Magazine - Year 1978 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
ऊँट के नीचे पहाड़
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इस युग में जब भी कोई नई मान्यता, नूतन दर्शन और विचारधारा फैलाई जाती है तब पूर्व मान्यताओं को चुनौती देने की एक परम्परा बन गई है। पंचतत्वों से भी ऊपर चेतन परमाणु तक की भी आणविक संरचना, प्रकाश, अग्नि और वरुण (पानी) की गति, स्थिति और उसके प्रयाग पर प्रकाश डालने वाली वैदिक ऋचाओं को गल्प माना जाने लगा है। पूर्वजों को आदिवासी सभ्यता का अंग बताया जाता है। अब तो तथाकथित बुद्धिवाद इस सीमा तक उद्धत हो चला कि रामायण और महाभारत को भी इस आधार पर काल्पनिक ठहराया जाने लगा है, कि उसमें वर्णित इतिहास असम्भव से भी असम्भव है। यह कि उस युग के मानव को बौद्धिक स्तर इस योग्य था ही नहीं कि वह कोई चमत्कारिक कार्य कर सकता।
सच पूछा जाये तो बौद्धिक दृष्टि, विज्ञान तकनीक, उद्योग, वाणिज्य, वास्तुकला, स्थापत्य, विमान आदि समस्त क्षेत्रों में जैसी प्रगति प्राचीन काल में हुई वैसी स्थिति तक पहुँचने में आधुनिक विज्ञान को कई शताब्दियाँ लग जायेंगी। “चैरियट्स ऑफ गाड्स” नामक पुस्तक में सुप्रसिद्ध जर्मन इतिहास वेत्ता डॉ. एरिचवान डनिकेन ने सारे संसार का पर्यटन किया और उन तथ्यों को संग्रहण संकलन किया जिन्हें इस युग में आश्चर्य की संज्ञा दी जाती है। इस अध्ययन का निष्कर्ष विद्वान लेखक ने भी इसी तरह के शब्दों में निकाला है और लिखा है जहाँ से हमारा इतिहास लिखा गया है उससे पूर्व के वैदिक युग की सभ्यता, संस्कृति और वैज्ञानिक उपलब्धियाँ आज की अपेक्षा सैकड़ों गुना अधिक थीं। हमारे पूर्वजों की शक्ति, सामर्थ्य, बौद्धिक और आत्मिक क्षमताएँ ऐसी थीं जिसका वर्णन कर सकना भी असम्भव है। उस युग का तकनीकी ज्ञान भी अब से किसी भी स्थिति में कम न था।
मिश्र के पिरामिडों को ही लें। यदि उस युग में विज्ञान और तकनीक का विकास नहीं था तो मिश्र में यह पिरामिड बड़े बड़े शहर, मन्दिर, मूर्तियाँ, सड़कें, पानी निकास की नालियाँ, चट्टानें काटकर बनाये गये मकबरे और भयंकर आकार प्रकार के पिरामिड्स कहाँ से आ गये। इन सबका कोई पूर्व इतिहास नहीं मिलता इसका अर्थ मिश्र के विशेषज्ञ भी यह निकालते हैं कि तब इस तरह की क्षमताएँ सामान्य बात रही होंगी। किसी ने उस सभ्यता के विनाश और भविष्य में परिघटित मानवीय सामर्थ्यों की कल्पना ही न की होगी इसीलिए सम्भवतः वह इतिहास लिखने के आदी नहीं रहे। एक कल्पना यह भी है कि किसी भयंकर युद्ध (महाभारत के समान) जिसमें अणु आयुध भी प्रयुक्त हुए हों, रेडियोधर्मिता, जल प्रलय, हिम प्रलय, भूस्खलन या ज्वालामुखियों ने उस सभ्यता और उसके इतिहास को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया हो। जहाँ तहां जो सामग्री बच गई वही आज पुरातत्व अवशेषों में देखी जाती है।
