Magazine - Year 1981 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
हृदय परिवर्तन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
पुन्नाग अपराध का पर्याय बन चुका था। अश्रुतवन की शिलायें, वृक्ष, निर्झर और वनचर अब उसकी क्रूरता के साक्षी थे। उस पथ में भटका हुआ कोई भी यात्री सुरक्षित अपने घर पहुँचा हो, ऐसा आज तक किसी ने सुना नहीं था। बहुतेरे प्रयत्न करके भी राजदण्ड उसकी छाया तक के दर्शन नहीं कर पाया। प्राणियों को पीड़ित देखना ही मानो पुनन्नाग का इष्ट था। निरीहों का क्रन्दन, करुणा भरी पुकारें हृदय तो क्या उसके मन तक में प्रवेश नहीं पा सकी थीं। ऐसा लगता था विधाता ने उसकी रचना ही अपराध के लिये की हो।
किन्तु पुन्नाग जब अपनी पुत्री को देखता, न जाने क्यों उसका अपराध सिमट कर उसके मन में प्रवेश करने लगता। अपने पिता को समीप पाकर विपाशा की बांहें खिल जातीं, हृदय उल्लास से भर जाता। विपासा प्रश्न करती-तात! आपे मेरे लिये इतनी सम्पत्ति, वस्त्र, आभूषण कहाँ से लाते हैं। तो यह प्रश्न पुन्नाग के हृदय को झकझोर जाता। वह बात को ऐसे टाल जाता मानो पुत्री का अधिकारी भौतिक सम्पत्ति ही हो, भावनायें नहीं। और मातृ विहीन विपाशा सदैव अपने पिता के स्नेह के लिये ही तड़पती रहती। धीरे-धीरे उसे अपने पिता के कृत्यों का भी पता चल गया।
उस दिन विपाशा अकेली थी। मृग-शिशु मयंक उसे दिखाई नहीं दिया। खोजती हुई वह उपवन में पहुँची। मयंक ने छलाँग लगाते समय अपनी अगली टांग तोड़ ली थी। वह चल नहीं पा रहा था। दूसरा पैर उठाता तो शरीर का भार टूटी अस्थि पर पड़ता। मयंक दर्द से छटपटा उठता। विपाशा ने पहली बार पीड़ा देखी थी, उसे मालूम हो गया था कि उसके जन्मदाता अब तक सहस्रों आत्माओं को कैसी पीड़ा के गहन गह्वर में झोंक चुके हैं। मृग शिशु की पीड़ा में उसने अपना जन्म-जन्मान्तरों का प्रतिबिम्ब देखा। पैर की हड्डी टूटने से क्या होता है यह जानने के लिये नन्हीं विपाशा ने प्रस्तर खण्ड लिया और अपने पैर पर प्रहार किया। हड्डी टूटते ही विपाशा पीड़ा से छटपटाने लगी।
दर्शन के निष्णात की तरह विपाशा का ध्यान पुनः मृग शिशु पर गया। अब मयंक की पीड़ा का उसे आत्मीय बोध हो रहा था। आंखें तो अविरल बरसती जा रही थीं, पर ऐसी विश्रान्ति उसे सम्भवतः अपने पिता के स्नेह से भी न मिलती। मयंक ने यह सब देखा तो उस मानवेत्तर प्राणी की करुणा छलक उठी। बहुत देर तक विपाशा उसे पैर में अपना उत्तरीय बाँधती रही और मयंक उसे चाटता ही रहा-चाटता ही रहा। इसी स्थिति में कब शाम हो गई, कब दोनों बालक निद्रा की गोद में चले गये कुछ पता नहीं चला।
आज पुन्नाग अपनी पुत्री से मिलने आया है, पर सदैव की तरह उसके द्वार बन्द नहीं, खुले थे। पहले उसके पद्चाप सुनते ही विपाशा दौड़ी आती थी, पर आज पुन्नाग का मन दौड़ रहा था, पर विपाशा नहीं थी। पुन्नाग ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, विपाशा कहीं भी तो नहीं थी। वह उपवन की ओर भागा जहाँ उसने प्रकृति के दो जीवों को धरती माँ की गोद में एक साथ दुःख भरी विश्रांति में देखा। पुन्नाग ने पुकारा विपाशे! “तात” कहकर जैसे ही विपाश स्नेह वश उठी कि वहीं धराशायी हो गई। व्यथा से उसका सारा शरीर काँप उठा।
पुन्नाग का हृदय विदीर्ण हो उठा। उसे चीत्कार की विपाशे! तुम्हें यह क्या हुआ? विपाशा ने क्षीण स्वर में उत्तर दिया- “तात! मैं देखना चाहती थी कि जीवों को किस तरह की पीड़ा होती है, सुना है आप भी तो ऐसे ही लोगों को कष्ट दिया करते हैं- ‘‘इतना कहते-कहते विपाशा मूर्छित हो गई। मानवीय सम्वेदना कितनी मार्मिक होती है यह पुन्नाग को आज पता चला।
पुन्नाग का मर्म मचल उठा, उसने उस दिन से हिंसा न करने की सौगन्ध खाई। यही नहीं उसने शेष जीवन पीड़ित मानवेत्तर जीवों का उपचार करने में लगा दिया।