Magazine - Year 1977 - Version 2
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Language: HINDI
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मानवी सत्ता के दो ध्रुव प्रदेश मूलाधार सहस्रार
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ब्रह्माण्ड की व्यवस्था के अनुरूप असंख्यों सौर मंडल अपने-अपने काम करते हैं। सौर मण्डल की आचार अपने-अपने काम करते हैं। सौर मण्डल की आचार संहिता का पालन अपनी पृथ्वी करती है। भूलोक के क्रिया-कलाप प्रतीक रूप से जीव सत्ता को प्रभावित एवं संचालित करते हैं। मानवी काया को एक प्रकार से भूलोक माना जा सकता है। उसमें दो महत्त्वपूर्ण केन्द्रों का-ध्रुव प्रदेशों का अस्तित्व समान रूप से है। मस्तिष्क के नाभि न्यूक्लियस-सहस्रार चक्र को सूर्य का प्रतीक कह सकते हैं और पृथ्वी जिस सप सत्ता के आधार पर खड़ी है उसे मूलाधार कह सकते हैं। इन दोनों अति महत्त्वपूर्ण केन्द्रों की तुलना पृथ्वी के दो ध्रुव प्रदेशों से भी की जा सकती है। दोनों के अंतर्ग्रही सम्बन्ध हैं और परस्पर पूरक होकर ही रह हे है। ठीक इसी प्रकार मानवी मस्तिष्क ब्रह्म सूर्य से भी सम्बन्ध बनाये जाते हुए है और काय केन्द्र को आवश्यक अनुदान भी आदान प्रदान करता रहता है।
सूर्य को धन (पाजेटिव ) और पृथ्वी को ऋण (निगेटिव ) धारा का प्रतीक माना गया है। दोनों स्वभावतः एक दूसरे की और दौड़ते हैं। मिलन से शक्ति धारा प्रवाहित होती है। नर और नारी के आकर्षण की तरह ध्रुवों में भी परस्पर आकर्षण क्रम चलता रहता है। दोनों के मध्यवर्ती सम्बन्ध सूत्र को शक्ति दण्ड कहते हैं। विज्ञान की भाषा में इसे ‘कड्मस’ कहा जाता है। यह सूत्र जिन दिनों प्रखर रहता है उन दिनों प्राणियों तथा पदार्थों की हर दृष्टि से उन्नति होती है किन्तु यदि कारण वंश उस शक्तिदण्ड में क्षीणता आ जाय तो फिर पदार्थों, वनस्पतियों, जीवधारियों, परिस्थितियों में भारी अन्तर उत्पन्न हो जाता है। सबमें उदासी छाई रहती है और सब कुछ घटोत्तरी की ओर चलता है। शरीर में मूलाधार को पृथ्वी, सहस्रार को सूर्य एवं शक्तिदण्ड को मेरुदण्ड में सन्निहित माना गया है।
पुरानी पीढ़ी के वैज्ञानिक मानते रहे हैं कि पृथ्वी में अपना निज का गुरुत्वाकर्षण ताप तथा जीवन है। नई पीढ़ी के अन्वेषणकर्ताओं ने उस मान्यता को बदल दिया है। वे कहते हैं पृथ्वी अपेक्षाकृत अधिक परावलम्बी है। उसकी भौतिक सम्पदा तो आकर्षण भर की है। बाकी तो उसने वेश्या की तरह जिधर-किधर से जोड़ बटोर कर ही अपनी पूँजी बढ़ाई है। कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय- सैत्र दिगो- के खगोल विज्ञानी डबल्यू० एक्सफर्ड ने पृथ्वी वाशिंगटन की इण्टर नेशनल मैनमेटोस्फियर कांफ्रेंस में अपना शोध निबन्ध पढ़ते हुए कहा कि सूर्य का अजस्र शक्ति प्रवाह धरती पर उतरता है पर वह सारे भू-मण्डल पर समान रूप से नहीं