Magazine - Year 1979 - September 1979
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
संयम बरतें-स्वस्थ रहें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
प्रकृति ने मानवी शरीर की संरचना ऐसी कला-कारिता के सहारे की है कि उसे चिरकाल तक निरोग और दीर्घजीवी बनाये रखा जा सके। बीमार पड़ना शरीर का स्वभाव नहीं है। जब सृष्टि के अन्य प्राणी मात्र प्रकृति प्रेरणा का अनुसरण करके निरोग जीवन जी लेते है तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य को ही रुग्णता और दुर्बलता घेरे रहे। यदि संयम बरता जाय और सुरक्षा के सामान्य नियमों का पालन किया जाय तो शारीरिक और मानसिक आधि−व्याधियों से सहज ही बचा जा सकता है। स्वास्थ्य संवर्धन और रोग निवारण पर जितना ध्यान दिया जाता है उससे कम यदि संयम बरतने, अपव्यय को रोकने, अनावश्यक बर्बादी बचाने और निरर्थक दबावों को कम करने की सावधानी बरती जाये तो आरोग्य का चिरस्थायी आनन्द सहज ही प्राप्त किया जा सकता है।
शरीर पर व्यर्थ का दबाव न आने दिया जाय और उसकी समुचित साज-सम्हाल की जाती रहे, तो यह स्थूल-शरीर अनेक अमूल्य अनुदानों से हमें आजीवन समृद्ध-सुखी बनाये रख सकता हैं इस तथ्य से अनभिज्ञ रहने पर, स्थूल शरीर रूपी सेवक की न्यूनतम आवश्यकताओं की भी उपेक्षा करने का अर्थ है-जीवन को भार बना लेना, इस सेवक की अथवा और विद्रोह से सन्तप्त और सुविधाओं से वंचित बने रहना तथा लगभग आधी जिन्दगी बीमारी को भेंट कर अकाल मृत्यु के लिए विवश होना। इस तथ्य को जितनी जल्दी ही समझ लिया जाए, उतना ही अधिक शरीर में छलक रहे जीवन-रस का लाभ लिया जा सकता है।
मनुष्य-शरीर जिन छोटे-छोटे जीवकोषों से बना है, वे प्रतिक्षण टूटते रहते है और नए।स्वस्थ कोषों का निर्माण भी उसी क्रम से निरंतर चलता रहता है। मनुष्य की त्वचा के कोष 4 दिन में नए बदल जाते है। 80 दिन में सम्पूर्ण शरीर की प्रोटीन बिल्कुल नई हो जाती है। पुरानी का पता भी नहीं चलता कि सड़-गल कर कहाँ चली गई?
डा. केनिथ रोंसले ने अनेक सूक्ष्म प्रयोगों के बाद यह प्रतिपादित किया कि यदि मनुष्य शरीर के कोषों में कोई गड़बड़ी न आये, तो गुर्दे 200 वर्ष और हृदय 300 वर्ष त जीवित रखे जा सकते है। इसके बाद उन्हें बदला भी जा सकता है। हृदय प्रत्यारोपण के प्रयोग तो बहुत ही अधिक सफल हुए है। इसके अतिरिक्त चमड़ी, फेफड़े और हड्डियों को तो क्रमशः 1000 वर्ष, 1500 वर्ष और 4000 वर्षों तक भी जीवित रखा जा सकता है।
जीव-कोषों को विकृत होने से रोककर उन्हें पुनः पोषण देकर मनुष्य को दीर्घजीवी बनाया जा सकता है। अध्यात्म की भाषा में जिसे कायाकल्प कहते है, वह पुराने शरीर में ही इन जीवकोषों की नई जिन्दगी आरम्भ करा देने का ही नाम है, जो रोग और आयुर्वेद की सम्मिलित प्रक्रिया से पूरा हो सकता है। च्यवन ऋषि का वृद्ध शरीर अश्विनीकुमार की चिकित्सा से इसी प्रक्रिया से नवयौवन सम्पन्न हुआ था। राजा ययाति को भी पुनः यौवन इसी तरह प्राप्त हुआ था।
