Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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हम उत्कृष्टता की ओर अनवरत गति से अग्रसर हों
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मानव शरीर भगवान की सर्वोत्कृष्ट रचना है। अनय प्राणियों की तुलना में भगवान ने उसे ऐसे अनेक साधन एवं अनुदान दिये हैं जो दूसरे प्राणियों को प्रयत्न करके भी नहीं प्राप्त होते हैं, भोजन को निश्चिन्तता, आवास की सुविधा, वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग, रक्षा सामग्री, मनोरंजन के साधन, न्याय, शासन तंत्र, सेना आदि ऐसी अनेक सुविधाएँ मनुष्यों को प्राप्त हैं जिनका कि लाख और करोड़वाँ भाग भी अन्य जीवों के पास नहीं हैं। ‘मनुष्य प्रकृति का मुकुट मणि है’ यह कथन अक्षरशः सत्य है। अन्य योनियों में भ्रमण करने वाले जीवों को अपना सम्पूर्ण जीवन भोजन की तलाश तथा आये क्षण शत्रुओं से बचाव करते रहते ही व्यतीत करना पड़ता है। जैसे कि देवलोक की काल्पनिक सुख सुविधाओं के लिए हमारा मन लालायित बना रहता है उसी प्रकार दूसरे जीव भी हमारी जैसी सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए लालायित हों तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। कुत्ता, बिल्ली, चूहा, कीड़े, पतिंगे आदि की जीवन सम्बन्धी असुविधाओं को देखते हुए हम अपने सम्बन्ध में विचार करें तो हमें मानना पड़ेगा कि मानव जीवन जैसा जीवन कोई दूसरा नहीं है।
मानव शरीर मिलने के बाद परमात्मा से हमें जो दूसरा महान् उपहार प्राप्त हुआ है, वह है “मानवी अन्तःकरण”। जिसे यह मिल गया वह इस सृष्टि के कण-कण में स्वर्गीय आनन्द का उपभोग करता हुआ अपने को धन्य समझता है। देवता, ऋषि, मुनि तथा अवतार-जिन्हें हम ईश्वर के ही प्रतिरूप मानते हैं-शरीर से तो हम जैसे ही थे परन्तु उनमें ‘अन्तः करण का विकास’ सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक था-उन्होंने जीवन का सदुपयोग करना सीखा था। अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए-लोक-कल्याण के लिए उन्होंने जीवन जिया था, चन्दन के वृक्ष की तरह उनका सम्पूर्ण जीवन स्वयं तो सुगन्धित रहा वे ही अपने चारों ओर का वातावरण भी सुगन्धित करते रहे तथा उन्होंने काटने वाले की कुल्हाड़ी को भी सुगन्धित बना दिया। वे तो सच्चे पारसमणि थे जिनके संसर्ग में आने वाला गला-सड़ा लोहा भी स्वर्ण बन गया और इसीलिए हमने उन्हें देवता की संज्ञा दी। वे महापुरुष बने और अवतारों की तरह उनकी पूजा हुई वे आज भी हमारे सम्मान और श्रद्धा के पात्र बने हुए हैं।
जिसने इस मानवीय अन्तःकरण का सदुपयोग करना नहीं सीखा वह नर-पशु कहलाया। खाने-पीने, बच्चा पैदा करने और सोने की मस्ती में बहुमूल्य जीवन के कौड़ियों के मोल बहा देने वाले मनुष्यों को नर पशु न कहा जाये तो क्या कहा कहें? ईश्वर की महती कृपा के फलस्वरूप प्राप्त होने वाला यह जीवन यदि इसी प्रकार निरर्थक, व्यर्थ की बातों में बरबाद होता रहा तो यह हमारा बहुत बड़ा दुर्भाग्य कहा जायेगा। मानवता का प्रकाश यदि अन्तःकरण में नहीं आ सका तो शारीरिक सुख के लिए संग्रहित सारे साधन एवं सामान बिजली कल-कारखाने मोटर, रेल, वायुयान और सुरक्षा के लिए करोड़ों रुपये बरबाद कर बनाये गये अणुबम, उद्जन बम कभी कुछ निरर्थक हैं। ये सभी मानवता के रक्षक नहीं, वरन् भक्षक हैं।
मानवता के अनुरूप ही यदि हमारे विचार बन जावें-हमारी प्रवृत्ति सतोगुणी बन जाये तो निश्चय ही जीवन सार्थक हो गया। सद्भावनाएँ, उदारता, सज्जनता, मधुरता, नम्रता एवं ममता आदि वृत्तियों का विकास जब हमारे अन्दर होता है, तब हम देवत्व की कोटि में पहुँच जाते हैं ओर जब स्वार्थपरता, संकीर्णता, आलस्य, काम-क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि के चक्कर में फंसकर अपने कर्त्तव्यों को भूल जाते हैं तो हमारी स्थिति नर-पिशाच, असुर और नीच पशु जैसी हो जाती है।