बरसता। उत्तरी ध्रुव क्षेत्र के एक विशेष स्थल पर वह बन्दूक की गोली की तरह टूटता है वहाँ से वह पृथ्वी के वायु मण्डल में- रेडियो प्रवाह में सम्मिलित होकर पृथ्वी की भीतरी और बाहरी क्षमताओं को अनुदान देता है। वे कहते हैं उत्तरी ध्रुव पर खुली आँख से दृष्टिगोचर होने वाली ध्रुव प्रभा कोई चमत्कार कौतूहल नहीं वरन् पृथ्वी और सूर्य के आदान-प्रदान का परिचय भर है। अनुदान की मात्रा का सन्तुलित रहना पृथ्वी की आवश्यकता भर के लिए ही उसे ग्रहण किया जाना यही वह तथ्य है। जिसके आधार पर ‘सब कुछ ठीक’ ओ.के. चल रहा है। इसमें असन्तुलन उत्पन्न होते ही ठंड से ठप्प हो जाने अथवा गर्मी से भस्म हो जाने का संकट सामने आ खड़ा होगा।
उत्तरी ध्रुव क्षेत्र का प्रायः 50 हजार वर्ग मील क्षेत्र और दक्षिणी ध्रुव का प्रायः 30 हजार वर्ग मील क्षेत्र ऐसा है जहाँ सूर्य की किरणें दर्पण पर टकराने वाले प्रकाश प्रतिबिम्ब की तरह अवतरित होती है और सीमित आदान-प्रदान करके वापिस लौट जाती है। अनुदान का एक बहुत छोटा अंश ही ध्रुव क्षेत्र ग्रहण करते हैं। उतने से ही धरती की गरिमा बनी रहती है।
मानवी सत्ता के मौलिक शक्ति स्रोतों के सम्बन्ध में भी यही बात है। सूक्ष्म जगत एवं निखिल ब्रह्माण्ड में अनन्त वैभव भरा पड़ा है। उसमें से उत्तरी ध्रुव के प्रतीक सहस्रार चक्र पर अनुदान बरसते हैं इस पूँजी से वह सूर्य की भूमिका निभाता है। अपना सूर्य भी तो पृथ्वी को देने वाली सामर्थ्य महासूर्य से ही धरती की ही भाँति माँग कर लाता है। सहस्रार का सूर्य- मूलाधार रूपी पृथ्वी को अपने अनुदान प्रदान करता है, वहाँ से वह शक्ति छोटे केन्द्रों को चक्रों को- उपलब्ध होती है। उसी का वितरण क्रिया और ज्ञान क्षेत्र के विभिन्न केन्द्रों को समर्थ सक्रिय बनाता है।
सूर्य और पृथ्वी का संयोग सुचारु रूप से चलाने का उत्तरदायित्व ध्रुव प्रदेश सम्भालते हैं। मूलाधार और सहस्रार में भी इसी प्रक्रिया का सुसंचालन आवश्यक होता है। इस दिशा में कोई अवरोध उत्पन्न होते हों तो उन्हें हटाया जाना चाहिए। सुसंचालन और परिशोधन की भूमिका कुण्डलिनी जागरण से सम्भव होती है। दोनों केन्द्रों का प्रखर सहयोग होने पर ही भूलोक की सर्वतो-मुखी सुव्यवस्था सम्भव है और उसी आधार पर जीव सत्ता का विकास क्रम अग्रगामी बनते-बनते पूर्णता के लक्ष्य तक जा पहुँचता है।
उत्तरी ध्रुव पर अन्तर्ग्रही विशेषतया सौर ऊर्जा के टकराव को एक विलक्षण प्रकार के ऊर्जा कम्पनों के रूप में देखा जा सकता है। इसकी प्रत्यक्ष चमक उस क्षेत्र में फैली रहने वाली ध्रुव प्रभा या मेरु प्रकाश के रूप में छाई रहती है यह प्रकाश दोनों ध्रुवों पर अपने-अपने निराले रूपों में दृष्टिगोचर होता है। जिन्होंने उसे आरम्भ में देखा वे आश्चर्यचकित रह गये और हतप्रभ रह कर सोचते रहे, अपनी ही धरती पर यह जादुई दुनिया किस प्रकार बस रही है।
