Magazine - Year 1982 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
‘भावोहिविद्यते देव तस्मात् भावो हि कारणम्”
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कौरवों की सभा में द्रौपदी का चीरहरण किया जा रहा था। वह अबला असहाय खड़ी थी। हृदय से पुकारने पर अप्रत्याशित ईश्वर की सहायता प्राप्त हुई और उसकी लाज बच गयी। दमयन्ती बीहड़ वन में अकेली थी, व्याघ्र उसका सतीत्व नष्ट करने पर तुला था। उसकी नेत्र ज्योति में से भगवान की शक्ति प्रकट हुई और व्याघ्र जलकर भस्म हो गया। दमयन्ती पर कोई आँच नहीं आई। प्रहलाद के लिए उसका पिता ही जान का ग्राहक बन बैठा था। बचकर कहाँ जाय? खंभे में से नृसिंह भगवान प्रकट हुए और प्रहलाद की रक्षा हुई। घर से निकाले गये पाण्डवों की असहाय स्थिति देखकर भगवान उनकी सहायता करने स्वयं आये। ग्राह के मुख से गज के बन्धन को छुड़ाने के लिए भगवान नँगे पैरों दौड़े आये थे।
मीरा को विष का प्याला भेजा गया और विषैले सांपों का पिटारा भी, पर वह मरी नहीं। न जाने उसके हलाहल को कौन चूस गया और मीरा जी बच गयी। भागीरथ की तपस्या से द्रवीभूत होकर ही गंगा पृथ्वी पर आकर बहने के लिए तैयार हो गयी और स्वयं महाकाल ने गंगा को जटाओं में धारण किया। महर्षि के शाप से संत्रस्त राजा अंबरीष की सहायता करने भगवान का चक्र सुदर्शन स्वयं दौड़ा आया था। समुद्र से टिटहरी के अण्डे वापिस दिलाने में सहायता करने के लिए भगवान अगस्त्य मुनि बनकर आये थे। नल और नील ने समुद्र पर पुल बाँधने का असम्भव कार्य सम्भव कर दिखाया था। हनुमान को समुद्र में छलाँग लगाने की शक्ति अदृश्य दैवी चेतना सत्ता द्वारा ही प्राप्त हुई थी।
प्राचीन काल में ही नहीं हमेशा से ही कितने ही व्यक्तियों को अदृश्य सहायताएं समय−समय पर प्राप्त होती रही हैं। ईश्वरीय अनुकम्पा मिलने के सिद्धान्त सनातन और शाश्वत हैं। उस महान सत्ता के अनुदान जिन दो चैतन्य तारों से होकर प्रवाहित होते और हर काल में प्रकट होते हैं, वे है–श्रद्धा और विश्वास। विद्युत एक अदृश्य शक्ति है पर उसे प्राप्त करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। टंगस्टन के तारों में धन और ऋण विद्युत धाराओं के प्रवाहमान होने पर ही विद्युत−शक्ति जन्म लेती है। बल्ब में उस अदृश्य विद्युत का प्रभाव दृश्य प्रकाश के रूप में परिणित हो जाता है। चुम्बक एक ऐसी शक्ति है जिसे देखा नहीं जा सकता किन्तु जब उसे एक विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा लोहे की सुई में पिरो दिया जाता है तो वह दिशासूचक यन्त्र कुतुबनुमा बन जाता है। परमात्मा एक अदृश्य शक्ति है किन्तु अन्तःकरण की श्रद्धा और मन का विश्वास जहाँ भी एकाकार होते हैं, उस सत्ता का प्रकटीकरण विभिन्न रूपों में निश्चित ही होता है।