शक्ति की कमी, कलपुर्जों की घिसाई, संचित पूँजी का खर्च, नये उत्पादन में शिथिलता, कचरे-दूषण में निरन्तर वृद्धि, इनका परिणाम ही शरीर का मरण होता है। जीवकोषों में चलती रहने वाली रासायनिक प्रक्रिया में विषाक्त पदार्थों का अनुपात बढ़ जाता है और प्रोटीन का चालीस प्रतिशत भोग कोलाजेन में बदल जाता है। त्वचा के नीचे का कोलाजेन कठोर हो जाने से चमड़ी पर झुर्रियां पड़ने लगती है। इस जराजीर्णता से बचने के लिए शारीरिक-मानसिक शक्तियों को अपव्यय रोक कर सीधा, सरल, सौम्य जीवनक्रम अपनाना ही सर्वोत्तम औषधि है। अपव्यय रोका जा सके तो ढलती आयु में भी शिथिलता से बचे रहा जा सकता है।
भारतीय मनीषियों द्वारा प्रतिपादित यह तथ्य अब आधुनिक शरीर-शास्त्रियों द्वारा भी स्वीकृत हो चला है कि शरीर को नियमित-सन्तुलित रखे रहना ही शक्ति का सही स्त्रोत एवं विधि है। विश्व विख्यात शरीर क्रिया-विद् क्लाड बर्नार्ड ने “नियमन” को ही चिकित्सा का एकमात्र उद्देश्य निरूपित किया है। उनका कहना है कि समस्त जीवन क्रियाएँ एक निषेचित सीमा में ही गतिशील रहती है। सामान्य अवस्था में तो देह की जीवन क्रियाएँ इस सीमा में ‘नियमित’ रहती ही है, विकारग्रस्त अवस्था में भी इसी ‘नियमित’ सीमा के भीतर ही जीवन क्रियाएँ कार्यशील रहती है अर्थात्! विकारग्रस्त अवस्था बहुत दिनों तक नहीं टिक सकती। विकारों की सफाई के बाद स्वतः ही सामान्य अवस्था आ जाएगी। यही “नियमन” की धारण है। इस प्रकार शरीर अपना नियमन स्वतः ही करते रहने में पूर्ण समर्थ है। वातावरण के दूषण और आहार-बिहार की अव्यवस्था-असन्तुलन को दूर करना तथा इनके कारण उत्पन्न शारीरिक असन्तुलन के स्वतः ही क्रमशः नियमित हो जाने तक प्रतीक्षा करना ही वास्तविक चिकित्सा हैं।
प्रख्यात शरीर क्रिया विज्ञानी वाल्टर कैनन ने “विजडम आफ द बाड़ी” नामक ग्रन्थ में इसी तथ्य का स्पष्ट विवेचन किया है कि डाक्टर के मुख्य कर्त्तव्य दो है-(1) इस तथ्य को भली-भाँति स्मरण रखना कि रोगी की देह-क्रिया, जो इस समय अस्वाभाविक और विकृत रूप में कार्यशील है, नियमन-प्रणाली के अनुरूप स्वतः ही सामान्य हो जाएगी तथा इस बात की जानकारी रखना कि अनुमानतः कितने समय में रोगी की देह-क्रिया स्वाभाविक हो जाएगी। (2) रोगी में ‘आशा और उल्लास’ का संचार करना, ताकि अपेक्षित समय तक रोगी बेचैनी से मुक्त रहे अथवा बेचैनी अधिक बढ़े नहीं। इसके लिए ही आवश्यकतानुसार दवाएँ आदि दी जा सकती है।
डाक्टर वाल्टर कैनन के अनुसार जब ऐसा लगे कि रोग स्वाभाविक नियमन-प्रणाली के परे है, तो उपचार द्वारा उसे नियमन की सीमा में ले आना चाहिए। इसके आगे का काम रोगी का शहरी स्वतः ही कर लेगा। हाँ, विघातक वातावरण से मुक्ति आवश्यक है। क्योंकि मनुष्य का पर्यावरण से घनिष्ठ सम्बन्ध है। पर्यावरण-प्रदूषण, रेडियो-सक्रियता ओर घातक शोरगुल के दुष्परिणाम आज पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बने हुए है। दूषित, विकृत वातावरण में रहते हुए शरीर की अव्यवस्थित जीवन क्रियाओं को नियमित कर पाना अति दुष्कर हो जाता है।