ध्रुव प्रकाश सर्चलाइट की तरह होता है। यह उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में अधिक तेज है। जीवन दोनों पर हैं उत्तरी ध्रुव पन एस्किमो मनुष्य जाति रहती है। कई प्रकार के रीछ, कुत्ते, मछली जैसे जीव तथा कई तरह की वनस्पति पाई जाती है। दक्षिण ध्रुव पर पेन्गुइन पक्षी और बिना पंख वाला मच्छर भर पाया जाता है। पेन्गुइन की प्रकृति में असीम प्यार भरा है। एस्किमो अत्याधिक साहसी होते हैं। इसे भी नर के पौरुष और नारी के भाव संवेदन के समतुल्य माना जा सकता है।
दक्षिणी ध्रुव पर महीनों अन्धकार छाया रहता है। जबकि उत्तरी ध्रुव पर छः महीने की रात में भी मेरु प्रकाश का अस्तित्व बना रहता है। ध्रुवों पर सूर्य किरणों की अनेकों विचित्रताएँ दृष्टिगोचर होती है। ध्रुव यात्री वायर्ड ने एक बार सूर्य को बिलकुल हरे रंग का देखा सूर्य किरणों की वक्रता के कारण वहाँ ऐसे ही हवा में लटकती जान पड़ती है। टीले जितने होते हैं उससे कई गुने बड़े लगते हैं कई बार अनेक सूर्य एक साथ उगे हुए दीखते हैं। इसी प्रकार चन्द्रमा भी आकाश में बर्फ में- हवा में अलग-अलग निकले हुए दीखते हैं। यह कृत्रिम सूर्य और चन्द्र भी देखने में वास्तविक जैसे ही प्रतीत होते हैं। उत्तरी ध्रुव पर दिन-रात का क्रम भी विचित्र है। रात-दिन छः-छः महीने के भी नहीं होते। 80 दिन की भी रातें होती है और सूर्य वर्ष भर में 16 दिन तक ही चमक पाता है, चन्द्रमा कई बार इतना चमकता है कि उसके प्रकाश से सूर्य की रोशनी जितना ही काम हो सके। मेरु प्रकाश कभी-कभी तो शान्त रहता है। पर कभी-कभी वह किरणों की लम्बाई के रूप में-कभी ज्योति या ज्वाला के रूप में प्रचण्ड रता है। उसके भी दृश्य बदलते रहते हैं। प्रकाश के गुच्छों के रूप में एवं सर्च लाइट की लम्बी फेंक रोशनी की तरह ही वहाँ दृश्य बदलते रहते हैं।
यह प्रकाश परिवर्तन क्यों होते है? इसके कारण सूर्य की स्थिति में परिवर्तन और उसकी प्रतिक्रिया का धरती पर अवतरण माना गया है। सूर्य से तेज चमक बढ़ते ही एक दो दिन में मेरु प्रकाश भी बढ़ जाता है सूर्य में उठने वाले तूफान धरती पर चुम्बकीय विकिरण बखेरते हैं और पृथ्वी की सामान्य गतिविधियों के हर क्षेत्र में भारी उथल-पुथल उपस्थित हो जाती है।
पृथ्वी में चुम्बकीय शक्ति है जिसके कारण वह अपनी आवश्यक वस्तुएँ अनन्त आकाश में से पकड़ घसीट कर ले आती है। ध्रुव प्रदेश के मेरु प्रकाश में होने वाली हलचलों को इसी पकड़-धकड़ का उखाड़-पछाड़ का दृश्य समझा जा सकता है। बिल्ली, चूहे की- हिरन चीते की शिकार प्रक्रिया एवं पहलवानों की कुश्ती में प्रयुक्त होने वाले दाब पेंचों के समतुल्य माना जा सकता है।