साधना क्षेत्र में प्रगति करने और दिव्य ईश्वरीय अनुदानों को आकर्षित करने में साधक की आन्तरिक श्रद्धा ही प्रमुख रूप से उत्तरदायी है। अस्तु मनीषियों ने श्रद्धा और विश्वास को परिपक्व करने पर अत्यधिक जोर दिया है। व्यायाम के अनेकानेक प्रयोगों से शरीर बल बढ़ता है। ज्ञान वृद्धि में शिक्षा का अवलम्बन सहायक होता है। धनी बनने के लिए उद्योग व्यवसाय अपनाने पड़ते हैं ठीक इसी प्रकार श्रद्धा और विश्वास को विकसित करने के लिए देव प्रतिमाओं–पूजा−प्रतीकों को माध्यम बनाना पड़ता है। उनमें आरोपित हुई श्रद्धा ही प्रतिध्वनित और प्रतिफल होकर साधक के पास वापिस लौट आती है गदा को दीवार या धरती पर मारने से टकराकर वह उसी स्थान को लौटती है जहाँ से उसे फेंका गया था। किंवदंती है कि शब्दबेधी बाण लक्ष्य बेध करने के बाद लौटकर पुनः तरकश में आ जाते है। गुम्बज में की गई आवाज प्रतिध्वनित होकर उस स्थान पा वापस आ टकराती है। पृथ्वी गोल है। यदि सीधी रेखा बनाकर चलते चला जाय तो चलने वाला लौटकर वहीं आ जायेगा जहाँ से उसने चलना आरम्भ किया था।
श्रद्धा देव प्रतिमाओं−पूजा प्रतीकों पर सघन रूप में आरोपित की जाती है। वे निर्जीव होने के कारण स्वयं तो प्रकृति नहीं कर सकते, पर प्रतिक्रिया को सुनिश्चित रूप से प्रयोग कर्त्ता के ऊपर लौटा देते है। गोबर से बने गणेश भी उतने ही चमत्कारी फल प्रदान करते है जितना कि असली गणेश कर सकते हैं। एकलव्य ने मिट्टी से बने द्रोणाचार्य की प्रतिमा से उतना लाभ प्राप्त कर लिया था जितना कि असली द्रोणाचार्य से पाण्डव स्वयं भी नहीं उठा सके थे। यह श्रद्धा की शक्ति का ही चमत्कार है। देवता का निवास काष्ठ पात्रों अथवा पाषाणों में नहीं, अन्तः की उच्चस्तरीय श्रद्धा में होता है। ‘भावोहि विद्यते देव तस्मात् भावों हि कारणम्’ की उक्ति अक्षरशः सत्य है। भावना में ही देवता का निवास होता है। अस्तु देव−दर्शन से होने वाले लाभों में भावना का स्तर ही प्रमुख कारण है।
अन्तःकरण की जिस उत्कृष्टता को श्रद्धा के नाम से जाना जाता है, उसका व्यावहारिक स्वरूप है भक्ति। दोनों एक दूसरे के पर्याय है। श्रद्धा अन्तरात्मा की आस्था है। श्रेष्ठता के प्रति असीम प्यार के रूप में उसकी व्याख्या विवेचना की जाती है। श्रद्धा की प्रेरणा है–श्रेष्ठता से घनिष्ठता, तन्मयता एवं समर्पण की प्रवृत्ति का विकास। परमेश्वर के प्रति इसी भाव सम्वेदना को विकसित करने का नाम है–भक्ति। भक्त को भगवान के प्रति अनन्य प्रेम उत्पन्न करना पड़ता है और उसे स्तर कर बनाना पड़ता है कि सच्चे प्रेमी की तरह आत्मसात् होने और आत्म समर्पण किये बिना चैन ही न पड़े। लौकिक जीवन में भी पत्नी पति के प्रति इसी प्रकार के आत्म−समर्पण से पति के अस्तित्व के साथ अपना अस्तित्व मिला देती है। इसे ही विलय, विसर्जन, समर्पण कहते हैं।