आहार-बिहार के नियमन-सन्तुलन द्वारा स्थूल शरीर की शक्तियों को जागृत, गतिशील रखे रहा जा सकता है और उससे बहुविधि महत्कार्य सम्पादित कराए जा सकते है। योगवाशिष्ठ में इसीलिए इस देहनगरी को अतिरम्या और सर्वगुणन्विता कहा गया है। महर्षि वशिष्ठ भगवान राम से तत्व-दर्शन का उपदेश करते हुए कहते है-
“रम्येयं देहनगरी राम सर्व गुणान्विता।
अज्ञस्येयमनन्तानाँ दुःखाना कोषमालिका।
ज्ञस्यत्वियमनन्तानाँ सुखानाँ कोषमालिका।”
-योगवाशिष्ठ 4/23/4 और 18
अर्थात् हे राम यह देह नगरी बड़ी सुरम्य और गुण-सम्पन्न है। यह ज्ञानियों के लिए सुख और अज्ञानियों के लिए दुःख देने वाली है।
शरीर की स्वाभाविक शक्तियों को विकसित करते रहने पर जहाँ इसकी विलक्षण सामर्थ्य प्रकट होती है, वहीं आहार-बिहार के असंयम-असन्तुलन से उसकी सामान्य क्रियाशीलता का भी ....स होता है।
शरीर की स्वाभाविक सामर्थ्य का वर्णन करते हुए विख्यात लेखक व चिकित्साविद् डाक्टर विलियम ली हावर्ड ने कहा है कि मानव-शरीर में एक भी ऐसा अंग-उपाँग नहीं है, जो स्वयं ही अपना हित किसी बड़े से बड़े डाक्टर या चिकित्सा-विशेषज्ञ से अधिक न कर सकता हो। दवाएँ और नशीली वस्तुएँ शरीर के अनुपम अवयवों बेतार के स्टेशनों को तोड़-फोड़ डालती है। इस तोड़-फोड़ के अधिक हो जाने पर उनकी मरम्मत असम्भव हो जाती है।
आस्टियोपैथी नामक चिकित्सा-विधि का आविष्कार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रसिद्ध अमरीकी डाक्टर एंड्रूज टेलर स्टिल ने किया। इस चिकित्सा पद्धति का पहला विद्यालय सन् 1894 में अमरीका के कर्कस-मिले मंसूर में खुला था। आज अमरीका में इसके बड़े-बड़े अस्पताल है।
आस्टियोपैथी के आधारभूत सिद्धान्त ही यह है कि शरीर में आत्मरक्षा की शक्ति पर्याप्त है। शारीरिक यन्त्र रचना अपने आप में परिपूर्ण है। इस यन्त्र रचना की अव्यवस्था ही शरीर में रोग पैदा करती है। शरीर के एक अंग की यन्त्ररचना में गड़बड़ी और कार्यक्षमता में क्षति आने से शरीर के नाड़ी-संस्थान में अव्यवस्था फैलती है और रक्त-संचालन की क्रिया प्रभावित होती है। आस्टियोपैथी में शारीरिक यन्त्ररचना की ही देखभाल की जाती है और उन्हें क्षति पहुँचाने वाली गलतियाँ सुधारी जाती है।
प्राकृतिक चिकित्सा का भी आधार यही सिद्धान्त है कि शरीर अपने आपमें एक अद्वितीय तथा सर्वांगपूर्ण यन्त्र है। रोगों का कारण जान में या अनजाने प्रकृति के नियमों का उल्लंघन है। यह उल्लंघन विचार, श्वसन-क्रिया, भोजन, पेय, वस्त्र, सेक्स, श्रम किसी से भी सम्बन्धित हो सकता है। प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धान्त के अनुसार रोगमुक्ति शरीर के अन्दर से होने वाली एक क्रिया है। मानव-देह में ही वह शक्ति निहित है, जो शरीर के भीतर जमा कचड़े या विजातीय द्रव्य को शरीर से बाहर निकाल फेंकती हैं।