ध्रुव प्रकाश का दृश्यमान जितना अद्भुत है उससे भी अधिक रहस्यमय उसका अदृश्य प्रभाव है। यह प्रभाव स्थानीय ही नहीं होता, वरन् समस्त, भूतल को प्रभावित करता है। भू गर्भ में- समुद्र तल में- वायु मंडल में- ईथर के महासागर में जो विभिन्न प्रकार की हलचलें होती रहती है। चढ़ाव उतार आते रहते हैं। उनका बहुत कुछ सम्बन्ध इस ध्रुव प्रभा से होता है। इतना ही नहीं उसकी हलचलें प्राणधारियों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करती है। मनुष्यों पर तो उसका प्रभाव विशेष रूप से होता है। पृथ्वी का चुम्बकत्व जो उसके कण-कण में संव्याप्त है और जिसके कारण जीवन तत्त्व गतिशील है-वह पृथ्वी की मौलिक सम्पदा प्रतीत भर होती है वस्तुतः वैसा है नहीं। यह चुम्बकत्व भी अन्तर्ग्रही अनुदान है। मिलों की पूँजी में बैंकों के सहयोग का बड़ा भाग रहता है। इसी प्रकार पृथ्वी रूप मिल भी अन्तर्राष्ट्रीय अन्तर्ग्रही बैंकों के उधार अनुदान से अपना काम चलाती है। उसकी मूल पूँजी तो वह साख भर है जिसके कारण उपयुक्त मात्रा में अनुदान दाता तत्त्व उसकी सीमित सहायता करते हैं।
यहाँ पृथ्वी की स्थिति से जीव सत्ता की तुलना की जा सकती है। उसे ब्रह्माण्ड-व्यापी ब्रह्मसत्ता से अभीष्ट अनुदान मिलते हैं। आवश्यकतानुसार वे बढ़ सकते हैं, पर इसके लिए अपनी साख बढ़नी चाहिए, प्रामाणिकता सिद्ध की जानी चाहिए। यह बताया जाना चाहिए कि जो नये अनुदान माँगे जा रहे है उन्हें सम्भाल कर रखने एवं सदुपयोग करने की प्रामाणिकता पात्रता बढ़ा ली गई है या नहीं? इस सम्बन्ध में आश्वस्त हुए बिना कोई बैंक या ऋण दाता अपनी पूँजी नहीं फँसाता यहाँ तक कि भिक्षुकों के सम्बन्ध में भी यह सोचा जाता है कि दान मिलने पर वे उसका क्या उपयोग करेंगे? उनकी मान्यता में औचित्य है या नहीं? इतना भर सिद्ध कर देने पर अनुदानों का द्वार खुल जाता है और अभाव ग्रस्तता की शिकायत करने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता। साधना का पूरा काम आत्म साधना है। देव साधना का तात्पर्य किसी बाहरी सत्ता को रिझाना नहीं, अपनी ही दिव्य विशेषताओं को जागृत एवं परिष्कृत करना है। इस दिशा में जो जितनी सफलता प्राप्त कर सका, उसे विश्व विभूतियों में से उतने ही अनुपात से दिव्य उपलब्धियाँ सिद्धियाँ- मिलती चली जाती है।
सूर्य से आने वाला शक्ति प्रवाह उत्तरी ध्रुव पर अवतरित होता है। टकराने पर उसमें उछाल आता है। जैसे रबड़ की गेंद पूरे वेग से टकराने पर उछल जाती है। उसी प्रकार यह शक्ति प्रवाह भी उछल कर उस स्थान पर जा गिरता है जिसे दक्षिण ध्रुव कहते हैं। उछाल के आकाश मार्ग को हम चाहे तो अपने काय विश्व का उछाल मेरुदण्ड कह सकते हैं। ब्रह्मरन्ध्र से टकरा कर सविता के दिव्य प्राण उछल कर जिस मार्ग से संचय भण्डार में स्थिर होता है उसे मूलाधार कहा गया है। मस्तिष्क गत ऊष्मा को जननेन्द्रिय मूल के काम बीज तक पहुँचाना मेरुदण्ड का काम है।
एक ध्रुव गहरा है दूसरा उभरा लगता है, किसी फल को चीरते समय मध्य भाग में कुछ भूल रह गई है। दोनों टुकड़ों को मिला दिया जाय तो वे फिर एक समूचा फल दिखाई देंगे