श्रद्धा जब घनीभूत होती है तो वह निष्ठा के रूप में प्रकट होती है। उसे ही विश्वास के रूप में सम्बोधित किया गया है। विश्वास की प्रतिक्रिया संकल्प शक्ति के उभार के रूप में होती है। आस्थाएँ आकांक्षाएं जब परिपक्व स्थिति में पहुँचती है और निश्चयपूर्वक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती है तो उन्हें संकल्प कहते हैं। संकल्प की प्रचण्ड शक्ति सर्वविदित है। संकल्प की प्रखरता मस्तिष्क और शरीर दोनों को ही अभीष्ट दिशा में घसीट ले जाती है। इस संकल्प रूपी प्रचण्ड शक्ति का उभार विश्वासरूपी बीज से ही होता है। अंतःकरण की इन्हीं उच्चस्तरीय आस्थाओं को श्रद्धा और विश्वास का रूप दिया गया है तथा विविध रूपों में उनकी अभ्यर्थना वन्दना की गयी है।
उत्कृष्ट श्रद्धा विश्वास को शिव−पार्वती का युग्म कहा गया है। गोस्वामीजी ने रामचरित मानस के आरम्भ में अन्तःकरण की इन दो महाशक्तियों की ही सर्वप्रथम वन्दना की है।
‘भवानी शंकरौ बन्दे, श्रद्धा विश्वास रुपिणौ।
याभ्याँ बिना न पश्यन्ति सिद्धाः, स्वान्तः स्थमीश्वरम्॥”
अर्थात्–” मैं श्रद्धा और विश्वास रूपी भवानी और शंकर की वन्दना करता हूं जिनके बिना अन्तःकरण में अवस्थित परमात्मा सत्ता को सिद्ध जन देख नहीं सकते।”
गीताकार इसी तथ्य को स्पष्ट करता है–”श्रद्धा मयोऽयं पुरुष यौ यच्छद्धः स एवसः।” व्यक्ति श्रद्धामय ही है जिसकी जो श्रद्धा है वह वही है। अर्थात् जीव की स्थिति श्रद्धा के साथ लिपटी हुई है। क्रिया, विचारणा और भावना यही तीन चैतन्य शक्तियाँ हैं। श्रेष्ठता की दिशा में जब वे बढ़ती हैं तो सत्कर्म, सद्ज्ञान एवं सद्भाव के रूप में प्रकट होती हैं। ब्रह्म विद्या का विशालकाय कलेवर इन तीनों को ही सुविकसित करने के लिए खड़ा किया गया है। पर इन तीनों का विकास श्रद्धारूपी बीज से ही होता है। कहना न होगा कि मानव जीवन की सर्वसमर्थ शक्ति श्रद्धा ही है। शरीर को जन्म तो माता−पिता के प्रयत्न से मिलता है, पर आत्मा की उत्कृष्टता, श्रद्धा और विश्वास रूपी दिव्य जननी और पिता की अनुकम्पा का प्रत्यक्ष फल माना जा सकता है। अन्तःकरण का स्तर ही मनुष्य की प्रगति−अवनति का कारण बनता है। अदृश्य कृपा, दैवी अनुग्रह अथवा, दैवी कोप का तात्विक स्वरूप समझना हो तो उन्हें अन्तःकरण के ही वरदान अभिशाप के रूप में समझा जा सकता है।
लोक व्यवहार में कहा जाता है कि–मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। गीता इसी तथ्य को प्रतिपादित करती है–”आत्मैवह्यात्म् बन्धु−आत्मैव रिपुरात्मनः”। अर्थात् मनुष्य स्वयं अपना शत्रु और मित्र है। पतन और उत्थान की कुँजी पूरी तरह उसके हाथ में है। निश्चित रूप से वह कुँजी अन्तःकरण में सुरक्षित रखी है। शास्त्रकारों ने इसी कुँजी को विविध नामों से–आस्था, निष्ठा, श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, संकल्प आदि के रूप में सम्बोधित किया है। निश्चित ही आत्मिक विकास के लिए की जाने वाली साधनाओं में सद्श्रद्धा का विकास के लिए की जाने वाली साधनाओं में सद्श्रद्धा का असाधारण महत्व है। इसी का उभारने एवं सुविकसित करने के लिए विविध प्रकार के प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष पूजा उपचार किये जाते हैं।
