Magazine - Year 1983 - Version 2
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Language: HINDI
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कमल के समान निर्लिप्त स्थिति
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भागीरथी का पावन किनारा। तट पर प्रकृति के सुरम्य वातावरण में महर्षि प्रवर वशिष्ठ का निवास था। आचार्य अपनी सहधर्मिणी अरुन्धती देवी के साथ गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं को निबाहते हुए तपश्चर्यारत थे। सूर्यवंशी राजाओं के पुरोहित- ज्ञान के अधिष्ठाता के रूप में उनकी ख्याति चहुँ ओर व्याप्त थी।
एक बार वशिष्ठजी के आश्रम में अपने क्रोधी स्वभाव के लिये प्रख्यात दुर्वासा ऋषि पधारे। ऋषिका देवी अरुन्धती ने उनके स्वागतार्थ अनेकों प्रकार के व्यंजन बनाए। सभी को रुचि पूर्वक खाते हुए वे समूचे आश्रम का स्वयं भोजन अकेले ही उदरस्थ कर गए, मानो ऋषि दम्पत्ति की परीक्षा ले रहे हों। इतना अधिक भी कोई खा सकता है, यह अरुन्धती ने पहली बार देखा था।
वर्षा तेजी से होने लगी। गुरुकुल और आश्रम के बीच पड़ने वाली छोटी सी, पर वर्षा में भयंकर रूप ले लेने वाली सरिता का सहज ही ऋषिका को ध्यान आ गया जो आगे चलकर भागीरथी में एकाकार हो जाती थी। गुरुकुल की व्यवस्था हेतु उन्हें तुरन्त लौटाना भी जरूरी था। ब्रह्मचारी भूखे बैठे होंगे, इस चिन्ता से वे खिन्न हो रही थीं।
महर्षि ने असमंजस को समझा और कहा- “भद्रे! चिन्ता न करो। जब तुम यहाँ से चलो तो नदी के तट पर पहुँचकर उससे अनुरोध करना- “निराहारी दुर्वासा को भोजन कराने का पुण्य फल यदि मैंने कमाया हो तो उसके सहारे मुझे मार्ग मिले और मैं पार जाऊँ।”
अरुन्धती मन में असमंजस लिए चलीं लेकिन पति द्वारा निर्देशित वचन कहते ही देखते-देखते प्रवाह रुक गया पानी घटा और अरुन्धती पार निकल गईं। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि इतना अधिक खा जाने वाले दुर्वासा निराहारी कैसे रहे? नदी ने किस कारण इस मिथ्या कथन को सत्य माना।
असमंजस चलता ही रहा। दूसरे दिन फिर दुर्वासा को भोजन कराने अरुन्धती वशिष्ठ की पर्णकुटी पहुँची और भोजन बना। दुर्वासा आज स्वरूप भोजन में ही सन्तुष्ट हो गए। संयोगवश लौटते समय आज फिर कल जैसी ही घटना घटी। मूसलाधार वर्षा होने लगी। पहाड़ी नदी देखते ही देखते विशाल रूप लेते हुए इतराते हुए चलने लगी। पानी इतना था कि पार करना कठिन था। अभी तीन-चार पहर और पानी रुक सकेगा, इसकी सम्भावना कम ही थी।
आज फिर महर्षि प्रवर ने ऋषिका को समीप बुलाकर नया अनुरोध नदी से करने का परामर्श दिया। उन्होंने कहा- “भद्रे! आज नदी से कहना- यदि मैं बाल ब्रह्मचारी वशिष्ठ की पत्नी रही हूँ तो मुझे रास्ता मिले।” आज्ञा पाक ऋषि पत्नी चल पड़ीं, पर मन में एक ऊहापोह बराबर बना रहा कि यह कैसा अनुरोध व सरिता इसे कैसे स्वीकार करेगी?
पति के परामर्श के अनुसार उन्होंने पूरी श्रद्धा से इस कथन को दुहराया। नदी कल की तरह ही फिर रुक गयी। किंचित मात्र पानी में चलते-चलते वे सरलता पूर्वक पार हो गयीं। उनके पार होते ही नदी फिर उसी वेग से बहने लगी।
लेकिन उनका आज का असमंजस और भी बड़ा व जटिल था। वशिष्ठ सौ पुत्रों के पिता बन चुके। फिर वे ब्रह्मचारी, कैसे रहे? क्या यह कथन एक ऋषिका के मुँह से मिथ्या नहीं निकला?
अरुन्धती के इस असमंजस का समाधान करते हुए वशिष्ठ ने उन्हें कहा- “भद्रे! मनुष्य का मूल्याँकन उसकी मनःस्थिति के अनुरूप होता है। मात्र शरीर क्रियाओं के आधार पर किसी का स्तर, चिन्तन एवं चरित्र का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। प्रधानता भावना की है, क्रिया की नहीं। जो जल में रहकर भी उससे दूर है, जीवन व्यापार को निभाते हुए भी उसमें लिप्त नहीं है, उसका मूल्याँकन उसके अन्तरंग के अनुसार ही किया जा सकता है- बहिरंगीय क्रिया-कलापों के आधार पर नहीं।” ऋषिका का समाधान हुआ, एक नहीं दृष्टि मिली।