों को छिन्न भिन्न कर देना चाहिए तथा उस दिव्य ज्योति में अपने अंदर छुपे हुए पारस रूपी गुणों एवं विभूतियों के भण्डार को जानने एवं समझने का प्रयास करना चाहिए जिन्हें ढूंढ़ता हुआ वह बाहर जगत में भटकता रहता है।
महान व्यक्तियोँ ने बाहरी सफलताओं से महानता प्राप्त नहीं की है वरन् वह तो उनकी आन्तरिक सफलता का ही रहस्य था। जिसके सहारे वह ऊँचे उठे और उठ कर दुनिया को प्रकाशित किया।
प्रायः व्यक्ति समृद्धि एवं सौभाग्य का अर्थ इच्छित वस्तु की प्राप्ति से लगा लेते हैं पर वस्तुतः यह समृद्धि और सौभाग्य आत्मिक ज्ञान की पूँजी से प्राप्त होता है।