बीज की परिणति वृक्ष के रूप में होती है। श्रद्धा ही बहिरंग व्यक्तित्व का रूप धारण करती है। मनुष्य जो कुछ बनता है और जैसा भी दिखाई पड़ता है वह सब श्रद्धा शक्ति का ही चमत्कार है। शास्त्रकार कहते हैं–”उद्धरेत् आत्मनात्मानं–नात्मनं अवसादयेत्”। अर्थात्−”अपना उद्धार आप करो–अपने को गिराओ मत।” प्रकारान्तर से शास्त्रकार अंतःश्रद्धा को ही उत्कृष्ट बनाने तथा परिपुष्ट करने का निर्देश देते हैं। यही दृढ़ और परिपक्व होकर उच्चस्तरीय अनुभूतियों का कारण बनती है। घनीभूत एवं व्यापक होकर साधक को उन अनुभूतियों के निकट लाती है जहाँ पहुँचने पर ऋषिगण कह उठते थे–अयमात्मा ब्रह्म, सच्चिदानंदोऽहम्। श्रद्धा की इस गरिमा को देखते हुए ही अध्यात्मवादियों ने उसे मानवी सत्ता में विद्यमान साक्षात् ईश्वरीय शक्ति के रूप में नमन अभिवंदन किया है। उसी की उपलब्धि को आत्मोपलब्धि कहा गया है और उसे जीवन लक्ष्य पूर्ति का केन्द्र−बिन्दु माना गया है।
श्रद्धा के अभिसिंचन से ही पत्थर में से देवता का उदय हो जाता है। मीरा, सूर, तुलसी का भगवत् दर्शन उनकी गहन श्रद्धा का ही प्रतिफल था। रामकृष्ण परमहंस की काली उनसे साक्षात् वार्तालाप करती थी− भोग लगाती थी। रानी रासमणि में स्वयं इस तथ्य की पुष्टि की थी। आज भी काली की प्रतिमा यथावत् है, पर वह चमत्कार नहीं देखा जाता। यह सब अन्तःकरण की उत्कृष्ट श्रद्धा की ही परिणति थी जिसने काली की पाषाण प्रतिमा को इतना सजीव बना लिया था। साधना क्षेत्र में कितने ही साधक उत्साह के साथ प्रविष्ट होते हैं, उपासना के विधि−विधान एवं नियमों का कड़ाई के साथ पालन करते हुए भी देखे जाते हैं, पर उनमें से प्रकृति ही ऐसे होते हैं, जो अभीष्ट परिमाण में आध्यात्मिक उपलब्धियों को करतलगत कर पाते हैं। अधिकांश तो सीमित लाभ ही उठा पाते हैं। एक ने चमत्कारी सामर्थ्य अर्जित करली जबकि दूसरा खाली हाथ रह गया, इस अन्तर के कारणों का बारीकी से अध्ययन−विश्लेषण किया जाय तो एक ही तथ्य हाथ लगेगा कि श्रद्धा की न्यूनाधिकता ही इस भारी विरोधाभास का कारण बनती है।
आध्यात्मिक उपलब्धियाँ भीतर से तो निकलती ही हैं, ईश्वरीय अनुदानों−परोक्ष सहयोगों के रूप में भी बरसती हैं। पर उन्हें अन्तःकरण की श्रद्धा का चुम्बकत्व ही खींच पाने में सफल हो पाता है। ईश्वरीय सत्ता में सुदृढ़ विश्वास रखने वाला ही उन्हें प्राप्त कर पाने में सफल होता है। जिन्हें अन्तः और बाह्य क्षेत्र के दिव्य अनुदानों को उपलब्ध करता हो उन्हें अपनी साधना का शुभारम्भ श्रद्धा और विश्वास को उभारने–सुविकसित करने के रूप में करना चाहिए।