सहस्रार और मूलाधार की भी यह स्थिति हैं। मूलाधार एक गहंर है। उसे समुद्र की, सरोवर की, कुण्ड की-उपमा दी जाती है। योनि भी उसका नाम है। इन आकृतियों से गड्ढे का बोध होता है। सहस्रार की उपमा कमल पुष्प से कैलाश पर्वत से दी गई है। शिव लिंग के रूप में भी उसका उल्लेख है। यह उभार है। गड्ढा और उभार रहने से एक ओर खाई दूसरी ओर टीला रहेगा। दोनों के समन्वित कर दिया जाय तो समतल स्थिति बन सकती है। और समस्वरता आ सकती है। इस समस्वरता को ही समाधि कहा गया है। समाधि रस को ब्रह्मानंद कहा गया है। इसका थोड़ा सा परिचय संभोग रस से मिलता है। आत्मा और परमात्मा के बीच चलने वाले आकर्षण को भक्ति , सम्वेदना कहते हैं। मूलाधार और सहस्रार के बीच चलने वाला आकर्षण इसी स्तर का है।
आत्मा और परमात्मा की दिशा धारा एक ही रहने पर परम शान्ति की अनुभूति होती है। जब तक वे दोनों पृथक् रहते हैं दोनों का आमुख प्रतिकूल रहता है तब तक न तो स्थिरता आती है और न शान्ति मिलती हैं। मूलाधार स्थिति भौतिक सामर्थ्य और सहस्रार स्थिति आत्म सम्पदा जब मिल जुलकर एक ही दिशा में चलने लगते हैं तो जीवन का लक्ष्य पूरा होता है। आत्म सत्ता में अन्तरंग बहिरंग की प्रतिकूलता को अनुकूलता में परिणत करने की प्रक्रिया कुण्डलिनी साधना में सम्पन्न होती है।
पृथ्वी के इर्द-गिर्द एक छलनी जैसा सूक्ष्म कवच चढ़ा हुआ है। उसी में से छन कर आवश्यकतानुसार अन्तर्ग्रही क्षमताएँ भीतर प्रवेश करती है। इसी विशेषता के कारण धरती की अद्भुत स्थिति बन सकी और उस पर जीवन सत्ता विकसित हो सकी। अन्य ग्रहों पर यह कवच नहीं चढ़ा है, इसलिए उन पर अन्तरिक्षीय ऊर्जाएं मन माने ढंग से उतरती है। चन्द्रमा का शरीर उल्काओं के आघात से कितना कुरूप बन गया है। उसकी सतह पर जो गहरे खड्डे हैं वे उल्काओं के आघात से बने है। अन्य ग्रहों को अन्तरिक्षीय विकिरण प्रभावित करते रहते हैं। इन्हीं आक्रमणों ने उन्हें निष्प्राण बना रखा है। यदि उन्हें भी धरती जैसे कवच मिला होता तो वे भी पृथ्वी की तरह-सुन्दर सुविकसित और सजीव स्थिति में बने हुए होते।
मनुष्य का सौभाग्य है कि उसकी सत्ता के इर्द-गिर्द संकल्प शक्ति का-प्राण शक्ति का-एक कवच चढ़ा हुआ है। उसकी छलनी में होकर वह आवश्यकतानुसार ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का प्रवेश होने देता है। अविकसित चेतना की इस छलनी में बहुत छोटे और थोड़े छिद्र होते हैं। तद्नुरूप उसे ब्राह्मी अनुग्रह स्वल्प मात्रा में मिलता है। इतने से वह निर्वाह के साधन भर जुटा पाता है । पेट प्रजनन की आवश्यकता पूरी करने के लिए शारीरिक और मानसिक क्षुधाएँ दबाव डालती है। जितना भर साधन मिल सके प्रायः उतने ही बड़े छिद्र सर्वसाधारण कह छलनी में होते हैं। इससे अधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों की आकांक्षा हो तो संकल्प कवच के छिद्र अधिक चौड़े करने पड़ेंगे और उनकी