पशुता का प्रधान लक्षण है- तमोगुणी वृत्ति का विकास-सदैव अपनी ही बात सोचना। जब हम अनुचित उचित का ध्यान न करते हुए धर्म और अधर्म का विचार किये बिन केवल अपने लाभ की ही बात सोचते हैं तो हमें उस समय ‘असुर’ की संज्ञा मिल जाती है। इस प्रकार का ‘असुरत्व’ आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में फैला हुआ है।
मानवता का दूसरा लक्षण है कि दूसरों की सुख सुविधाओं का ध्यान रखते हुए अपने सुख एवं उन्नति की व्यवस्था करना। हम आगे तो बढ़ें पर ध्यान रहे कि हमारी दौड़ से दूसरे का पतन तो नहीं हो रहा है। जो अपने सूख को तिलांजलि देकर दूसरों की सूख-सुविधा के लिए प्रयत्न करते हैं, उन्हें देवता कहा जाता है। देवता अचीत् देने वाला। जिनने अपनी शक्तियों को-शरीर, धन, बल, बुद्धि विवेक आदि को लोक कल्याण के लिए विसर्जन करना सीख लिया निश्चय ही वे देवता है। जिस घर, गाँव या देश में ऐसे व्यक्तियों का निवास हो जाता है निश्चय ही वह घर, गाँव या देश स्वर्ग बन जाता है। वहाँ सदैव सुख और समृद्धि की वर्षा होती रहती है। दुःख दारिद्र पास नहीं भटकते हैं।
मानव जीवन की एक और बड़ी विशेषता उसकी चेतना शक्ति का विकास है। यदि हमारी चेतना शक्ति अविकसित एवं मुरझाई हुई रही तो फिर जीवन की सार्थकता कहाँ रही? शरीर की सुविधा के लिए तो हमने मकान, वस्त्र, वाहन, नौकर तथा अनेक प्रकार के उपकरण जीवन भर जुटाये परन्तु उसके स्वामी आत्मा की क्षुधा शान्त करने के लिए कुछ नहीं किया। हम इन्द्रियों के स्वामी हैं, दास नहीं परन्तु व्यवहार में इन्द्रियाँ स्वामी बनकर रहीं और हम उनके सेवक। ‘रथ’ की उपेक्षा ही बनी रही तो यह कहाँ की बुद्धिमानी रही?
आत्मा की भूख तो सद्गुणों के विकास से तृप्ति होती है सद्गुणों की सच्ची सम्पत्ति पाकर के ही आत्मा अपने को समुन्नत समझती है। सद्गुणों से शून्य हृदय तो श्मशान की तरह डरावना लगता है और उसमें आनन्द और उल्लास के बीज तो बोये ही नहीं जा सकते हैं।
अन्तःकरण में जब उच्च विचार उत्पन्न होंगे तो हमारे कार्य भी उत्कृष्ट होंगे। उत्कृष्ट विचार मस्तिष्क रूपी गुफा में बन्द कर नहीं रखे जा सकते हैं वे तो सूर्य की किरणों के प्रकाश की तरह सारे अन्तरिक्ष एवं वायुमण्डल को आलोकित कर देंगे। विचारों की अभिव्यक्ति कर्म का रूप धारण करती है। कर्म की उत्कृष्टता या निकृष्टता विचारों की ही प्रतिक्रिया होती है। सत्कर्मों की प्रेरणा सद्भावनाओं से ही प्राप्त होती है अतः जीवन सुखमय एवं सुन्दर बनाने के लिए विचार ओर कर्म में एकरूपता होनी चाहिए। कर्मों को देखकर ही किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का पता आसानी से लगाया जा सकता है। सत्कर्मों की प्रेरणा सद्भावनाओं से प्राप्त होती है तथा कुकर्म दुर्भावनाओं के बीच जन्म लेते हैं। यश-अपयश, पाप-पुण्य, अपकार-उपकार दण्ड, पुरस्कार कर्मों के फलस्वरूप ही प्राप्त हुआ करते हैं। भावनाओं की उत्कृष्टता तथा कर्मों की सजीवता ये दोनों मिलकर ही जीवन को सार्थक बनाते हैं।
क्रियमाण कर्म ही तो संस्कारों के जनक हैं और संस्कारों के आधार पर ही तो स्वर्ग, नरक एवं पुनर्जन्म की स्थिति का निर्माण होता है। हमारी भाग्य-लिपि तो पूर्व जन्म में किये गये कर्मों की अमिट निशानी है, जन्म के साथ आने वाले संस्कार हमारे पूर्व जन्म में किये गये कर्म ही तो है। अगले जीवन की तैयारी भी हमें अभी से करना प्रारम्भ कर देना चाहिए। जिन्हें नारकीय यातनाओं, राग-द्वेष, ईर्ष्या, कलह, मार-पीट, लूट-खसोट, रक्तपात आदि के भोगने में किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव न होता तो उन्हें कुकर्म करने की खुली छूट है तथा इसके विपरीत जिन्हें स्वर्गीय सुख-शान्ति प्राप्ति करने की उत्कृष्ट आकाँक्षा हो उनके लिए सत्कर्मों को जीवन में उतारना चाहिए। सद्भावनाओं एवं सत्कर्मों के समन्वय से मिलने वाला आनन्द अवर्णनीय होता है और उसकी यदि उपलब्धि हो जाये तो समझना चाहिए कि हमारा जीवन सार्थक हो गया।