तत्कालीन शारीरिक क्षमता, बुद्धिमत्ता कला-कौशल के प्रतीक के रूप “च्योप्स के पिरामिड” को लिया जा सकता है। जहाँ यह पिरामिड बना है वह स्थान अत्यधिक ऊबड़-खाबड़ क्षेत्र है उसे समतल बनाने में ही भयंकर परिश्रम करना पड़ा होगा फिर यही स्थान क्यों चुना गया? इसे प्रागैतिहासिक युग की सूक्ष्मतम बौद्धिक सामर्थ्य का प्रतीक कह हैं। यह स्थान महाद्वीपों तथा समुद्रों को ठीक दो बराबर-बराबर भागों में विभक्त करता है। स्पष्ट है। यह कार्य न तो सागर नापकर किया जा सकता है और न ही धरती। तो फिर बहुत सुधरे किस्म के यन्त्रों से प्राप्त जानकारियों को गणित में बदल कर स्थान ज्ञात किया गया होगा। यह स्थान गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बिलकुल मध्य में है जो यह दर्शाता है कि तब के लोग नक्षत्र विद्या में भी पारंगत थे। चुम्बकीय-बलों से अच्छी तरह परिचित थे।
च्योप्स के इस दैत्याकार पिरामिड में 26 लाख पत्थर के सुँदर डिजाइन किये हुए पत्थर लगे हैं। इनकी फिटिंग इतनी साफ है कि दो पत्थरों के बीच की अधिकतम झिरी 1/1000 इंच से भी कम अर्थात् नहीं के बराबर है। इसमें जो गैलरी है उसकी दीवारें सुंदर रंगों से पेंट की हुई हैं। 1 ब्लाक पत्थर का वजन 12 टन का है। आज के स्तर से हिसाब लगाया जाये तो प्रतिदिन अधिक से अधिक दस पत्थर-ब्लाक ही चढ़ाये जा सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि 26 लाख पत्थर 2 लाख 60 हजार दिनों में अर्थात् 712 वर्षों में उसका निर्माण संभव है। जब कि पिरामिड में उसके एक ही निर्माता का नाम ‘फाराह खुफू’ अंकित है।
इस विशाल निर्माण पर आश्चर्य कर लेना एक बात हुई, पर विचारक को तो तब तक संतोष नहीं, जब तक वस्तुस्थिति की समीक्षा न हो। इस आश्चर्य के पीछे निम्नांकित प्रश्न उभरते और आज के बौद्धिक दम्भ से उसका समाधान चाहते हैं-
(1) 12 टन के पत्थर बनाने के लिए खान से कम से कम 15 टन भार के पत्थर तो निकाले ही गये हैं यदि उस समय डायनामाइट जैसे तत्व और उपकरण न थे तो इतने भारी वजन के ब्लाक खानों से निकालना कैसे संभव हुआ?
(2) यह पिरामिड काहिरा और अलेक्जेन्ड्रिया के मध्य बने हैं। गाड़ी व घोड़ों का प्रचलन भी सन् 1600 ई. में माना जाता है फिर यह भारी पत्थर बिना किसी सशक्त यातायात साधन के खान से पिरामिड क्षेत्र तक ढोये कैसे गये?
(3) मिश्र रेगिस्तानी प्रदेश है जहाँ ताड़ वृक्षों के अतिरिक्त और कोई लकड़ियाँ उपलब्ध नहीं। इतने भारी भार के पत्थर सिवाय रोलर्स से और किसी तरह स्थानान्तरित नहीं हो सकते। इतने बड़े कार्य के लिए इतने रोलर कहाँ से आये। ताड़ वृक्ष वहाँ के निवासियों का मुख्य आहार-आधार है वे उसे काट नहीं सकते फिर क्या यह रोलर समुद्री मार्ग से आयात किये गये? यदि ऐसा हुआ तो क्या तब जलयान नहीं थे?
(4) अरब विशेषज्ञों ने इन पिरामिडों, भूमिगत शहरी खण्डहरों और इन पिरामिडों के निर्माण में लगी जन-शक्ति का अनुमान करते हुए अरब की जनसंख्या 5 करोड़ निश्चित की है जब कि वहाँ नील डेल्टे के दायें बाये बाजू का ही एकमात्र क्षेत्र कृषि की उपज के योग्य है। सो भी अधिकांश नील ही वहाँ पैदा की जाती है। आज से 5000 वर्ष पूर्व समूचे विश्व की आबादी 2 करोड़ अनुमानित की गई है। फिर उससे पूर्व यह 5 करोड़ आबादी अकेले मिस्र में कहाँ से आ गई? उनके भोजन की व्यवस्था क्या पड़ोसी देशों से होती थी?