संख्या भी बढ़ानी पड़ेगी इसी के लिए साधना विज्ञान का आश्रय लिया जाता है। दैवी अनुदान अभीष्ट मात्रा में सहज ही प्राप्त किये जा सकते हैं। उस भण्डार में कोई घाटा नहीं, जहाँ से कि प्राप्त किया जाना है। उपलब्धियों के उपयोग का क्षेत्र भी सुविस्तृत पड़ा है। ऊँचा उठने और आगे बढ़ने के लिए भौतिक और आत्मिक क्षेत्र में अनेकों आधार खाली पड़े है। भूमि को जल की आवश्यकता है समुद्र में असीम जल राशि भरी पड़ी है। भूमि प्यासी समुद्र पर भार। दोनों का सन्तुलन मिलाने के लिए वर्षा करने वाले बादलों की आवश्यकता पड़ती हैं बादलों की व्यवस्था चल पड़े तो धरती का भी भला और समुद्र का भी बादलों का प्रबन्ध करने वाली व्यवस्था साधना उपचार से बनती है। आवरण के छिद्रों की संख्या बढ़ाना और चौड़ी करना ही वह कार्य है जिसके आधार पर साधना को सिद्धि में परिणत होते देखा जा सकता है। जो इस परम पुरुषार्थ के लिए साहस जुटा सके, उसने मनुष्य जन्म का सच्चा लाभ पा लिया ऐसा समझा जा सकता है।
ध्रुव क्षेत्र में सूर्य के अस्त हो जाने पर भी एक विशेष प्रभा मण्डल विद्यमान् रहता है। सूर्य चन्द्र के बिना भी यह प्रकाश बहुत आश्चर्यजनक लगता है। यह चुम्बकीय विद्युत कणों की प्रकीर्णता ही है। यह प्रकाश जैसा दीखने वाला, विद्युतीय परिमंडल एक लम्बी रज्जु जैसा होता है उसमें कई रंग की ज्योतियाँ झिलमिलाती सी दीखती है। यह रंग तेजी से अद्भुत परिवर्तित और तिरोहित होते रहते हैं। अलास्का विश्व विद्यालय के शोध कर्ता जब इस रंगीन झिलमिल के चित्र खींच कर लाये और लोगों को उन्हें दिखाया तो रंग बिरंगी प्राकृत फुलझड़ी की बात पर सभी ने भारी आश्चर्य व्यक्त किया। कुण्डलिनी जागरण के लिए किये ऐसे ही रंग-बिरंगे प्रवाह, गोलक एवं स्फुल्लिंग गतिशील दिखाई पड़ते हैं।
कुण्डलिनी उपासना काल में प्रकाश अनुभूतियाँ प्रायः होती रहती है। आग की उड़ती हुई चिनगारियों से लेकर ज्योति ज्वालाओं तक प्रकाश गोलकों से लेकर तन्तु धाराओं तक की अनुभूतियाँ ध्यानावस्था में होती है। आरम्भ में यह कौतुक कौतूहल जैसा ही प्रतीत होता है किन्तु पीछे इस प्रकाश के आलोक में आत्म बोध ब्रह्म बोध से लेकर अदृश्य दर्शन तक के कितने ही ऐसे आधार सामने आते हैं, जिनसे आत्म कल्याण का पथ प्रशस्त हो सके और जीवन को समुन्नत एवं सर्वोपयोगी बनाने का सौभाग्य मिल सके।
प्रतिभा, सौंदर्य, माधुर्य एवं कौशल का आकर्षण सर्वविदित है। इन चुम्बकीय क्षमताओं के आधार पर लोग व्यक्तित्ववान बनते हैं और उससे दूसरों का मन मोह कर उन्हें उपयुक्त मार्ग पर चलाते हैं। आध्यात्मिक आकर्षण इससे अत्यधिक शक्तिशाली है। उससे अपना प्रभाव क्षेत्र विकसित होता है। उसके आधार पर दूसरों का सहयोग पा सकना- सद्भाव सम्पादन करके उन्हें ऊँचा उठाने में सफल होना सम्भव हो सकता है, साथ ही उस चुम्बकत्व के सहारे दैवी शक्तियों को आकर्षित कर सकने में भी सफलता मिल सकती है। गुण कर्म स्वभाव में उत्कृष्टता उत्पन्न करने वाले दिव्य तत्त्व इस निखिल ब्रह्माण्ड में भरे पड़े है। उन्हें सहायता के लिए कुण्डलिनी साधना के आधार पर चुम्बक ज्योति से साधक का व्यक्तित्व भी ज्योतिर्मय एवं विशिष्ट आकर्षण युक्त बन सकता है।
