Magazine - Year 1977 - Version 2
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Language: HINDI
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जीवन अमर है वह मौत से हारा नहीं
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जीवन अपने आपमें इतना समर्थ है कि मृत्यु को चुनौती देते हुए वह अनादिकाल से लेकर अद्यावधि अपना अस्तित्व बनायें हुए है और सर्वभक्षी विभीषिकाओं से जूझते हुए, वह यही उद्घोष कर रहा है कि अनन्त काल तक उसी प्रकार बना रहेगा जैसा कि अत्र है।
परिस्थितियाँ आती है और चली जाती है। विशेषताएँ आस दिखाती है और धमकी देता है कि वे पलट कर या कुचल कर रख देगी। इतने पर भी जीवन-जीवन ही है। वह अपनी गरिमा सिद्ध करते हुए सदा से यही कहता रहा है कि मरण उसका स्वभाव नहीं। कपड़े बदलने से शरीर तथागत बना रहता है परिस्थितियों की विषमता मात्र कलेवर में उलट-पुलट कर सकती है। उससे जीवन की मूल सत्ता पर कोई आँच नहीं आती। मृत्यु और जीवन के युद्ध का परिणाम इतना ही निकलता रहा है कि मौत ने कलेवर की कुछ धज्जियाँ उखाड़ली जीवन खीजा तो, पर नंगा होने का अवसर नहीं आया। उसने पुराना छिनने के साथ ही नया आवरण ओढ़ लिया।
यह विचार सही नहीं है कि सुविधाजनक परिस्थितियों में निर्वाह होता है। असुविधाएँ और प्रतिकूलताएँ आघात कितना ही बड़ा क्यों न लगा दे, पर वह नष्ट करने में कभी सक्षम नहीं हो सकता, मौत जीवन को हरा नहीं सकती। मरण के बाद जन्म का सत्य सुनिश्चित है। जन्मने के उपरान्त मरना पड़ता है, यह तो परिवर्तन चक्र का घुमाव अथवा मोड़ मात्र है।
जीवन मात्र मनुष्य आकृति में ही नहीं, अन्य छोटे-बड़े प्राण-धारियों के रूप में भी विद्यमान् है और उसकी सत्ता उन अदृश्य सूक्ष्म जीवियों में भी विद्यमान् है, जो नेत्रों अथवा अन्य इन्द्रियों से पहचाने नहीं जाते, फिर भी सामर्थ्य और सक्रियता की दृष्टि से इतने बलिष्ठ है कि उनकी तुलना अपने कलेवर के अनुरूप सिंह और हाथी भी नहीं कर सकते हैं। प्रतिकूलताओं से जूझते हुए अपना अस्तित्व हर स्थिति में बनाये रहने की उनमें अद्भुत शक्ति है जबकि बड़े आकार वाले प्राणी तनिक-सी दुर्घटनाओं के कुचक्र में फँस कर मर जाते हैं।
जीवन न केवल अपनी धरती पर ही है, वरन् वह ब्रह्माण्ड के असंख्य ग्रह-पिण्डों पर विभिन्न आकृति ओर प्रकृति अपनाये हुए विद्यमान् है। स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप उसने अपने निर्वाह का संतुलन बिठा लिया है।
हार्वर्ड विश्वविद्यालय में जीव विज्ञान के प्राध्यापक डॉ. जार्ज वाल्ड् के अनुसार यद्यपि मंगल पहला ग्रह है जहाँ जीवन की खोज पृथ्वी के वैज्ञानिक कर रहे है। तथापि ऐसे एक अरब ग्रह है, जहाँ जीवन होने की सम्भावना है।
हमारी आकाश गंगा में एक अरब ग्रह है। इससे परे एक अरब अन्य आकाशगंगा है जिसमें से प्रत्येक पूरे एक अरब ग्रह है। वैज्ञानिकों का वर्तमान अनुमान यह है कि इन सभी ग्रहों में से एक से पाँच प्रतिशत तक ग्रहों में जीवन अवश्य विद्यमान् है। क्योंकि इतने प्रतिशत तक ग्रह हमारी पृथ्वी के समान है।