(5) उस युग में विद्युत नहीं थी। टार्च नहीं थे जब कि पिरामिड की सैकड़ों फीट लंबी सुरंगों की विधिवत् रंगाई-पुताई हुई है। मशालों से वहाँ के मजदूरों का दम घुट सकता था। दीवारें काली हो सकती थीं अतएव उनका प्रयोग कदापि न होने की बात एक स्वर से पुरातत्ववेत्ता भी स्वीकार करते हैं फिर इस प्रकाश की व्यवस्था कैसे हुई?
(6) पत्थरों की इतनी अच्छी कटाई कैसे हुई कि दो पत्थर जोड़ने पर झिरी 1/1000 इंच से भी कम अर्थात् हर पत्थर एक दूसरे से चिपक कर बैठा हो?
इस युग को विज्ञान और तकनीक का युग कहते हैं, वजन उठाने वाली अच्छी से अच्छी क्रेनें, सामान ढोने के लिए यातायात के साधन, उन्नत निर्माण यंत्र, अच्छी से अच्छी इंजीनियरिंग जो भाखड़ा जैसे बाँध विनिर्मित कर सके, पर यह पिरामिड उन्नत विज्ञान के भी वश की बात नहीं? तब फिर यह आश्चर्यजनक रचना संभव कैसे हुई? एक ही उत्तर मिलेगा तब के लोग आज के लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक सशक्त, समर्थ, बुद्धिमान और हर क्षेत्र में विकसित थे। तब न केवल समुद्री मार्गों से अपितु वायु मार्गों से भी विमान चलते थे इसके पुष्ट प्रमाण हैं। भारद्वाज संहिता का “वैमानिक प्रकरण” जिसमें विमान की विकसित तकनीक का वर्णन है वह तो प्रमाण है ही पुरातत्व विभाग ने वह स्थल भी खोजे हैं जो आज की अपेक्षा अधिक सुरक्षित “एरोड्रोम” तथा “हवाई पट्टी” के रूप में प्रयुक्त होते थे।
‘टेरेस ऑफ बाल बैक” के प्रति अपना विश्वास व्यक्त करते हुए रसियन विद्वान अगरेस्ट का भी यही अनुमान है कि निश्चित ही यह अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा था जहाँ दूसरे देशों के भी जहाज आते-जाते थे। टिहानको की कृत्रिम पहाड़ी छत भी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है 4784 वर्ग क्षेत्र में पूरी पहाड़ी को इस तरह समतल बनाया गया है कि उसमें एक सूत भी ऊँचाई निचाई का अंतर नहीं मिलता।
टिहानको नगर पुमेरिन सभ्यता का वैसा ही विकसित अड्डा माना जाता है जैसे सिंधु घाटी के ‘हड़प्पा व मोहन जोदड़ो’। सबसे अधिक उन्नति राजा ‘कुमुन्दजित’ के समय में हुई। ‘सुमेरु’ से बना शब्द सुमेरियन तथा ‘कुयुन्द जित’ दोनों ही स्पष्ट भारतीय नाम है और इस बात के प्रमाण कि विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भारत विश्व शिरोमणि था अन्य देशों को यहाँ से न केवल बौद्धिक प्रशिक्षण तथा मार्ग-दर्शन मिलता था अपितु आत्मा-विद्या के साथ-साथ भवन निर्माण, कलाकारी, विमान विद्या कृषि और वाणिज्य, भाषा, साहित्य और गणित आदि पढ़ने यहाँ संसार भर के लोग आते थे।
पुरातत्व की यह शोध सामग्री, यह आश्चर्यजनक निर्माण और उपलब्धियां निःसंदेह इस बात के प्रमाण हैं कि हमारे पूर्वज किसी भी क्षेत्र में हमसे कम नहीं थे, विद्या बुद्धि, कला-कौशल, आवास निर्माण, विज्ञान तकनीक, शरीर स्वास्थ्य, विमानन वाणिज्य, कृषि आदि में उनकी उपलब्धियाँ हमारी अपेक्षा बहुत अधिक बड़ी-चढ़ी थीं फिर भी उनका मूल ध्येय आत्म-निर्माण जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति था आज स्थिति उल्टी है आत्म-तत्व की शोध के लिए जब कि विराट् ज्ञान उपलब्ध है तब वह भौतिक साधनों की मृग-मरीचिका में भटक गया है फिर भी स्वयं को सही तथा पूर्वजों को पिछड़ा हुआ मानने के दम्भ पर उसे लज्जा भी नहीं आती।
----***----