Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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मनोनिग्रह- सबसे बड़ा पुरुषार्थ
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मन व्यक्तित्व की केन्द्रीय धुरी है। शुद्ध, निर्मल, फूलों जैसे कोमल मन में कोमल सम्वेदनाएँ, सात्विक विचार, उत्कृष्ट प्रेरणाएँ हिलोरें लेती रहती हैं। इस फूल से सुन्दर, शुद्ध-पवित्र मन का असर मनुष्य के व्यवहार और व्यक्तित्व पर पड़ता है। प्रसन्न मन अस-पास के वातावरण में उसी प्रकार प्रसन्नता भर देता है जैसे ताजा फूल चारों ओर सुगन्धि भर देता है। दूसरी ओर जब मन में घृणा, ईर्ष्या-द्वेष, जलन-कुढ़न, क्रोध-वैमनस्य आदि के भाव उबलते रहते हैं, तो वे दूसरे के मन में भी इसी प्रकार तीक्ष्ण काँटों के चुभन जैसी प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। मन के ये भाव छिपाये नहीं छिपते, अपितु उनका असली रूप प्रकट होकर ही रहता है। “उघरहिं अन्त न होइ निबाहू” वाली बात मन द्वारा छिपाये जाने वाली भाव चेष्टाओं के ऊपर बिल्कुल खरी उतरती है। अपने मन से कोई भी चोरी, छल और झूठ नहीं चल सकता। वह अपनी प्रत्येक गतिविधि को नोट करता रहता है और उनके औचित्य-अनौचित्य पर निर्णय भी देता रहता है। इसीलिए मन से बचना सम्भव नहीं। मन सही बात किसी न किसी रूप में जाहिर कर ही देगा। व्यक्ति अपने पवित्र भाव का दावा करते हैं, लेकिन मौका पाते ही उनके मनोभाव चेहरे पर, आँखों में, माँस-पेशियों में उभर आते हैं। कभी वाणी से फूट पड़ते हैं, तो कभी व्यवहार से। उस समय कृत्रिम व्यक्तित्व की सारी दीवारें ढह जाती हैं। परिष्कृत मन के बिना ऊपर से प्रदर्शित किया जाने वाला व्यक्तित्व बालू का महल है, मन के प्रचण्ड चक्रवात के एक ही थपेड़े से वह जाने कहाँ उड़-बिखर जाता है।
मात्र अभिव्यक्ति के इन विविध रूपों में ही नहीं, मौन की स्थिति में मनःस्तर अपना प्रभाव दिखलाता है। मन के विचारों का वातावरण पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। शुद्ध मन वाला व्यक्ति जहाँ रहता है, वहाँ का पर्यावरण भी उस शुद्धता से प्रभावित रहता है। जिस कमरे में सात्विक पुरुष रहते हैं, वहाँ कोई अन्य व्यक्ति विरोधी विचार लेकर भी जाए, तो उसके विचार वहाँ दब जाते हैं। इसके विपरीत, अनुचित क्रियाकलापों के केन्द्रों जुआघरों, शराब खानों आदि का प्रभाव भी इतना तीव्र होता है कि इन अड्डों को समाप्त कर दिए जाने के बाद भी वहाँ का वातावरण तब तक दूषित रहता है, जब तक कि वहाँ कुछ समय तक श्रेष्ठ गतिविधियाँ न चलती रहें।
उत्कृष्ट विचारों वाले व्यक्ति के सान्निध्य में लोग अपना दुःख-दर्द भूल जाते हैं। जबकि हीन विचारों वाले व्यक्ति का सान्निध्य घुटन उत्पन्न करता है।
जिस घर परिवार में किसी की मृत्यु हो जाती है, वहाँ जाते ही लोगों के मन को एक तरह के अवसाद की आघातकारी तरंगें घेर लेती हैं। यज्ञायोजनों, समारोहों, उत्सवों, पर्वों, विवाह के मण्डप आदि स्थलों में प्रवेश करते ही उल्लास की तरंगें मन में उभर आती हैं। ये सब मानसिक स्थितियों के सूक्ष्म प्रभाव हैं। ऐसा ही सूक्ष्म प्रभाव सत्संग का पड़ता है। इसलिए शास्त्रों में सत्संग की महिमा का गान है। सत्पुरुषों का सान्निध्य दिव्य-विचारों की तरंगों से मन को भर देता है।