पहली बार जब ध्रुव प्रदेश के अन्वेषक उस प्रदेश में गये तो उन्होंने अनेक ऐसी विचित्रताएँ देखी जिनकी उन्हें कल्पना भी न थी। वहाँ एक मील दूर बैठे मनुष्य से भी उसी तरह बात-चीत की जा सकती हैं मानो वह बिलकुल पास बैठा हो। छोटे विद्युत जनरेटर चलाने पर उसकी आवाज बीस मील तक पहुँचती थी। चलते समय बर्फ पर चरमराते जूते तक की आवाज एक मील दूर से सुनाई पड़ती थी। लेकिन यह सब होता तभी था जब तापमान शून्य से नीचे होता। मस्तिष्कीय संस्थान का ध्रुव केन्द्र सहस्रार उद्विग्नताओं से रहित, शान्त एवं शीतल हो तो दूर श्रवण ही नहीं दूरदर्शन भी सम्भव हो सकता है। अपनी पृथ्वी पर, उसके नीचे, ऊपर क्या हो रहा है? सूक्ष्म जगत में क्या हलचलें उभर रहीं है? इसकी जानकारी सामान्य न रह कर असामान्य स्तर की बन जाती है। सिद्ध पुरुषों जैसी यह विशेषता उत्पन्न करने के लिए साधना द्वारा उत्तरी ध्रुव जैसी शान्ति मस्तिष्कीय क्षेत्र में उत्पन्न करनी पड़ती है। सहस्रार साधना से यह सम्भव हो सकता है।
कुण्डलिनी साधना की सहस्रार चक्र पर असाधारण प्रतिक्रिया होती है। अतीन्द्रिय क्षमताओं के दिव्य संस्थान अपनी मूर्छना छोड़ कर सक्रिय बनते हैं और वह देखने सुनने, जानने लगते हैं जो साधारण स्थिति में असम्भव ही लगता है। दूरदर्शन, दूर श्रवण, अविज्ञात का परिचय, भविष्य का आभास, प्रभाव परिवेषण, जैसी सिद्धियाँ उनके लिए सरल है जिनमें अपनी मन स्थिति ध्रुव प्रदेश की तरह शान्त और शीतल बना ली ह। अन्तरिक्ष की असंख्यों हलचलों को-ध्वनियों एवं प्रकाश किरणों को हमारी भौंड़ी इन्द्रिय क्षमता देख समझ नहीं पाती। काम चलाऊ मोटी जानकारियाँ दे सकने के स्तर पर ही उनका निर्माण हुआ है। यदि अतीन्द्रिय क्षमता विकसित की जा सके तो सृष्टि के रहस्यों को- अविज्ञात को समझ सकना योगाभ्यासी सिद्ध पुरुषों की भाँति ही सम्भव हो सकता है।
ध्रुव प्रदेश में कभी-कभी इससे ठीक विपरीत स्थिति भी उत्पन्न होती देखी जाती है। जब हवा की परत आकाश में सघन हो जाती है तो शिर पर उड़ते वायुयान की आवाज भी कानों तक नहीं पहुँचती। यदि अपना मन क्षेत्र तपश्चर्या की-योगाग्नि की गरम पट्टी विनिर्मित कर ले तो साँसारिक आकर्षण, प्रलोभन, कौतूहल, भय, मनोविकार आदि के ढोल ही क्यूँ न बजते रहें, उनका एक भी शब्द कान में नहीं आता। घोर कोलाहल भरे वातावरण में रहते हुए भी चित्त को समाधिस्थ जैसा बना कर रखा जा सकता है। कहने सुनने में तो यह सामान्य सी बात लगती है, पर है इतनी महत्त्वपूर्ण कि उस आधार पर हर घड़ी आनन्द मग्न रहने और लक्ष्य की दिशा द्रुतगति से आगे बढ़ चलने के उभय पक्षीय महान् प्रयोजन पूरे हो सकते हैं।
