Magazine - Year 1977 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्म परिष्कार की साधना दूरदर्शी बुद्धिमत्ता
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परिष्कार की प्रवृत्ति सामाजिक क्षेत्र में सभ्यता और आन्तरिक क्षेत्र में संस्कृति कहलाती है। शिल्पी, कलाकार, चिकित्सक, शिक्षक, विज्ञानी, माली आदि वर्गों के लोग अपने श्रम और मनोयोग का उपयोग सृजनात्मक प्रयोजनों के लिए करते हैं। अनगढ़ को सुगढ़ बनाते हैं । यह धरती जिस पर हम रहते हैं, अपने जन्म काल में ऐसी न थी। इसे प्रयत्नपूर्वक वह रूप दिया गया है, जिसमें कि आजकल रह रहे हैं। प्राणियों के जन्म और जीवन की व्यवस्था बन जाने के समय भी यह धरती खार-खण्डों से, झाड़-झंखाड़ों से, जलाशयों, दलदलों और दुर्लघ्य अवरोधों से पटी पड़ी थी। उस पर किसी तरह वन्य जीवन ही जिया जा सकता था। मनुष्य ने अपने संकल्प, श्रम एवं कौशल के आधार पर उसे समतल किया, रास्ते बनाये, कृषि , पशु-पालन औजार, अग्नि, वाहन आदि के उपाय ढूँढ़े और क्रमशः सामाजिकता, शासन, शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय, सुरक्षा एवं सुविधा-साधनों के आधार खड़े कर दिये। मनुष्य की सृष्टि का मुकुट-मणि होने का लाभ इसी मार्ग पर चलते हुए मिल सका है। यह परिष्कार की प्रवृत्ति ही मानवी गरिमा और प्रगति का सार तत्त्व कही जा सकती है। पशुओं को प्रशिक्षित करके उन्हें अनुपयोगी से उपयोगी बनाया जाता है। सिंह, रीछ, सर्प जैसे हिंसक प्राणी भी सधा लिए जाने पर सरकस में आश्चर्यजनक करतब दिखाते हैं। वे दर्शकों के लिए मनोरंजन का और मालिकों के लिए आजीविका का साधन बनते हैं जब कि वे मूलतः सर्वथा हानिकारक ही होते हैं। विषों को रसायन बना लेने की कला ने आरोग्य क्षेत्र में नये अध्याय जोड़े हैं। होम्योपैथी, आयुर्वेद, एलोपैथी आदि चिकित्सा प्रणालियों में विषों से अमृत जैसे लाभ उठाने का प्रयत्न किया गया हैं इसे संस्कार साध नहीं कह सकते हैं।
मानव-सत्ता इस सृष्टि की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है। उसे ईश्वर के बाद दूसरा नम्बर दिया जा सकता है। उसका परिष्कार कर सकना इतना बड़ा प्रयोग है जिसे भौतिक प्रगति के लिए खड़े किये गये आधारों से कम नहीं अधिक ही महत्त्व दिया जा सकता है। प्रकृति जड़ है। पदार्थों में अपनी-अपनी विशेषताएँ तो हैं, पर वे निर्जीव होने के कारण यथास्थिति ही पड़े रह सकते हैं। उनकी सामर्थ्य एवं उपयोगिता को समुन्नत बनाना मानवी प्रयत्नों से ही सम्भव होता है। अस्तु भौतिक साधनों की प्रगति का श्रेय भी अन्ततः मानवी सत्ता को ही जाता है। सुख-सुविधा की साध सामग्री के अतिरिक्त-पारस्परिक सम्बन्धों में सहयोग एवं सद्भाव का होना भी प्रगति तथा सन्तोष का बहुत बड़ा कारण है। यह तभी कार्य मनुष्य उपलब्ध पदार्थों का अपव्यय और दुरुपयोग करके लाभ के स्थान पर हानि उठाते हैं। सम्पर्क क्षेत्र में मनुष्यों में द्वेष दुर्भाव बढ़ाते और कलह के बीज बोते हैं। ऐसी दशा में दुःख-दारिद्रय और शोक-सन्ताप ही गले बँध सकता है। मनुष्य की निजी कुसंस्कारिता उसके लिए पग-पग पर अवरोध खड़े करती है- असहयोग और आक्रोश बटोरती है, विकृत चिन्तन के कारण शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य भी चौपट हो जाता है। ऐसे लोग पिछड़े, असफल, असंतुष्ट और उद्विग्न ही देखे जाते हैं। मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थितियाँ बनती हैं, इस तथ्य को अमान्य नहीं ठहराया जा सकता। इसके विपरीत जो आत्मसत्ता को जितना परिष्कृत कर लेते हैं वे अपने सुधरे हुए दृष्टिकोण तथा व्यवस्थित क्रिया-कलाप के आधार पर प्रखरता का परिचय देते हैं। सफलताएँ उनकी ओर खिंचती चली आती हैं। सहयोग और सम्मान उन पर बरसता है। स्तर की ऊँचाई के अनुरूप सन्तोष और उल्लास से उनका अंतःक्षेत्र महकता रहता है जिसकी सुगन्ध से वातावरण में उमंगें भरती चली जाती हैं।