पृथ्वी से पृथक् ग्रहों में जीवन की खोज मनुष्य द्वारा जारी है। अमेरिका के मेरीलैंड विश्वविद्यालय के रासायनिक विकास संस्थान के निर्देशक डॉ. सिरित पोन्नेमपेरुमा ने पिछले दिनों भारतीय विज्ञान काँग्रेस में बताया था कि ब्रह्माण्ड से सन्देश प्राप्त करने का प्रयास निरन्तर चल रहा है। अनेक वैज्ञानिकों की मान्यता है कि सिर्फ हमारे ही नभ-मण्डल में 1 लाख सभ्यताएँ अस्तित्व में है। इन उन्नत सभ्यताओं का पता लगाने के लिए भारी संख्या में विशाल टेलिस्कोप लगाए गये है।
ग्रीन बैंक, वेस्ट वर्जीनिया में ‘ओस्मा’ नामक योजना के अन्तर्गत सुदूर नक्षत्र लोकों की सभ्यताओं से रेडियो तरंगों द्वारा संबंध स्थापित करने का कार्य क्रम चलाया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि चार बार इस संपर्क का उत्तर प्राप्त हुआ है। यद्यपि अभी तक उसका अर्थ समझा नहीं जा सकता है। इस प्रयास से यह आशा बँधी है कि अन्य ग्रह-नक्षत्रों के प्राणी निकट भविष्य में न केवल पृथ्वी के मनुष्यों से वरन् अन्य लोकों के निवासी जीवधारियों के साथ संपर्क बनाने और मेल-जोल बढ़ाने में समर्थ हो सकेंगे।
अनुकूलताओं में ही जीवन रह सकता है, यह बात तो कही जाती है। पर वह अनुकूलता क्या हो सकती है। इसकी परिभाषा कर सकना सम्भव नहीं हो पा रहा। अत्यधिक गर्मी से अथवा अत्यधिक ठण्ड से जीवन का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है, यह कहा जाता है, पर अनुभव ने यह बताया है कि बात ऐसी नहीं है। गर्मी और ठण्डक की अतिशय सीमा में भी जीवन की सत्ता बनीं रह सकती है।
वैज्ञानिक इस सम्भावना को देखकर अन्य ग्रहों पर जीवन हो सकने की आशा से भर उठे है, कि जीवन अत्यन्त विषम परिस्थितियों में भी पनप सकता है। खौलते हुए पानी से भी बहुत बधिक तापमान पर और जमी हुई बर्फ से बहुत अधिक ठण्डक में, जीवन-क्रम सहज सम्भव है।
33 वर्ष की आयु में नोबुल-पुरस्कार से सम्मानित जीव वैज्ञानिक डॉ. जोशुओ लेडरवर्ग ने कहा है कि अन्य ग्रहों में भी जीवन की विद्यमानता की खोज के पूर्व हमें यह ज्ञान लेने का प्रयास करना आवश्यक है कि पृथ्वी पर जिस प्रकार जीवन का विकास हुआ है, उससे भिन्न भी कोई क्रम जीवन-विकास का सम्भव है या नहीं? यदि सम्भव है तो वह कौन-सा क्रम है।
वनस्पतियाँ कहाँ उग सकती है, वहाँ नहीं , अब इस प्रश्न पर कोई चिन्ह नहीं लगा सकता है। उत्तरी ध्रुव जैसे शून्य तापमान से भी नीचे के क्षेत्र में शाक-भाजी उगाने में सफलता प्राप्त कर ली गई है तथा खाद्य पदार्थों का उत्पादन ऐसी परिस्थितियों में भी सम्भव हुआ है जहाँ के सम्बन्ध में अब तक जीवन शास्त्रकार यही कहते रहे है कि उनमें उत्पादन नहीं हो सकता।