मन ही इन्द्रियों का शासक इन्द्र है। जब वह लापरवाह और अपव्ययी होता है, तो इन्द्रियाँ उसके खजाने को खुला पाकर, उस धन को यों ही लुटाती रहती हैं। इन्द्रियाँ द्वार हैं, जो मन के जागरुक रहने पर, आवश्यकतानुसार ही खुलते हैं। शेष समय बन्द रहते हैं। दुर्बल, असंयमी मन का इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं रहता और इस प्रकार वे द्वार हमेशा ही खुले पड़े रहते हैं। व्यक्तित्व की आधारभूत शक्तियाँ इन द्वारों से व्यर्थ ही बहती रहती हैं। जो आन्तरिक ऊर्जा महत् प्रयोजनों में खर्च होनी थी, वह उद्विग्न मन यों ही मथ-मथकर, अकारण बहाता रहता है। ऐसा व्यक्तित्व एकीकृत नहीं रह पाता। यही स्थित मेण्टल ब्रेकडाउन या डिप्रेशन या मधुमेह को जन्म देती है।
मन का साम्राज्य बहुत बड़ा है। यह साम्राज्य सुव्यवस्थित रहे, विचारों, इच्छाओं और क्रियाओं में संतुलन सामंजस्य रहे, तो व्यक्तित्व एकीकृत, परिष्कृत, सुघड़ कहा जाता है। मन के साम्राज्य में अराजकता फैली हो, तो वह कुरूप, अनगढ़ व्यक्तित्व को जन्म देता है। मन का स्वरूप ही व्यक्तित्व का स्वरूप है। मानवी शरीर परम्परावलम्बी हैं, पर नियंत्रणकर्ता मन ही है। कोई व्यक्ति बहुत सुन्दर नाश-नक्श वाला हो, पर उसके विचार और व्यवहार भद्दे हों, तो उसे कोई भी श्रेष्ठ व्यक्तित्व-सम्पन्न न कहेगा। दूसरी ओर संसार में ऐसे लाखों लोग हुए हैं, जिनके शरीर में कुछ भी आकर्षण न था, पर जो महान व्यक्तित्व के स्वामी कहे जाते रहे हैं। स्पष्टतः व्यक्तित्व का सम्बन्ध मुख्यतः मनःस्थिति से है, तन की स्थिति से नहीं।
इसीलिए व्यक्तित्व की साधना का अर्थ है मन की साधना। जिसने मन को साध लिया, उसका व्यक्तित्व सध गया। किन्तु मात्र जागृति की स्थिति में अनुभव में आने वाले भाव ही मन की पहचान नहीं। जागृति, निद्रा, स्वप्न सभी स्थितियों में मन सक्रिय रहता है और चेतन मन से अचेतन-सुषुप्त-मन की परिधि अधिक व्यापक है। अतः मन की साधना का भी प्रधान क्षेत्र अचेतन मन ही है। आध्यात्मिक साधनाओं की विशेषता का रहस्य यही है कि वे अचेतन मन को शुद्ध करती हैं, वहीं पर उत्कृष्टता के अंकुर उगा देती है। तन, चेतन में उनका विकास स्पष्ट देखा जा सकता है। उपनिषद् का ऋषि कहता है-
“चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेश दूषिताम्।
तदेवतर्विनिमुक्तं भावान्त इति कथ्यते।”
-महोपनिषद् 4।66
अर्थात्-यह चित्त ही संसार है। इस संसार में रागादि दोषों की वृद्धि क्लेशों का कारण बनती है। इन दूषणों से छुटकारा ही मुक्ति कही जाती है।
स्वयं मन को ही ऊँचा उठाना- सर्वश्रेष्ठ मानसिक संकल्प है। मनःस्तर ही व्यक्तित्व है। मुक्त मनःस्थिति मुक्त व्यक्तित्व की परिचायक है और रुग्ण मनःस्थिति व्यक्तित्व की रुग्ण बनाती है। मानसिक विकास को ही व्यक्ति-विकास का पर्याय मनीषियों ने माना है।