Magazine - Year 1983 - Version 2
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Language: HINDI
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अपने को न केवल देखें, समझे, सुधारे वरन् उभारें भी
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दूसरों की सहायता करना और आवश्यकतानुसार लेते रहना - मानवी लोक व्यवहार का आधार है। आदान-प्रदान की व्यवस्था अपना कर ही यह समूचा संसार चल रहा है। पदार्थों, वनस्पतियों और प्राणियों के बीच यह प्रक्रिया निर्बाध गति से चलती देखी जाती है। इसे बनाये रहने में योगदान करने का औचित्य भी है और लाभ भी।
इतने पर भी यह मानकर चलना चाहिए कि आत्मावलम्बन ही प्रधान तथ्य है। उसी को अपनाने से गुजारा होता और भविष्य बनता है। दूसरों पर निर्भय रहकर कोई न तो अपना अस्तित्व बनाये रह सकता है और न प्रगति पथ पर दूर तक अग्रसर हो सकता है।
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से सभी परिचित है। वह हर वस्तु को पकड़ती और अपनी ओर घसीटती है। मानवी सत्ता का भी एक चुम्बकत्व है। वह अपने सजातीय व्यक्तियों, वस्तुओं और परिस्थितियों को न केवल पकड़े रहती है, वरन् घसीटकर भी अपने समीप बुलाती है। जो व्यक्ति जैसा होता है, उसे अपने सहधर्मी की तलाश करने में देर नहीं लगती। जलाशयों का पानी जिधर-तिधर होते हुए समुद्र में जा पहुँचता है। इतना ही नहीं, समुद्र भी चैन से नहीं बैठता, वरन् जहाँ भी जलाशय होते हैं वहाँ जलराशि पहुँचाने के लिए अपने दूत बादलों को भेजता ही रहता है।
जैसी अभिलाषा है, उसके अनुरूप अपनी पात्रता विकसित करनी चाहिए। विश्व व्यवस्था में ऐसा प्रावधान है कि क्षमता के अनुरूप उपलब्धियाँ सरलतापूर्वक हस्तगत होती रहें। इसके लिए अन्यान्यों का द्वार खटखटाने की अपेक्षा यही अच्छा है कि अपने को न केवल देखें, समझे; सुधारें वरन् उभारने का भी प्रयत्न करें। यही सफलता का राजमार्ग है।