यूनियन कार्बाइड रिसर्च इंस्टीट्यूट , न्यूयार्क में वैज्ञानिकों में मण्डल ग्रह जैसा वातावरण कृत्रिम रूप से उत्पन्न करने का प्रयोग किया। उस वातावरण में 98 प्रतिशत आर्गन गैस और 2 प्रतिशत आक्सीजन रखी गयी। तापमान शून्य से दस डिग्री सेन्टीग्रेड नीचे रखा गया। इस कृत्रिम वातावरण में कुकरबिटेसी कुल के खीरे, ककड़ी जैसे तीस प्रकार के पौधों के बीज सफलतापूर्वक उगायें गये। यद्यपि आक्सीजन नाम मात्र को थी, तो भी ये बीज यहाँ पनपे। एक अन्य प्रयोग में काँच के एक वर्तन में मिट्टी के कई नमूने लेकर उनमें कुछ जीवाणु रखे गये। बर्तन के भीतर के वातावरण में कार्बन-डाई आक्साइड, नाइट्रोजन और आर्गन गैस रखी गयी, आक्सीजन नहीं रखी गयी। पानी अत्यन्त मात्रा में रखा गया। इन बर्तनों को 16 घण्टे तक शून्य से 25 डिग्री सेन्टीग्रेड नीचे के तापमान पर रखा जाय। फिर आठ घण्टे तक शून्य से 25 डिग्री ऊपर रखा गया। महीनों बाद भिन्न भिन्न अवधियों में इन नमूनों की जाँच की गयी। पाया गया कि कुछ किस्म के जीवाणु इस स्थिति में भी जा लेते हैं। और कुछ तो प्रजनन द्वारा अपनी आबादी भी बढ़ा लेते हैं। शैवाल और फफूँदी के मिले-जुले रूप वाली लाइकेन नामक वनस्पति भी इस वातावरण में खूब पनपी।
एक अन्य प्रयोग में एरोबैक्टर, एरोजीन्स तथा कुछ अन्य जीवाणु कार्बन-डाई-आक्साइड नाइट्रोजन तथा थोड़ा-सा पोषक माध्यम डाल कर सील बन्द कर दिये गये। प्रतिदिन साढ़े उन्नीस घण्टे तक इनको शून्य से 75 डिग्री नीचे के तापमान पर रखा जाता, फिर साढ़े चार घण्टे तक सामान्य तापमान पर। कई दिनों तक सही क्रम चला। प्रयोग के बाद इन सूक्ष्म-जीवियों की संख्या पूर्वापेक्षा चार हजार गुनी हो गयी।
पानी को जीवन का आधार माना जाता है, पर जब ऐसी संभावनाएँ सामने आई है कि पानी के स्थान पर दूसरे विकल्प भी हो सकते हैं, जिनके सहारे जीवन निर्वाह सम्भव हो सके।
वैज्ञानिकों का एक अनुमान यह है कि मंगल एवं अन्य ग्रहों पर पानी का स्थान अमोनिया ले सकता है। वैज्ञानिक एजेंसी के अनुसार अमोनिया में जल से अधिक तरलता होती है। और वह अधिक अच्छा विलायक है। जलीय रसायन (एक्वाकेमिस्ट्री) की तरह अमोनिया रसायन अमोना-केमिस्ट्री के अंतर्गत जल के तुल्य समस्त अभिक्रियाएँ सम्पन्न होती देखी गई है। जल और अमोनिया में बहुत से गुण समानान्तर पाए जाते हैं। प्रोफेसर बर्नाल, एक्सेल, इत्यादि का मत है कि सम्भव है, अन्य ग्रहों पर जीवन का आधार अमोनिया हो। क्योंकि वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी जब अपनी शैशवावस्था में थी। तब इसके वातावरण में हाइड्रोजन, अमोनिया और जल एवं अमोनिया के गुण-साम्य के आधार पर वैज्ञानिक इसी सम्भावना पर विचार कर रहे है कि मंगल आदि के मानव-स्नान-पान आदि के लिए जल के स्थान पर अमोनिया का ही प्रयोग करते होगे।
इस तथ्यों पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि जीवन निश्चित रूप से अमर है। उस अविनाशी को न तो कोई प्रतिकूलता नष्ट कर सकती है और न मृत्यु के लिए ही उनकी सत्ता मिटा सकना सम्भव है।