बाह्य जगत से उपयुक्त सम्वेदनाएँ उपलब्ध कर सकना अन्तर्जगत् के चुम्बकत्व पर निर्भर है। पदार्थों की उपलब्धि ही समृद्धि नहीं है। इसके लिए सदुपयोग का कौशल भी चाहिए। सम्पर्क क्षेत्र में वंश का रिश्ते का और स्वार्थों के आदान-प्रदान का उतना महत्त्व नहीं जितना सद्-व्यवहार का। बाह्य जीवन में कितनी ही अनुकूलता क्यों न हो, यदि अन्तःजीवन विकृत स्तर का होगा तो दुःखद परिस्थितियों की काली घटाएँ ही सिर पर घुमड़ती रहेंगी। सुखी जीवन के लिए साधनों की आवश्यकता समझी जाती है और सहयोग की अपेक्षा की जाती है, पर यह भुला दिया जाता है कि इन दोनों ही आकांक्षाओं की पूर्ति आन्तरिक उत्कृष्टता के बिना सम्भव नहीं। भीतर ओछापन भरा हो तो समुन्नत परिस्थितियाँ मिल न सकेंगी। यदि संयोगवश अथवा दुष्ट प्रयासों से मिल भी जाय तो भीतर का पिछड़ापन उनका सदुपयोग न कर सकेगा। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बनता है। सुसम्पन्न लोग सुखी दीखते भर हैं, पर वास्तविक समृद्धि तो सुसंस्कृत लोगों के भीतर ही देखी जा सकती है। हँसता-हँसता और हलका-फुलका जीवन जी सकना केवल उन्हीं लिए सम्भव होता है। आनन्द भोगते और आनन्द बाँटते केवल वहीं पाये जायेंगे जिन्होंने अपनी अन्तः स्थिति को परिष्कृत बनाने में सफलता प्राप्त की है।
भौतिक विज्ञान का कार्य, बाह्य जगत में बिखरी पड़ी पदार्थ सम्पदा को तथा अनुकूलता को बढ़ाना है। इस प्रयास की उपयोगिता सहज ही समझी जा सकती हैं। उसे समुचित श्रेय भी मिला है। प्रगति का कौशल प्राप्त करने की इच्छा भी सभी को रहती है और जिससे जितना बनता है उतना प्रयास भी करता है। यह उचित है और बुद्धिमत्ता पूर्ण भी। यहाँ एक ही कमी अखरती है कि आत्म-चेतना का महत्त्व क्यों नहीं समझा जाता? आन्तरिक उत्कृष्टता के कारण उत्पन्न होने वाले लाभों पर विचार क्यों नहीं किया जाता ? आत्म-परिष्कार की उपेक्षा क्यों होती है? प्रगति की बात बाह्य जीवन एवं बाह्य जगत तक ही क्यों सीमित रखी जा रही हैं ? यह क्यों नहीं विचारा जाता कि जड़ से चेतन महत्त्वपूर्ण है। मनःस्थिति ही परिस्थितियों का निर्माण करती हैं । प्रगति के आधार बाहर तो दीखते भर है वस्तुतः उसकी जड़े व्यक्तित्व के अन्तः क्षेत्र से जुड़ी होती है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण और भविष्य के निर्धारण करने के लिए स्वयं ही उत्तरदायी है। यह मोटे तथ्य भी यदि समझे न जा सकें और आत्म-निर्माण के प्रति उपेक्षा-अन्यमनस्कता छाई रहे तो इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।
भौतिक विज्ञान ने आश्चर्यजनक प्रगति की है। किन्तु आत्म-विज्ञान बेतरह पिछड़ गया है। इससे सन्तुलन बना नहीं बिगड़ा है। वैभव के साथ-साथ उत्तरदायी दृष्टिकोण भी विकसित होना चाहिए। अन्यथा बन्दर के हाथ तलवार पड़ने पर अनर्थ ही हो सकता है।
आत्म-विज्ञान का महत्त्व प्राचीन काल में समझा गया था। व्यक्ति चेतना में उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्शवादी कर्तृत्व की सघन स्थापना की गई थी। उत्कृष्ट चिन्तन की पृष्ठभूमि बनाने वाले तत्त्व ज्ञान का नाम है-अध्यात्म और आदर्श कर्तृत्व में निष्ठा उत्पन्न करने की प्रक्रिया धर्म कहलाती है। किसी समय अध्यात्म की-श्रद्धा और धर्म की निष्ठा का गहरा आरोपण जन-मानस में करने के ऋषि प्रयास सफल हुए थे और अपने देश के नागरिक देवोपम जीवन जीने और अपनी सम्पर्क भूमि हो ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ बनाने में समर्थ हुए थे। आज एकांगी प्रगति की ललक गगनचुम्बी हो चली है, पदार्थ ही सब कुछ बन गया है। आदर्शवादी आस्थाओं के आधार पर चेतनात्मक परिष्कार की उपेक्षा की जा रही है । इस असन्तुलन से कुरूपता बढ़ रही है और समस्याएँ उलझ रहीं है। इस विषमता का अन्त होना चाहिए। भौतिक विज्ञान की ही तरह आत्म-विज्ञान को भी महत्त्व मिलना चाहिए।
साधना प्रकृति की जा रही है सो ठीक है, पर चेतन पुरुष को भी परिष्कृत प्रगतिशील बनाने की उपयोगिता पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके बिना उज्ज्वल भविष्य का निर्माण हो नहीं सकेगा। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है।