लकड़ी के जहाज लेकर जब सर्वप्रथम ध्रुव प्रदेशों के शोधकर्ता वहाँ गये तो जहाजों में ली मजबूत कीलें भी उनमें से अपने उखड़ कर आकाश में उड़ गई। मस्तिष्कीय ध्रुव केन्द्रों का चुम्बकत्व व्यक्ति की वर्तमान आन्तरिक और बाह्य परिस्थितियों में भारी अन्तर उपस्थित कर सकते हैं। अवांछनीयताएँ कीलों की तरह उखड़ती उड़ती दृष्टिगोचर हो सकती है। नवोदित चुम्बकत्व से पुराने ढर्रे में परिवर्तन होने और नई गति चल पड़ने की सम्भावना साकार हो सकती है। सहस्रार चक्र की साधना का प्रभाव मात्र ईश्वर उपासना का आनन्द देने भर के लिए नहीं, वरन् मनः स्थिति परिस्थिति एवं अस्तित्व स्थिति में इस विकास परिवर्तन का आश्चर्यजनक परिणाम दृष्टिगोचर हो सकता है। उससे कुसंस्कारों की वे कीलें उखड़ सकती है, जो साधारणतया बहुत गहरी और मजबूत मालूम पड़ती है।
ध्रुव केन्द्रों की परिस्थितियों में अन्तर पड़ने से इस पृथ्वी पर भयंकर परिवर्तन प्रस्तुत होते रहे है। हजारों वर्षों तक चलने वाले हिमयुग एक प्रकार से खण्ड प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न करते रहे है। चुम्बकीय तूफानों से लेकर ज्वालामुखी फटने और भूकम्प आने की बड़ी घटनाओं के सम्बन्ध सूत्र ध्रुव प्रदेशों में पाये गये है। आज से कोई दो करोड़ वर्ष पूर्व रेडियो लारिया नामक जीव अस्तित्व में आया है पीछे वह ध्रुवीय संचार में परिवर्तन आने पर इस धरती से ही तिरोहित हो गया। ऋतुओं के प्रभाव एवं समय में भी अन्तर होता रहा है। ध्रुवों पर जो ब्रह्माण्डीय किरणों की बौछार होती है यदि उनकी मात्रा भू-लोक में न्यूनाधिक मात्रा में होने लगे तो इससे प्राणियों की आकृति प्रकृति में और पदार्थों की संरचना एवं उपयोगिता में भारी उलट-पुलट हो सकता है। शक्ति संचार बढ़ जाने से लाभदायक और घट जाने से हानिकारक परिणाम सामने आते हैं।
यह तो हुई इस धरातल पर काम करने वाली व्यापक कुण्डलिनी की बात। व्यक्तिगत मानवी सत मैं इसे मूलाधार और सहस्रार के अंतर्गत काम करने वाली, मेरुदंड मार्ग से दौड़ने वाली दिव्य विद्युत की संज्ञा दी जाती है और उसे कुण्डलिनी कहा जाता है। इस ऊर्जा में शिथिलता एवं विकृति आने पर शरीर दुर्बल एवं अशक्त बनता है। मनोबल गिरता है। सन्तुलन बिगड़ा रहता है अवसाद, आवेश छाये रहते हैं। भटकाव और असन्तोष का दौर चलता रहता है। दूसरों के प्रति विरक्ति उपेक्षा, ईर्ष्या के भाव उठते हैं। आत्म-ग्लानि निराशा, खीज़ आशंका की बढ़ी हुई मात्रा चित्त को खिन्न रखती है। डाँवाडोल स्थिति में कई स्पष्ट निर्णय ले सकना कठिन पड़ता है। तनिक से अवरोध पर्वत जैसे भारी लगते हैं। विपत्ति अब तब सिर पर टूटती ही प्रतीत होती है। भविष्य अन्धकारमय दीखता है। विश्वास न अपने पर होता है और न स्वजनों पर, यह सर्वतोमुखी असमर्थता कुण्डलिनी शक्ति में कमी पड़ जाने के ही चिह्न हैं।