शरीर की समुचित देखभाल की जाए, तो सुदीर्घ स्वस्थ जीवन सहज ही जिया जा सकता है और प्रकृति द्वारा प्रदत्त असंख्य अनुदानों से न केवल स्वयं ही धन्यता की अनुभूमि की जा सकती है, अपितु औरों को भी उनसे लाभान्वित करने का पुण्य प्रयोजन पूरा होता रह सकता है।
अमेरिकन मेडिकल एसोसियेशन तथा जेरियाट्रिक्स सोसाइटी के भूतपूर्व अध्यक्ष डा. एडवर्ड बोर्ड के अनुसार मनुष्य इन सात भूलों से बचकर विश्वासपूर्वक शतायु हो सकता है-
(1) आहार सम्बन्धी मर्यादाओं का उल्लंघन। (2) अत्यधिक या अत्यल्प परिश्रम। (3) अस्त-व्यस्त दिन-चर्या। (4) नशेबाजी (5) कामवासना संबंधी असंयम। (6) अधिक मानसिक तनाव। (7) स्वच्छता-शुचिता की उपेक्षा।
जोन्स हापकिन्स विश्वविद्यालय के विद्वान डा. रेमण्ड पर्ल की शोधों का निष्कर्ष यह है कि आहार-बिहार संबंध त्रुटियों के परिणामस्वरूप शरीर की कोषाओं में धीरे-धीरे दुर्बलता आती है और टाक्सिन नामक विष वृद्धावस्था तक पहुँचते-पहुँचते शरीर में उत्पन्न होने लगता है। यह टाक्सिन कोषों को धीरे-धीरे विनष्ट करता है। यदि इस विष की रोकथाम की जा सके तो बुढ़ापे से छुटकारा मिल सकता है। इस विश्वविद्यालय के चिकित्सा-शौधार्थियों ने मेंढकों को चिरयुवा बनाए रखने का सफल परीक्षण भी किया है।
पिछले दिनों सोवियत रूस के सर्वाधिक आयु वाले व्यक्ति 162 वर्षीय श्री शेराली और उनकी 94 वर्षीया पत्नी के स्वास्थ्य, सक्रियता और शक्ति का रहस्य पूछे जाने पर उन्होंने सादे रहन-सहन और सरल निश्चिंत मनः स्थिति को ही इसका कारण बताया।
शरीर के इन रहस्यों से प्राचीन भारतीय मनीषी परिचित थे। इसीलिए यहाँ सदा आहार-बिहार के संयम पर बल दिया गया और सुव्यवस्थित आश्रम-व्यवस्था द्वारा सामाजिक जीवन में भी इन नियमों को भली-भाँति लागू किया जाता रहा। सात्विक आहार-बिहार से ही रक्त शुद्ध रहता है।
तामसिक भोजन से स्थूल शरीर में फैला यह स्वच्छ रक्त-सरोवर भी अशुद्ध हो, अनेक रोगों का केन्द्र बनता है। आहार के साथ ही विहार का दूषण भी रक्त को दूषित करता है। असन्तुलन, विक्षोभ, क्रोध, भय, शोक हताशा जैसी मनः स्थिति का प्रभाव धीरे-धीरे रक्त को विषाक्त बनाता चलता है और तब वह विजातीय द्रव्यों-रोगाणुओं के अनुकूल हो उठता है, यह मौका पाकर बीमारियाँ चढ़ाई करने से भला क्यों चूकेंगी? आवेशों-विक्षोभों से मात्र रक्त ही दूषित नहीं होता, अपितु इन अनभीष्ट मनोवेगों का प्रत्यक्ष और गहरा प्रभाव ‘स्नायु-कोषों और नाड़ी-तन्तुओं पर पड़ता है। वे दुर्बल, असक्त तथा शिथिल होते जाते है।
आहार-बिहार की सतर्कता मानसिक सन्तुलन और सज्जनता भरे आचार व्यवहार की रीति-नीति ऐसी है जो शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने की गारंटी सिद्ध हो सकती है।